अब्दुल्लाह आरिफ
सूरत कोर्ट में मानहानि के एक मामले में पिछले दिनों राहुल गांधी को दोषी ठहराया गया था इस मामले में उन्हें 2 साल की सजा हुई हैं जिसके बाद उनकी संसद सदस्यता अयोग्य घोषित कर दी गई थी इस पूरी कार्रवाई को विपक्ष और कांग्रेस पार्टी ने बदले की भावना से जोड़ते हुए केंद्र सरकार पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की थी। इससे पहले भी नेशनल हेराल्ड और दूसरे कई मामलों में गांधी परिवार के सदस्यों को पूछताछ के लिए बुलाया गया था लेकिन सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार विपक्षी नेताओं पर बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है? क्या ईडी और सीबीआई के छापों का संबंध भी इसी प्रतिरोध की भावना से है? और कार्रवाई और जांच सिर्फ विपक्ष के नेताओं पर ही क्यों होती है?
आपको बता दें कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को मोदी सरनेम संबंधित मामले में अवमानना के कारण सजा सुनाई गई है उनपर कर्नाटक में एक रैली के दौरान मोदी सरनेम को कुछ बड़े व्यापारियों के सरनेम से जोड़कर छवि धूमिल करने का आरोप है। गौरतलब है कि इस मामले में राहुल गांधी को जैसे ही सजा हुई कुछ ही घंटों में उनकी सदस्यता भी ख़ारिज कर दी गई और अब उनका आवास खाली किये जाने का भी नोटिस पहुंच चुका है। इस पूरी कार्रवाई के दौरान लंबे समय से जिस बात का जिक्र विपक्षी नेता करते रहे हैं कि केंद्र सरकार बदले की भावना से केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है और क्या अब इसमें भारतीय न्यायपालिका भी पीछे नहीं है।
पिछले 9 साल के दौरान ऐसे कई उदाहरण है कि जब केंद्र सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले नेताओं को दबाने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का प्रयोग किया गया है। हाल ही में शिवसेना महागठबंधन के संजय राउत और नवाब मालिक कई महीनों के बाद जेल से बाहर आए है ये दोनों नेता काफ़ी समय से बीजेपी के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र में मोर्चा संभाल रहे थे। इसके अलावा दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और मंत्री सत्येंद्र जैन भी जेल जा चुके हैं।
विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी और सीबीआई की कार्रवाई से संबंधित एक रिपोर्ट सितंबर 2022 में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई थी इस रिपोर्ट के मुताबिक ईडी की केसबुक में विपक्षी राजनेताओं और उनके रिश्तेदारों पर छापेमारी और पूछताछ के केस में काफी बढ़ोतरी दर्ज़ हुई है। साल 2014 के बाद से 124 प्रमुख राजनेता जांच के दायरे में आए हैं जिनमें 118 मामले विपक्षी नेताओं से जुड़े है और कुल ईडी के मामलों में 95% विपक्षी राजनेताओं से संबंधित है जबकि यूपीए कार्यकाल (2004-2014) में यह आंकड़ा 52 फ़ीसदी था।
जिन राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के खिलाफ 2014 के बाद से ईडी के मामले दर्ज हुए हैं उनमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के सबसे ज़्यादा 30, कांग्रेस के 26 आरजेडी के 10, बीएसपी और टीडीपी के 5-5, और समाजवादी पार्टी के 4 नेताओं के नाम प्रमुख है।
राजनीतिक पाला बदलने पर ठंडे बस्ते में पड़ जाती है जांच
असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सर्मा के खिलाफ शारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में साल 2014 और 2015 के दौरान सीबीआई और ईडी की जांच चल रही थी लेकिन विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा में शामिल होने के बाद इनपर कार्रवाई आगे नहीं बढ़ी। नारदा स्टिंग मामले में पूर्व टीएमसी नेता शुभेंदु अधिकारी और मुकुल राय जांच के दायरे में थे लेकिन बीजेपी में शामिल होने के बाद उन पर कार्रवाई भी ठंडे बस्ते में पड़ गई है। ऐसे नेताओं की एक लंबी चौड़ी फरिस्त है जिन्हें भाजपा में शामिल होने के बाद मुकदमों से बरी कर दिया गया है।
हालांकि यह चलन काफी पुराना है कांग्रेस शासनकाल के दौरान 2013 में डीएमके गठबंधन छोड़ने के बाद उनके कई प्रमुख नेताओं के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के केस दर्ज किए गए थे वही यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह पर 2009 में दर्ज हुए मुकदमों में 4 साल बाद यूपीए सरकार को समर्थन देने के बाद राहत मिली थी।
जनता की अदालत में कितने सिद्ध होते हैं ऐसे आरोप
भारतीय राजनीति के इतिहास में कई ऐसे मौके आए हैं जब बदले की भावना से हुई कार्रवाई के बाद राजनेताओं ने जनता की अदालत में इसका मुकाबला किया है। बिहार में लालू यादव और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ऐसे नेता जो अपने ऊपर हुई कार्रवाई को अन्याय बताते हुए वोट बटोरने में कामयाब रहे थे। तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी लालू प्रसाद यादव 2015 में भाजपा को हराने में कामयाब रहे थे। इसी प्रकार आय से अधिक संपत्ति केस के बावजूद जगन मोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश, जयललिता तमिलनाडु में और बीएस येदुरप्पा कर्नाटक में सरकार बनाने में कामयाब रहे थे।
भारतीय राजनीति में आरोप प्रत्यारोप के बावजूद आखिरी फ़ैसला जनता द्वारा सुनाया जाता है इसी कारण से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी अपनी ऊपर हुई करवाई को अन्याय के रूप में दिखाने का काम कर रहे हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार के खिलाफ इस कार्रवाई को अपने हक में वोटों के तौर पर तब्दील करने का संकल्प ले चुके हैं। विपक्षी पार्टियां केंद्र सरकार पर एजेंसियों का दुरुपयोग करके विपक्ष की आवाज दबाने, मीडिया पर लांछन लगाने और भारतीय लोकतंत्र की नींव कमजोर करने का इल्जाम लगाती आई है। ऐसे में जब मौजूदा सरकार एक लंबे अरसे के बाद भारी बहुमत से केंद्र की सत्ता पर काबिज है ऐसे में देश की न्यायपालिका, लोकतांत्रिक ढांचा और दूसरी व्यवस्थाओं के इस्तेमाल पर बहस दोबारा शुरू हो चुकी है। अब इस रणनीति में कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां कितनी कामयाब हो सकती हैं यह भविष्य में छुपा है।