दिल्ली में नए-नए बाजार और मॉल खुलते रहे पर जनपथ मार्केट के सामने सब उन्नीस हैं। उत्सव और उत्साह का माहौल यहां का स्थायी भाव है। कौन सा दिल्ली वाला होगा जिसने यहां पर आकर शॉपिंग नहीं की होगी। दिल्ली घूमने के लिए आने वाले शख्स का सफर अधूरा ही माना जाएगा अगर वह इधर हाजिरी नहीं देगा। उसका यहां पर आना लाजिमी है।
जनपथ मार्केट की फिजाओं में समाजवादी व्यवस्था को महसूस कर सकते हैं। इसे सैकड़ों करोड़ रुपए का बिजनेस करने वाले से लेकर मेहनत–मशक्कत करने वाला शख्स समान रूप से अपनी समझता है। इंडियन आयल की बिल्डिंग 1970 में बनी और उसके नीचे 29 दुकानों के लिए स्पेस निकला। ये दुकानें पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को अलॉट हुईं। ये सब पहले जनपथ पर ही अस्थायी रूप से अपनी दुकानें चला रहे थे।
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जनपथ मार्केट बनते ही दिल्ली वालों के दिल में बसने लगी। इसकी एक वजह इसकी शानदार लोकेशन भी थी। आखिर ये कनॉट प्लेस का हिस्सा है। जनपथ की जान है भाव-ताव। इधर तबीयत से भाव-ताव कीजिए। अंत में बात बन जाएगी। दुकानदार-ग्राहक डील को अंतिम रूप दे देंगे। ये कम ही होता है कि कोई कस्टमर भाव-ताव में सफल ना होने से मायूस होकर चला गया हो। जबकि कनॉट प्लेस में भाव-ताव के लिए कोई स्कोप नहीं होता।
इसे अखिल भारतीय पहचान दिलवाई कोल्ड कॉफी की मशहूर दुकान डी-पॉल्स,आदर्श स्टोर्स,नोवल्टी,कला निकेतन, इंद्रप्रस्थ,माया टॉयज जैसी दुकानों ने। पंजाब में 1980 के दशक में खूनी आतंकवाद का दौर चालू हुआ तो जनपथ मार्केट बाजार से इंदिरा गांधी, मेनका गांधी और दूसरे सेलिब्रेटीज ने दूरियां बना लीं। इंदिरा गांधी यहां अपने सैंडिल और बैलिज लेने के लिए आया करती थीं। मेनका गांधी आदर्श स्टोर्स से अपनी पत्रिका सूर्या के लिए फोटो खिंचवाया करती थीं। बॉलीवुड में जाने से पहले अमृता सिंह और कीर्ति आजाद जनपथ मार्केट में कोल्ड कॉफी पीने के लिए शाम को वक्त निकाल ही लेते थे। अमृता सिंह जनपथ मार्केट के बिलकुल पीछे विंडसर मैनशन में अपनी मां रुखसाना सुल्ताना के साथ रहती थीं।
जनपथ मार्केट का भाग्य सच में तब खुला जब इसके आगे जींस,टी-शर्ट,स्वेटर,घड़ियां,शर्ट वगैरह की दुकानें लगने लगी। ये 1975 से लगने लगीं थीं। अब ये लगभग 150 हैं। नई दिल्ली नगर पालिका (एनडीएमसी) ने सरोजनी नगर,गोल मार्किट,आईएनए में पटरियों पर बैठकर अपनी दुकानें चलाने वालों को इधर स्पेस दिया था। जनपथ में आते ही इनकी किस्मत के सितारें खुल गए। ये तबीयत से चांदी काटने लगे। अगर कोरोना काल को छोड़ दें तो यहां पर कस्टमर्स का कभी टोटा नहीं होता। जनपथ मार्केट में सालों-दशकों के बाद भी कस्टमर आते रहते हैं। वे अपने बच्चों और उनके बच्चों के साथ आते हैं। वे उन्हें बताते हैं कि वे फलां-फलां शो-रूम में आया करते थे। इस तरह का आत्मीय रिश्ता शायद ही किसी बाजार का अपने कस्टमर्स के साथ बनता हो।
जनपथ में जिन शरणार्थियों को दुकानें मिली थीं वे चाहकर भी उन्हें बेच नहीं सकते हैं। वे किसी को किराए पर दुकानें दे भी नहीं सकते हैं। दुकानों का स्वामित्व हस्तांतरित नहीं हो सकता है। हालांकि अब जिन्हें दुकानें मिलीं थीं उनमें से शायद ही कोई हो। उनकी दूसरी- तीसरी पीढ़ियां ही दुकानें चला रही हैं। जिन्हें तहबाजारी के तहत अस्थायी दुकानों को चलाने का मौका मिला था, वे भी उन्हें किसी अन्य को नहीं दे सकते।
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देखिए दिल्ली अपने को भोजनभट्ट कहने पर गर्व करती है। हरेक दिल्ली वाला मूलत: और अंतत: चटोरा है। इसलिए आपको इधर की हरेक मार्केट में खाने-पीने की कुछ खास दुकानें, रेस्तरां या ढाबे मिलते हैं। पर हैरानी होती है कि जनपथ मार्केट में पेट पूजा की कोई भी मशहूर दुकान नहीं है। ना पहले थी और ना अब है। इसकी पिछली तरफ दो रेस्तरां हुआ करते थे। वे बहुत मशहूर कभी नहीं हुए। लेकिन जनपथ मार्केट की सरहदें खत्म होते ही फूडीज को सब कुछ मिलने लगता है।