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भारतीय राजनीति का बाल्कनाइज़ेशन।

मुस्लिम टुडे by मुस्लिम टुडे
सितम्बर 21, 2021
in देश, भारतीय
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भारतीय राजनीति का बाल्कनाइज़ेशन।
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पुष्परंजन

लेबनानी अर्थशास्त्री व पूर्व वित्तमंत्री जार्ज कार्म अभी जीवित हैं। रोम स्थित फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफएओ) के वो आर्थिक सलाहकार थे, तभी वहां उनसे पहली मुलाक़ात हुई थी। वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) इन्हीं की दिमाग़ी उपज थी। 81 साल के जार्ज कार्म इन दिनों बेरूत में रह रहे हैं। उन्होंने 1980 के दौर में एक शब्द गढ़ा था, ‘बाल्कनाइज़ेशन’। देश और समाज को विभाजित किये जाने के संदर्भ में इस शब्द का इस्तेमाल आज भी होता है।

40 साल पहले, जार्ज कार्म के इस शब्द ने बौद्धिक जगत को हिलाकर रख दिया था। उसकी वजह बहुसांस्कृतिक बाल्कन का वह भयावह बंटवारा था, जिसमें अलग-अलग संस्कृति के लोग खुशी-खुशी रह रहे थे। तीन ओर समुद्र से घिरा बाल्कन दक्षिण-पूर्व यूरोप का प्राय:द्वीप रहा है, जिसका क्षेत्रफल 5 लाख 50 हज़ार वर्गकिलोमीटर था। भारत से तुलना करें, तो हमसे छह गुना छोटा। भारत का क्षेत्रफल है, 32 लाख 87 हज़ार 263 वर्ग किलोमीटर।

ऑटोमन साम्राज्य का आधिपत्य समाप्त होने के बाद, 1817 से 1912 के बीच भूमिहरण, विभाजन और मारकाट का लंबा सिलसिला चला। शासकों ने अपने स्वार्थ के लिए पहले बाल्कन लोगों की घार्मिक, जातीय भावनाओं को भड़काया, दंगे कराये, बेहिस सैनिकों के बूते औरतों-बूढ़ों-बच्चों को नोंचा-खसोटा, फिर इस खुशहाल प्राय:द्वीप का बंटवारा कर दिया।

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अल्बानिया, बल्गारिया, बोस्निया-हर्जेगोबिना, कोसोवो, मैसेडोनिया, मांटेनीग्रो जैसे छोटे-छोटे देश बने। बंदरबांट में भूमि के कुछ हिस्से क्रोएशिया, यूनान, इटली, रोमानिया, सर्बिया, स्लोवेनिया और तुर्की ने दबोच लिये। मगर, 1912 में भी शांति नहीं स्थापित हो पाई। उसके अगले तीन साल, 1915 तक बोस्निया-हर्जेगोबिना एक ऐसे गृहयुद्ध की चपेट में आया, जिसमें हुए ज़ुल्म की दास्तां जानकर दुनिया सिहर गई थी। वो राष्ट्रवादी नेता, जिनपर यूरोप नाज़ करता था, उनके निर्णयों ने मानवता को शर्मशार किया था।

भारत में हमें बाल्कन क्यों दिखने लगा है? क्या भारत भी कभी बाल्कन जैसा बंट जाएगा? आप स्वीकार करें, न करें मगर यह सुषुप्त ज्वालामुखी है, जिसका लावा धीरे-धीरे गरम हो रहा है, सक्रिय हो रहा है। महाराष्ट्र के अहमदनगर फोर्ट घूमने जाइये, तो वहां अंग्रेजों के जमाने का जेल भी मिलेगा, जहां की एक कोठरी में 1942 से 1945 के बीच ऐसी पुस्तक का सृजन हुआ था, जो मुल्क का इतिहास, राजनीति, भारतीय धर्म-संस्कृति, दर्शन से आपका ज्ञान समृद्ध करता रहा है।

जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ की रचना उसी कालखंड में वहां की थी।

नेहरू की पुस्तक का हिंदी अनुवाद या फिर उसके हवाले से श्याम बेनेगल की धारावाहिक ‘भारत एक खोज’ जिसने भी पढ़ी-देखी होगी, उसकी तुलना कांग्रेस नेता राहुल गांधी के ताज़ा बयानों से कर ले। वैष्णो देवी में ‘जय माता दी’ और ‘मैं कश्मीरी हिंदू हू’ से जब चाय की प्याली में तूफान पैदा नहीं हुआ, तो बुधवार को महिला कांग्रेस की 38वें स्थापना दिवस पर कांग्रेस नेता ने कहा, ‘लक्ष्मी की शक्ति रोज़गार, दुर्गा की शक्ति निडरता, सरस्वती की शक्ति ज्ञान। भाजपा जनता से ये शक्तियां छीनने में लगी है।’

बात ये है कि राहुल गांधी को ये सब कहने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? नेहरू परिवार की आज की पीढ़ी को ‘डिस्कवरी ऑफ  इंडिया’ के विज़न से क्या कोई लेना-देना नहीं? उनके समर्थकों-शैदाइयों का तर्क  है, ‘जहर, जहर को काटता है।’ वो खुश हैं कि नेता प्रतिपक्ष को ऐसे ही आक्रामक होना चाहिए।

2019 चुनाव से ठीक पहले 30 नवंबर 2018 को माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करते हुए कहा था, ‘वे कौरव हैं, और प्रतिपक्ष पांडव। हम कौरवों को लोकसभा चुनाव में परास्त करेंगे।’ वामपंथ किस दिशा में अग्रसर हो रहा है, उसका पूर्वानुमान उस बयान के बरास्ते मिल सकता था।

21 अगस्त 2021 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में जातिगत गणना के सवाल पर जो शिष्टमंडल पीएम मोदी से मिला था, उसमें वामपंथी नेता भी थे। इन दोनों घटनाओं के हवाले से यह संदेश जाता है कि देश बदल रहा है, वामपंथ भी बदल रहा है। वामपंथी नेताओं को भी जाति, और धर्म का अफीम रास आने लगा है।

समाजवादी डॉ. लोहिया की दुहाई देते हैं। उनके विचारों के बरक्स पार्टी प्रत्याशी जातिवाद के आधार पर तय किये जाते हैं। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने किनके लिए लिखे ‘राम-कृष्ण और शिव’, ‘हिंदू बनाम हिंदू’ जैसे कालजयी निबंध? न तो लालू-मुलायम ने अपने समय में ध्यान से पढ़ा, न ही तेजस्वी-अखिलेश ने।

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लालू-मुलायम ने समाजवाद को सही से पढ़ा होता, तो एकाध थिंक टैंक की स्थापना कराते. समाजवाद की चर्चा ज़रूर कभी-कभार होती मगर चिंतन का लोप दिखता है. डॉ. लोहिया ने क्या लिखा, उसे पढ़ने की जरूरत नई समाजवादी पीढ़ी नहीं समझती। लालू के ज्येष्ठ पुत्र तेजप्रताप जब कभी कृष्ण रूप धारण करते हैं, समाजवाद की हालत ‘निसि दिन बरसत नैन हमारे’ जैसी हो जाती है।

इसी माह यमुना के तीर पर केजरीवाल परिवार व दिल्ली सरकार की कैबिनेट का गणेश पूजन सबने देखा। ऐसा शानदार सेट बॉलीवुड में सीरियल वाले ही तैयार करते हैं। नृत्य-संगीत, एंकरनी द्वारा गणेश पूजन का प्रस्तुतीकरण  विस्मयकारी था। इस मेगा शो के वास्ते टैक्स पेयर्स का पैसा पानी की तरह बहाया गया। क्यों आख़िर? केजरी समर्थक यह पूछने पर नाखुश हो जाते हैं कि एक राज्य के मुख्यमंत्री को बॉलीवुडिया अंदाज में गणेश पूजन, दीवाली में लक्ष्मी पूजन की आवश्यकता किसलिए पड़ गई?

पूजा का नया ढब. ये टीवी पर पूजा करते दिखेंगे आप उनकी देखा-देखी अपने घरों में शुरू हो जाइये. केजरीवाल जी, देवी-देवताओं में आस्था है, तो घर में कीजिए न ये सब। क्या ऐसे पूजा महोत्सव से पहले दिल्ली या देश के दूसरे हिस्से में लोग लक्ष्मी-गणेश पूजन नहीं करते थे? ये सब भी बीजेपी का विकल्प और हिन्दू नेता वाली छवि गढ़ने की कवायद है.

बंगाल विधानसभा चुनाव में हिंदू देवी-देवताओं पर एकाधिकार को लेकर ऐसी छीना-झपटी हुई कि देवलोक तक डोलने लगा था। तथाकथित सेक्युलर देश के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र दामोदर दास मोदी ओईपार बांग्ला पुग गये, और वहां से शंख फूंका।

क्या गजब का धार्मिक चुनाव संपन्न हुआ बंगाल में। कांग्रेस-लेफ्ट वाले एक मुल्ला के प्रभामंडल तले चुनाव लड़ रहे थे। मगर, सारी तदबीरें उल्टी पड़ गईं। मजार के राजनीतिक मुल्ले से बंगाल का मुसलमान प्रभावित नहीं होता है, तो यह एक मतदाता के मैच्योर होने का संकेत है।

वो चुनावी पंडित भी फेल कर गये जो इन्हें जाहिल व धर्मांध समझते रहे। एक नागपुरिया जहर को काटने के वास्ते इतने सारे जहर? 30 सितंबर को भवानीपुर उपचुनाव में ममता बनर्जी संभवत: एक बार फिर भक्तिन का रूप धारण करें। नंदीग्राम वाले नारे, पूजा-अर्चना जैसा दृश्य शायद दोबारा दरपेश हो। तीन जगहों पर उपचुनाव के वास्ते सेंट्रल फोर्स की 52 कंपनियों की तैनाती, गोया बंगाल में दंगा होने वाला हो।

आप ढूंढिये कि इस देश में सेक्युलर पार्टी कौन सी है? दीया लेकर पूरा देश नाप जाइये, एक भी दल नहीं मिलेगा। जो पार्टियां ‘सेक्युलर’ होने का दावा करती हैं, समय आने पर वह भी धर्म का तड़का लगाती हैं। फिर 1976 में 42 वें संशोधन के जरिये संविधान के प्रस्तावना में जो सेक्युलर शब्द जोड़ा गया, उसकी अब जरूरत क्या है?

उसे एक फ्रेम में मढवाकर माला पहनाइये और एक नये संशोधन के जरिये भारत को हिंदू बहुल राष्ट्र घोषित कीजिए। इस हिंदू राष्ट्र की परिधि में केवल 79.8 प्रतिशत हिंदू रहें, बाकी जातियों धर्मावलंबियों को उनकी संख्या के हिसाब से बसा दीजिए अलग-अलग पॉकेट्स में। हम जैसे सर्वधर्म समभाव और जातिवाद की बजबजाती नाली से बाहर जो मुठ्ठी भर पागल बच जाएंगे, उनके लिए दे दीजिएगा एक अलग भूखंड। यही तो है भारत का बाल्कनाइज़ेशन।

हर चुनाव से पहले हमारे पत्रकार बंधु, तथाकथित राजनीतिक विश्लेषक व गुप्तचर एजेंसियां दंगे की आशंका क्यों करने लगती हैं? इससे भी महत्वपूर्ण हो गया है चुनाव का सांप्रदायिक व जातिगत विश्लेषण। प्री पोल सर्वे का आधार भी वही होता है।

हिन्दू-मुसलमान या फिर जाति. आप क्षेत्र विशेष के संप्रदायों का मिजाज व जातिगत समीकरण नहीं जानेंगे, विश्लेषण क्या ओल कीजिएगा? सारी राजनीतिक भविष्यवाणियां अब जाति केंद्रीत हो चुकी हैं।

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किसानों के मंच पर धार्मिक नारे लगने लगे। केंद्रीय मंत्रिमंडल में काबिलियत पैमाना नहीं, जातियों का नेता होना चाहिए। आप पश्तूनों-उजबेकों को जंगली बोलते हैं। उसकी फुल्ली बाद में देखिएगा, पहले अपना ढेढर देखिये।

राज्यों की चुनाव समितियां कबीलाई गिरोह जैसी। जातिगत क्षत्रपों के दौरे, दलितों के यहां भोज-भात को कवर करने के वास्ते मीडिया का हरावल दस्ता। पहले यह छुप-छिपाकर होता था। अब पूरी ढिठाई और निर्लज्जता से हो रहा है। पार्टी विथ नो डिफरेंस।

हिंदू बहुल नेपाल में गोरखाली राजा थे पृथ्वी नारायण शाह। 1722 से 1775 के कालखंड में नेपाल का एकीकरण उन्हीं की वजह से हुआ था। पृथ्वी नारायण शाह, नाथ संप्रदाय के उन्नायक थे। हिंदी के कवि और गुरू गोरखनाथ के भक्त। हिंदी में लिखा उनका एक गीत रेडियो नेपाल पर लंबे समय तक गूंजता रहा- ‘बाबा गोरखनाथ सेवक सुख दाये, भजहुं तो मन लाये।

बाबा चेला चतुर मच्छेन्दरनाथ को, अधबधु रूप बनाये।’ कैसी विडंबना है, एक ओर औधड़ धार्मिक चेतना के प्रवर्तक पृथ्वी नारायण शाह सामाजिक एकीकरण के प्रतीक बने, उसके बरक्स उसी नाथपंथ के प्रवर्तक ने भारत में क्या किया? इस घातक, धार्मिक-सामाजिक दुष्परिणाम का तुलनात्मक विश्लेषण क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं, मोहम्मद सज्ज़ाद। उनका मानना है कि भारत के विभाजन के लिए किसी एक पक्ष या व्यक्ति को ज़िम्मेदार ठहराना नासमझी है। इसमें मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, कांग्रेस और ब्रितानी शासन, सबकी भूमिका है। किसी की कम, किसी की ज़्यादा। सही कहा प्रोफेसर सज्ज़ाद ने।

मगर, अब जो कुछ हो रहा है, उस वास्ते क्या हम केवल मोदी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ज़िम्मेवार ठहरायें? वो तो इस बात के लिए सफल रहे कि कल तक जो पार्टियां सेक्युलरवाद का लबादा ओढ़े भारत के राजनीतिक मानचित्र पर नुमायां थीं, उन्होंने भी अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदल लिया।

मोदी और मोहन भागवत की मंडली अपने मकसद में कामयाब रही। ये सत्ता से उतर भी जाएं (जो कि दैवी चमत्कार जैसा लगता है), तो भी इस देश को वापिस सेक्युलर बनाने में कई पीढ़ियां निकल जाएंगीं। वैचारिक रूप से खंडित इस देश को एकजुट करना आसान नहीं!

 

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