अफ़ग़ानिस्तान में दुनिया के किसी भी समाज की तरह चाहे वह विकसित , विकासशील समाज ही क्यों न हो , प्रगतिशील सुधारों और यथास्थितिवादी प्रतिगामी शक्तियों के हितों के बीच हमेशा से टकराव की स्थिति बनी रहती है। मार्क्स ने इसके सार को ज़ाहिर करते हुए कहा था कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास वर्ग-संघर्षों के विकास का इतिहास है।
अफ़ग़ानिस्तान में भी उसके ज़मींदार वर्ग, क़बाइली सरदार जिन्हें जंगी सरदार भी कह सकते हैं, और मज़हबी कट्टर रूहानी पेशवाओं की तरफ़ से किसी भी स्तर से किये जानेवाले प्रगतिशील सामाजिक – सियासी – आर्थिक सुधारों या परिवर्तनकारी कार्यों को जबरदस्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है।
जब जो भारी पड़ा सत्ता पर उसकी पकड़ बनी। या उसने सत्ता को मज़बूर किया कि भारी पड़नेवाली ताक़तों के हक़ में फ़ैसला करे। सुधारों के प्रतिरोधी तबक़ा अपने हितों की हिफ़ाज़त में सातवीं-आठवीं शताब्दी के इस्लाम और शरिया को ढाल बनाता है। और, दूसरी तरफ़ परिवर्तनकामी खेमा बदलते हालात के सांचे में इस्लामी रवायतों के दायरे का विस्तार देता रहता है।
1964 के संविधान में स्त्रियों के मिले अधिकार तथा दूसरे सुधारों का भी प्रतिरोध हुआ और हालात यहाँ तक पहुँचने लगे कि ख़ुद बादशाह सलामत ज़हीर शाह अपनी ही हुकूमत के बनाये आईन, संविधान के साथ समझौता करने पर आमादा होने लगे। वह वक़्त था जब दुनिया में समाजवादी आंदोलनों का शक्ति-संतुलन साम्राज्यिक पूँजी के निज़ाम पर बढ़त बनाये हुए था।
ये भी पढ़ें: सिद्धार्थ शुक्ला के निधन पर फिल्म इंडस्ट्री में शोक की लहर…
कमोबेश इसका असर दुनिया के हर देश पर पड़ रहा था। अफ़ग़ानिस्तान भी इस असर से अछूता नहीं था। अफ़ग़ानिस्तान की प्रगतिशील शक्तियों ने ज़हीर शाह को गद्दी से हटाकर अफ़ग़ानिस्तान से बादशाही निज़ाम का ख़ात्मा कर दिया और वहाँ एक रिपब्लिकन सरकार का गठन ज़हीर शाह के सिपहसालार और दामाद दाऊद की क़यादत में क़ायम की।
यह सिलसिला दूसरे इस्लामिक मुल्कों में भी पिछले पंद्रह बीस सालों से ज़ारी था। मिस्र, सीरीया, लीबिया, इराक़, आदि में यह तश्कील पा चुका था । फिलीस्तीन, सूडान, अल्जीरिया, ट्युनीसिया, सोमालिया, इथोपिया, यमन, लुबनान आदि में तरक़्कीपसंद ताक़तें बरशरेइख़्तदार में थीं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का बोलबाला था। इन्हीं अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थितियों में अफ़ग़ानिस्तान भी उसी राह पर तेज़ी से क़दमपेशी करने लगा ।
दाऊद के शासनकाल में 1976 का संविधान और 1977 का सिविल क़ानून इन्हीं क़दमपेशी का परिणाम था। लेकिन जब पुनः ज़हीर शाह की ही तरह जेनरल दाऊद की हुकूमत ने भी क़दामतपसंदी से मुक़ाबला करने में हिचक दिखाने लगी, ज़मीअतदौव्वा,बुरहानुद्दीन रब्बानी, जमातेइस्लामी और मौलाना अबुअल मौदूदी के विचार सरहद पार से मुदाख़लत बढ़ाने लगे तब प्रगतिशील शक्तियों ने दो कम्युनिस्ट ग्रुप ख़ल्क़ और परचम की एकजुटता से 1978 के अप्रैल में दाऊद को इख़्तदार से हटाकर क्रांति करने में सफल हो गया।
“18 अप्रैल 1978 तक मोहम्मद दाउद खा़न सत्ता में रहे, फ़िर मार्क्सवादी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी आॅफ अफग़ानिस्तान (पीडीपीए) के नेता कर्नल अब्दुल क़ादिर दो दिनों के वास्ते देश के राष्ट्रपति बने। 30 अप्रैल 1978 को ‘पीडीपीए‘ के नेता नूर मोहम्मद ताराकी अफग़ानिस्तान के राष्ट्रपति बने। 1 साल 137 दिन शासन में रहने के बाद नूर मोहम्मद ताराकी ने गद्दी त्याग दी। ‘पीडीपीए’ के दूसरे नेता हफीजुल्ला अमीन ने 14 सितंबर, 1979 को राष्ट्रपति पद संभाला।
ये भी 104 दिन पूरे करते-करते सत्ताच्युत हो गये। कम्युनिस्ट नेता बरबक करमाल सबसे लंबी अवधि छह साल 332 दिन (27 दिसंबर 1979 से 24 नवंबर 1986) तक सत्ता में रहे। उनके बाद 310 दिनों तक निर्दलीय हाजी मोहम्मद चमकानी को राष्ट्रपति बने रहने का अवसर मिला। ‘पीडीपीए’ को एक बार फिर सियासत का मौका मिला।
4 मई, 1986 को उसके नेता मोहम्मद नजीबुल्ला राष्ट्रपति बने और चार वर्ष 199 दिन यानी 16 अप्रैल, 1992 तक उन्होंने राजकाज संभाला। इनके बाद केवल 12 दिनों के वास्ते अब्दुल रहीम हतीफ को राष्ट्रपति बनाया गया था। कम्युनिस्ट कुल मिलाकर 14 साल 274 दिनों तक सत्ता में रहे। लोकतांत्रिक अफग़ानिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी ने बाकियों की तुलना में सबसे अधिक समय तक राज किया।”
स्वभाविक रूप से सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी खेमे और गुटनिरपेक्ष आंदोलन से इन्हें भारी मदद मिली। इनकी मज़बूत सिथित बनने लगी।
लेकिन जैसा कि शीतयुद्ध में प्रचलित अमरीकी नीतियां थीं कि वह किसी देश में समाजवादी या राष्ट्रीयतावादी हुकूमत को बर्दाश्त नहीं करता था और उस हुकूमत को बदलने के लिए अपनी कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय जासूसी संस्था सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी सी आई एस को दायित्व सौंप देता था। सीआईए उस देश के अमीरों, सरमायेदारों, धार्मिक मठाधीशों, दक्षिणपंथी राजनीतिक नेताओं, भ्रष्ट ट्रेड यूनियन के दलाल नेताओं और महत्वाकांक्षी सेना के जरनैलों की सहायता से हुकूमत-बदल के अपने अभियान को अंजाम देता था।
यह उसका आज़माया हुआ नुस्खा था जिसमें उसे तीसरी दुनिया के दर्जनों नवस्वतंत्र देशों में अपार सफलता मिली थी। इस तरह के हुकूमत-बदल और तख़्तापलट के ज़रिए वह अपनी नव-औपनिवेशिक , नव-साम्राज्यवादी एजेंडे को आसानी से उस देश की संप्रभुसत्ता पर थोपता था और उसे अपने हवाले रख इशारे पर नचाता था।
इसके लिए उसे अपने ही घोषित “जम्हूरियत और स्वतंत्र दुनिया” के सिद्धांतों का गला घोंटने में आनंद आता।
अफ़ग़ानिस्तान में भी अमेरिका उन्हीं नीतियों को अपनाना शुरू किया जब कम्युनिस्टों ने वहाँ सत्ता हथियायी। यहाँ भी उसे सफलता मिली किंतु भविष्य में उसे इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, वियतनाम और मध्यपूर्व से भी अधिक।
भगवान प्रसाद सिन्हा