गालिब हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यूं न गर्क-दरिया,
ना कभी जनाजा उठता, न कहीं मज़ार होता!!
मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब ने इस बेहतरीन शेर को लिखते हुए सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें इंतेक़ाल के बाद अपने पुरानी दिल्ली के बल्लीमरान वाले घर के आसपास स्थित किसी कब्रिस्तान में जगह नहीं मिलेगी। वे तो यहां की गलियों की ही खाक छानते थे। उनकी इधर ही दोस्तों- यारों के बीच महफिलें सजतीं । वे कभी-कभार ही इन गलियों से बाहर निकलते। फिर ये बात भी है कि उनके दौर में दिल्ली कमोबेश उधर ही बसी थी, जिसे हम अब दिल्ली – 6 कहते हैं। हां, महरौली, निजामउद्दीन औलिया और गांवों में आबादी की बसावट थी।
सवाल ये है कि सदियों में पैदा होने वाले गालिब साहब को 15 फरवरी, 1869 को इंतेक़ाल के बाद उनके अपने घर से इतनी दूर बस्ती निजामउद्दीन में क्यों दफनाया गया? गालिब को दफनाने के लिए लेकर जाया गया उनके बल्लीमरान स्थित घर से करीब आठ- नौ मील दूर बस्ती निजामउद्दीन में। उनके घर के करीब तीन कब्रिस्तान थे। पहला, कब्रिस्तान कदम शरीफ। ये कुतुब रोड पर है।
दूसरा, आईटीओ में प्रेस एरिया के ठीक पीछे है। इसका नाम है कब्रिस्तान एहले इस्लाम | इसे राजधानी के सबसे पुराने कब्रिस्तानों में से एक माना जाता है। तीसरा, लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल के पीछे है। इसे कहते हैं कब्रिस्तान मेहंदियान । इधर कई सूफी पीर, शायर और बड़ी सियासी हस्तियों की संगमरमर और लाल पत्थरों से सजी कब्रें हैं। वे इन तीनों में से किसी में भी दफन हो सकते थे।
हमदर्द दवाखाना के संस्थापक हकीम अब्दुल हामिद साहब ने गालिब साहब के मकबरे का सौंदर्यीकरण करवाया था। हालांकि कुछ जानकार दावा करते हैं कि चूंकि गालिब साहब की हजरत निजामउद्दीन के प्रति आस्था थी, इसलिए उनके परिवार वाले उन्हें दफनाने के लिए बस्ती निजामउद्दीन ले गए होंगे। शायद घर वालों ने सोचा हो कि सारी जिंदगी तो गालिब ने मस्जिद और नमाज से परहेज़ करने में ही निकाल दी तो क्यूं न उन्हें संसार से विदा होने के बाद सूफी की मजार के पास ही दफन कर दिया जाए।
एक राय ये भी है कि उस दौर में नामवर-असरदार लोगों के अपने निजी कब्रिस्तान होते थे। चूंकि गालिब साहब तो मूल रूप से आगरा से थे, इसलिए उनके परिवार का यहां पर कोई कब्रिस्तान होने का सवाल ही नहीं था। वे तो किराये के घर में रहते थे। उनकी जेब में कभी पैसा रहा ही नहीं पर बस्ती निजामउद्दीन में उनके ससुराल वालों का कब्रिस्तान था । गालिब साहब की आरजू थी कि उसी में उन्हें दफन कर दिया जाए। दरअसल उन्हें निजामउद्दीन में दफनाने की यही वजह थी। यानी आम इंसान के शायर को आम कब्रिस्तान में दफ़न होने से परहेज था।
ग़ालिब के बारे में बेहद क़रीब से पढ़ने वालों का कहना है कि गालिब की पत्नी लोहारू से थी। उनके दिल्ली में हाजी बख्तियार काकी की दरगाह के पास और निजामउद्दीन क्षेत्र में अपने कब्रिस्तान थे। निजामउद्दीन वाले कब्रिस्तान में ही उनकी पत्नी और ससुर भी दफन हैं। चलो दुनिया को छोड़ने के बाद भी अपने प्रिय शहर में ही रहे। वे दिल्ली पर जान निसार करते थे।
ग़ालिब साहब वर्ष 1827 में दिल्ली से कलकत्ता गए थे। जाते वक्त वे कानपुर, लखनऊ, बांदा, इलाहाबाद होते हुए बनारस पहुंचे। वे बनारस में छह महीने ठहरे। वहां गालिब साहब ने दिल्ली और दिल्ली के अपने दोस्तों को भी बड़ी शिद्दत के साथ याद किया।
गालिब लिखते हैं कि जब से किस्मत ने उन्हें दिल्ली से बाहर निकाल दिया है उनके जीवन में एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है। अब न कोई उनका हमदर्द है न ही उनका कोई वतन है। अपने उसी बनारस प्रवास के दौरान गालिब ने बनारस के बारे में फारसी में एक प्रसिद्ध मसनवी की रचना की, जिसे ‘चिराग-ए-दैर’ के नाम से जाना जाता है।
बता दें कि मसनवी उर्दू कविता का एक रूप है जिसमें कहानी किस्से रचे जाते हैं। गालिब ने अपनी इस मसनवी में बनारस के तमाम रंगों और विविध छटाओं को बखूबी उकेरा है। इस मसनवी के उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी और संस्कृत में भी अनुवाद हुए। गालिब ने बनारस की आबोहवा, मौसम, बनारस के लोगों की मस्ती, त्योहारों, राग-रंग के साथ- साथ गंगा का भी अप्रतिम वर्णन किया है।
गालिब बनारस को ‘हिंदुस्तान का काबा’ बताते हैं (हमाना काबा-ए- हिन्दोस्तानस्त)। एक जगह उन्होंने बनारस की तुलना उस शोख माशूका से की है, जिसके हाथ में सुबह- सवेरे गंगा रूपी आईना रहता है । गालिब लिखते हैं कि बसंत हो या पतझड़ या गर्मी का ही मौसम क्यों न हो, लेकिन बनारस हमेशा जन्नत की तरह आबाद और गुलजार रहता है।
गालिब कलकत्ता का सफर करके 29 नवंबर, 1829 को वापस अपने शहर दिल्ली आ गए। उसके बाद उनके बल्लीमरान के घर में फिर से दोस्तों का आना-जाना चालू हो गया। उनका शेष जीवन पुरानी दिल्ली की गलियों में ही गुजरा। गालिब के कुल 11 हजार से अधिक शे’र जमा किये जा सके हैं। उनके खतों की तादाद 800 के करीब थी और गालिब का जब-जब जिक्र होगा तो उनके इस शेर को जरूर सुनाया जाएगा- ‘हजारों खूवाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले… बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले…।’
वे फक्कड़ शायर थे। गालिब के हर शेर और शायरी में कुछ अपना-सा दर्द उभरता है।
‘हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन….. दिल के बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है…।’