8 अगस्त 1942 की रात शुरू हुए उस आंदोलन में महात्मा गांधी ने ये शब्द कहे थे, जिसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़े हिला कर रख दी थीं। महात्मा गाँधी की अगुवाई में शुरू हुआ भारत छोड़ो आंदोलन कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी व गुजरात से लेकर बंगाल तक के लोग शामिल हुए थे। यह आंदोलन अंग्रेजी हुकूमत के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी थी। इस आंदोलन में 940 लोग मारे गए थे और 1630 घायल हुए थे। 60229 लोगों ने गिरफ्तारी दी थी। भारत छोड़ो आंदोलन भारत के इतिहास में ‘अगस्त क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है।
आज से 81 साल पहले आठ अगस्त 1942 में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की मीटिंग बॉम्बे में रखी गई। इस मीटिंग का मुख्य एजेंडा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू करना था। उस समय पूरा विश्व द्वितीय विश्व युद्ध से जूझ रहा था, वहीं दूसरी ओर भारत आंतरिक लड़ाई के संकट में फंसा था। ब्रिटिश सरकार ने आजादी देने का वादा दोहराए जाने के बाद, भारत अभी भी औपनिवेशिक शासन के अधीन था। इसके मद्देनजर 14 जुलाई 1942 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भारत से ब्रिटिश शासन के जल्द से जल्द खात्मे का संकल्प लिया। घोषणा में कहा गया था कि स्वतंत्र भारत स्वतंत्रता के संघर्ष और नाज़ीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद के आक्रमण के खिलाफ अपने महान संसाधनों द्वारा सफलता का आश्वासन देगा।
इस आंदोलन के दौरान कई नारों का सुझाव दिया गया लेकिन सिर्फ ‘भारत छोड़ो’ ही तय किया गया। इसके अलावा गेट आउट को महात्मा गांधी को अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उनके मुताबिक यह शब्द बेहद असभ्य लगा। रीट्रीट या विद-ड्रॉ भी अस्वीकार कर दिया जिसे सी राजगोपालाचारी ने सुझाया था। तब सामाजवादी कांग्रेस नेता और तत्कालीन बॉम्बे के पार्षद युसुफ मेहरली ने गांधी को एक धनुष दिया जिस पर भारत छोड़ो अंकित था और यही बाद में नारा बन गया था।
एक तरफ जब एक तरफ़ कांग्रेस की पूरी लीडरशिप भारत छोड़ो आंदोलन के लिए आंदोलित थे तो वहीं दूसरी तरफ़ भारत में मौजूद सभी प्रमुख दल ने या तो भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया या फिर बिलकुल ही तटस्थ बने रहे थे। इन संस्थाओं में मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नाम प्रमुख हैं।
भारतीयों के बीच पनप रहे गुस्से को शांत करने के लिए सर स्टैफॉर्ड क्रिप्स को मार्च 1942 में भारत भेजा गया था। इसमें भारतवासियों के सामने जापान की हार के बाद एक ऐसी चीज देने का वचन दिया गया जो स्वतंत्रता के बराबर थी। जिसे डोमिनियन स्टेट की योजना कहा गया। इसमें मुस्लिम लीग के लिए यह गुंजाइश रखी गयी कि उनकी इस्लामी राज्य की मांग को भी पूरा किया जाएगा। स्टेफर्ड क्रिप्स के आने के 48 घण्टे बाद महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को कंगाल बैंक का आगामी तिथि का ब्लेंक चेक कहकर अस्वीकार कर दिया क्योंकि इसमें भारत के स्थायी विभाजन की बात कही गयी थी। गांधीजी ने क्रिप्स से कहा कि अगर आपके पास कोई ठोस सुझाव नहीं है तो आप अगले हवाई जहाज से वापस लौट जाएं।
बम्बई के सभा भवन में जहां गर्मी के मारे दम घुटा जा रहा था गांधीजी ने 8 अगस्त 1942 को आधी रात के फौरन बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अपने अनुयायियों को लड़ाई के मैदान में कूद पड़ने के लिए ललकारा। उनका स्वर शांत और संयत था। उन्होंने जो शब्द कहे उनमें इतना आवेश और भावावेग था कि वे शब्द अजीब लग रहे थे। मैं दो शब्दों की सलाह देता हूँ- ‘करेंगे या मरेंगे’। गाँघी चाहते थे कि अपने इन शब्दों पर अमल करने वाले वे पहले व्यक्ति हों।
”यह एक छोटा-सा मन्त्र है जो मैं आपको दे रहा हूँ। इसको आप अपने दिलों में उतार लीजिए और इसे आपकी एक-एक साँस में व्यक्त होने दीजिए। यह मन्त्र हैः ‘करेंगे या मरेंगे’। हम या तो हिन्दुस्तान को आज़ाद करेंगे या इसकी कोशिश में अपनी जान दे देंगे..आज के बाद से हर मर्द और औरत अपने जीवन के एक-एक पल को इस बोघ के साथ जिये कि वह सिर्फ आज़ादी हासिल करने की ख़ातिर खा या जी रहा/रही है और, अगर ज़रूरत पड़ी तो इस लक्ष्य को हासिल करने की ख़ातिर मर जाएगा /जाएगी।’’
उन्होंने कहा कि मुझे तुरन्त आजादी चाहिए। आज ही रात को , अगर हो सके तो भोर होने से पहले। लेकिन भोर होने से पहले गांधीजी को जो मिला वह आजादी नहीं थी, बल्कि अंग्रेजों की जेल में जाने का एक और निमंत्रण। गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद सहित कांग्रेस के सभी नेता जेल में डाल दिये गए।
पूरे देश से लाखों लोग आंदोलन के सहयोग में सड़कों पर उतर आए और उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने तक जेल में बंद कर दिया गया। देश के अलग-अलग हिस्सों में आजादी के लिए आंदोलन में लोगों के गुस्से की अलग-अलग तस्वीर सामने आ रही थी। अरुणा आसिफ अली ने गोवालिया टैंक मैदान पर भारत का झंडा फहराया जहां पर भारत छोड़ो आंदोलन का संकल्प लिया गया था। अरुणा आसफ अली को स्वतंत्रता आंदोलन में ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ के रूप में जाना गया। बलिया में तो चित्तू पांडेय जी के नेतृत्व में जनता ने बलिया शहर पर कब्जा कर लिया था। जगह – जगह आंदोलन के जत्थे उठे। उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती सुचेता कृपलानी, और तमाम नेताओं ने आंदोलन के भूमिगत संगठनात्मक ढांचे में भूमिका निभाई।
महात्मा गांधी और शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी के बाद देश की जनता सड़कों पर उतर गई और इस आंदोलन का नेतृत्व युवा क्रांतिकारियों ने किया। इसके बाद यह आंदोलन हिंसक हो गया। अंग्रेजों के दमन नीति अपनाई, लेकिन आंदोलन नहीं रूका। लोगों ने सरकारी इमारतों पर कांग्रेस के झंडे फहराने शुरू कर दिए। छात्र और कामगार हड़ताल पर चले गए। सरकारी कर्मचारियों ने भी काम करना बंद कर दिया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान डॉ. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली जैसे नेता उभर कर सामने आए।
असल में यह आंदोलन भारत से गुलामी, नफरत, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, असमानता, जातिवाद और सांप्रदायिकता को मार भगाने का संकल्प था। ये आंदोलन एक ऐसे भारत के लिए था, जिसमें गरीब-अमीर सब के साथ बराबरी का व्यवहार किया जाए, जिसमें नारी शक्ति की आकांक्षाएं पूरी हो। जिसमें जनता और लोकतंत्र के बीच गहरा रिश्ता होगा, धर्म और जाति से उठकर शिक्षा की बात हो। एक ऐसा भारत जहाँ अल्पसंख्यकों, पिछडों, दलितों, किसानों की बराबर की भागीदारी हो और उनका हक़ मिले।