दिल्ली में धर्मशालाओं से सदियों पहले सराय बनने का सिलसिला कब शुरू हुआ, कहना मुश्किल है। लेकिन कई पुरानी-पुरानी सराय का जिक्र मिलता है-कोई सूफी संत के नाम पर है, तो कोई ठहरने वालों के।
कश्मीरी गेट के बड़ा बाज़ार की एक गली है महल सराय। गली में मौजूद महल सराय के चलते ही गली भी इसी नाम से जानी जाती है। महल सराय आज भी महल की माफिक ही लगती है। गली के बाहर दीवार पर लगे पत्थर पर उर्दू में ‘धर्मशाला’ लिखा है और लिखा है ‘श्रीमती बहू कीता देवी’। लेकिन ज्यादातर लोग महल सराय ही पुकारते हैं। कही-सुनी के मुताबिक मुगल बादशाह शाहजंहा अपने नवाब मेहमानों को यहीं ठहराते थे। नजदीक ही मुहल्ला चाबीगंज है, जहां से सराय की चाबी लाई जाती थी और सराय के दरवाजे खोल मेहमानों के ठहरने का इंतजाम किया जाता था। यहीं मेहमानों के घोडे़, बग्घी वगैरह बांधने के लिए तबेला भी था।
- सराय में स्कूल
करीब 1000 वर्ग फुट में फैले महल सराय पर आज भी मुगलिया छाप झलकती है। मेहराबदार दरवाजे हैं, इर्द-गिर्द फूल-पत्तियों की दिलकश नक्काशी हुई है। लकड़ी के दरवाजे हैं और गोल रोशनदान भी। बालकनियां लकड़ी की बनी हैं। बालकनी के लोहे के कलात्मक जंगले आज भी शोभा देते हैं। परिसर में, अर्से से कई घर और दुकानें हैं। बीच के हिस्से में हैप्पी स्कूल है, जो 1939 से चालू है। सन् 1971 से, वहीं रहते स्कूल के केयर टेकर हनुमान सिंह बताते हैं, ‘यह शायद दिल्ली का सबसे कम विद्यार्थियों वाला स्कूल है। इसमें कुल 11 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं, पहले 1100 पढ़ते थे। दरअसल, बीते साल फिर शुरू होने से पहले 4 साल बंद रहा, जिस कारण छात्र इधर-उधर दूसरे स्कूलों में शिफ्ट हो गए।’
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केयरटेकर हनुमान सिंह और बताते हैं, ‘कोई पुख्ता जानकारी तो नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि महल सराय मुगल बादशाह शाहजहां के शासनकाल में बना था। बादशाह के मेहमान ही यहां ठहरते थे। उनकी मेहमाननवाजी के लिए शाही दावतें होतीं और मनोरंजन के लिए मुजरे से रातें सजती थीं। ऐसा मैंने यहीं ताउम्र रहने वाले सफाई कर्मचारी राम सिंह से सुना था, जिसकी मृत्यु 90 साल की उम्र में हुई थी।’
नब्बे के दशक तक हैप्पी स्कूल का जूनियर विंग बगल के छोटा बाजार में, सेठ रामलाल की हवेली में चलता रहा। हवेली 19वीं सदी में बनी है। इसकी मेहराबें फूल-पत्तियों से सजी हैं। बाहर की ओर कई छोटी बालकनियां हैं, जो लाल बलुआ पत्थर के बे्रकेट पर टिकी हैं। उल्लेखनीय है कि कश्मीरी गेट के मेन तिकोना पार्क पर शिफ्ट होने तक, 1972 से राम लीला का आयोजन महल सराय में ही होता था। राम लीला के संस्थापक और नॉर्थ एम सी डी के जत्थेदार अवतार सिंह जन्म से महल सराय में ही रहते हैं।
- सराय और धर्मशाला
‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज’ (दिल्ली चेप्टर) की किताब ‘दिल्ली द बिल्ट हेरिटेज’ में दिल्ली की 13 पुरानी-पुरानी सराय और धर्मशालाओं का जिक्र है। सबसे मशहूर धर्मशाला फतेहपुरी की चर्च मिशन रोड पर है। उधर सबसे पुरानी धर्मशाला 1850 में बनी धर्मशाला रामनाथ इंद्रदेवी किनारी बाजार के छत्ता प्रताप सिंह में है।
असल में, दिल्ली सल्तनत के दौर में, सराय सूफी संतों के नाम पर बनवाने का सिलसिला चला, जो शेरशाह सूरी और मुगल काल तक जारी रहा। बाद के दशकों में, सराय की बजाय धर्मशाला नाम चल निकला। बताते हैं कि दिल्ली की पांच सराय 5 बहनों के नाम पर भी हैं। पांचों बहनों का ससुराल भी अगल-बगल ही था। लाडो, बेर, कटवारिया, कालो (कालू) वगैरह बहनों के नाम की सराय से ही इन इलाकों को आज तक दिल्ली वाले जानते हैं। जबकि यूसुफ सराय और शेख सराय जैसे नाम सूफी संतों और पीरों से विख्यात हुए।
- सूफी संत के नाम पर
सूफी संत के नाम पर बनी सरायों की फेहरिस्त से सराय काले खां कैसे छूट सकती है? सराय काले खां आउटर रिंग रोड पर, बस अड्डे के तौर पर ज्यादा जाना जाने लगा है। हांलाकि इलाका अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के शासन के दौरान सराय से पहचाना जाने लगा। क्योंकि उसी दौर में, शाही राज मार्गों का बढ़-चढ़ कर निर्माण हुआ और 12-12 मील पर सड़क किनारे सराय बनाने के सिलसिले का भी। मुगल काफिले लाल किले से चल तक महरौली के बीच रास्ते में यहीं विश्राम करते थे।
उल्लेखनीय है कि काले खां 14वीं-15वीं सदी के सूफी संत थे और कुछ अर्सा यहां ठहरे भी थे। उधर सन् 1481 का लोधी कालीन काले खां का गुम्बद कोटला मुबारकपुर परिसर में है। इधर-उधर बिखरी जानकारियों के मुताबिक आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के वजीर नवाब फैज्जुल्लाह बेग ने यहीं अहाता काले साहब बनवाया था। कई इसे मूंछों वाली सराय भी कहते थे। क्योंकि 1600 से यहां गुर्जर रहने लगे, जिनके रौब-राब की निशानी उनकी बड़ी-बड़ी मूंछे थीं।
- अरब की सराय 1562 से
हुमायूं के मकबरे के परिसर में है एक और पुरानी सराय-नाम है अरब की सराय। इसे सन् 1562 में, मुगल बादशाह हुमायंू की विधवा हामिदा बानो बेगम ने बनवाया था। हुमायूं का मकबरा बनाने के लिए करीब 300 फारसी या अरबी शिल्पकार खासतौर से हामिदा बानो बेगम के संग हज से लौट कर यहां आए थे। उनके ठहरने के लिए बेगम ने अरब की सराय का निर्माण करवाया था। अरब की सराय का करीब 14 मीटर ऊंचा दरवाजा है, जंहा से सराय के प्राचीर अहाते की ओर जाते हैं। लाल पत्थर और सफेद संगमरमर से बना दरवाजा आकर्षक लगता है। झरोखों में आज भी बची-खुची टाइलें दमकती हैं। सराय के पूर्वी दरवाजे का निर्माण हुमायूं के पोते बादशाह जहांगीर के शासन के दौरान किया गया था।
मुगल काल की एक और सराय है-सराय सोहेल। है इन्दिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के नजदीक। शुरू-शुरू में सराय के रूप में इस्तेमाल की जाती थी, आज खंडहर है। शुरूआती सालों में, पश्चिम और पूरब में दो मेहराब की शक्ल के ड्योढीनुमा कमरे थे और दोनों के अलग-अलग दरवाजे भी। नजदीक ही है 1660 की सराय मेहराम नगर। ईंट-गारे की दीवारें 6 मीटर ऊंची हैं। साथ ही जुड़ा था कटरा, जहंा सराय में रूकने वाले मुसाफिरों के घोडे़ और बग्घी रखी जाती थीं।
उधर साउथ दिल्ली के सुन्दर नगर में चिड़ियाघर परिसर में, मुगल काल की अजीमगंज सराय है। शुरूआती दौर में, सराय में जाने का रास्ता पूर्वी दिशा से था। आज भी खंडहर होती दीवारें बची हैं। चार दीवारी साढे़ 7 मीटर ऊंची है। और कुछ-कुछ चार दीवारी आज भी बची हुई है।
- सराय से स्टेशन तक
ज्यादातर दिल्ली वाले सराय रोहिल्ला को रेलवे स्टेशन और एक काॅलोनी से ज्यादा नहीं जानते । लेकिन असल में, इसके पश्चिमी ओर वाकई सराय थी, जो सड़क किनारे बनी थी। किसी जमाने में, यही सराय दिल्ली-अजमेर शाही मार्ग पर बड़ा पड़ाव होता था। मुगल काल में, यहां रहते ज्यादातर लोगों का नाता रोहिल्ला से था। कहते हैं कि सराय का नाम रोहुल्ला खां पर पड़ा, जो बिगड़ते-बिगड़ते रोहिल्ला कहलाने लगा। रोहुल्ला खां मुगल बादशाह शाहजंहा की प्रिय बेगम मुमताज महल के दूर के रिेश्तेदार खलिलउल्ला खां के तीन बेटों में से एक थे। तब खलिलउल्ला खां दिल्ली प्रोविंस के गर्वनर भी थे। इतिहास में, रोहुल्ला खां की बावत और जिक्र नहीं मिलता । सराय को 1872 में रेलवे स्टेशन में तब्दील किया गया। उस जमाने में, यह राजपूताना-मालवा रेलवे का दिल्ली में पहला रेलवे स्टेशन था।
दिल्ली-पंजाब शाही मार्ग पर पड़ने वाली बादली सराय भी दिल्ली के इतिहास में रची-बसी है। इसे सराय पीपलथला भी कहते हैं। सराय 1857 की पहली जंग-ए-आजादी की गवाह भी रही है। है जी टी रोड पर आजादपुर सब्जी मंडी के बगल में। अब सराय नहीं, साफ-सुथरा स्मारक लगता है। दरवाजे से प्रवेश कर, भीतर मेहराबनुमा कमरों को 20वीं सदी में ढहा दिया गया था। निर्माण लाखौरी ईंटों से हुआ है और गुम्बदनुमा छत है। सराय में दिल्ली से पंजाब आने-जाने वाले राहगीर सुस्ताते थे। दिल्ली पर धावा बोलने से पहले, 1739 में नादिर शाह ने भी यहीं डेरा डाला था।
अमिताभ एस