किसी भी मआशरे और समाज की तरक़्क़ी का पैमाना आम तौर पर उस समाज के सबसे कमजोर तबक़े जिनमें लगभग आधी आबादी औरतों की दशा दिशा नुमायां तौर पर शामिल होती है की वास्तविक हालात से तय कर सकता है। औरतों के अलावे दीगर कमजोर तबक़े के प्रति या आम नागरिकों को मिलनेवाले सहूलियतें, राहतें, जानोमाल के तहफ़ुज़ात और नुकसानात से भी तय हो सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान की बेशतर आबादी के लिए कौन सा दौर बेहतर या बदतर था।
1978 में कम्युनिस्टों ने जब सत्ता संभाली तब कम्युनिस्टों के सामने सबसे बड़ी चुन्नौती शिक्षा को लेकर था जिसे करने में उन्होंने मिसाल क़ायम की थी। हुकूमत ने सारी औरतों के लिए तालीम की क्लासें लगायीं थीं। ये लड़कियां क़ानून, डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहीं थीं।
औरतों को इस देश में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था, लेकिन अब कम्युनिस्टों की हुकूमत के दौरान वे आज़ाद थीं और आज इनके पास इतने अधिकार थे जितने पहले कभी नहीं रहे। यह सही है कि अफ़ग़ानिस्तान में औरतों के लिहाज़ से कम्युनिस्टों का दौरेहुकूमत एक बढ़िया वक़्त है। एक सुवर्णकाल था।
कम्युनिस्टों के फ़रमान में औरतों को आज़ादी दे दी गई थी, जबरन शादी रोक दी गई थी, और शादी की उम्र के लड़कियों के लिए बढ़ाकर सोलह कर दिया गया था… लड़कियां घर छोड़कर स्कूल की ओर मुख़ातिब होने लगीं और दफ़तरों, खेत खलिहानों,कारख़ानों में मर्दों के साथ साथ मिलकर काम करने का आग़ाज़ होने लगा !
दूसरी सबसे बड़ी चुनौती आम सार्वभौम शिक्षा की थी। 1978 में सौर क्रांति के वक़्त देश में साक्षरता की दर मात्र 18.6% थी। औरतों में यह दर लगभग नदारद थी। साक्षरता की इस हालात से ज़ल्द-अज़-ज़ल्द निज़ात पाने के लिए लगभग 18000 शिक्षकों को देहातों और कस्बों में भेजा गया। साक्षरता की यह मुहिम ही वह आधारशिला बनने वाली थी
जिसपर दूसरे समाज सुधार के कामों को अंजाम देना था। हर साल सैकड़ों की तादाद में औरतें प्रोफ़ेसर, शिक्षक, डॉक्टर, सरकारी दफ़्तरों की कामकाजी बनकर कॉलेज, युनिवर्सिटी से निकलने लगीं। राजधानी और महानगरों के आगे बढ़े चढ़े विकसित विचारों को गाँव गाँव घर घर तक पहुँचाने की क़वायद में वे मिशनरी की तरह जुट गए।
तीसरा जो अहम काम होना शुरू हुआ वह था भूमि सुधार का काम। ज़मींदारों से ज़मीन लेकर ज़मीन जोतनेवाले किसानों और खेतिहरों को दी जाने लगीं। इसका असर धीरे धीरे यह दिखने लगा कि मेवे की पैदावार तेजी से बढ़ने लगीं। सरमायेदारों पर नकेल कसने के लिए बैंकों, कारख़ानों आदि आर्थिक वित्तीय प्रतिष्ठानों पर सरकारी नियंत्रण और नियमन में इज़ाफ़े किये गए। मज़दूरों और कर्मियों के लिए नौकरी की सुरक्षा गारंटी और बुजुर्गों को पेंशन की व्यवस्था की गई।
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युद्ध-सरदारों पर अंकुश लगे। उनसे उनकी लाक़ानूनियत की हैसियत छीनी जाने लगी । अमन और इश्तहकाम की ओर अफ़ग़ानिस्तान प्रस्थान होने लगा।
कम्युनिस्टों की एक बड़ी उपलब्धि जो उल्लेखनीय रही थी वह अक़्क़लियतों के तहाफ़ुज़ में उठाए एक़दामात। कम्युनिस्ट हुकूमत में अफ़ग़ानिस्तान में अल्पसंख्यक समुदाय हिंदु, सिख, ईसाई, हजारा, उज़बेक, ताज़िक़ ईरानी, शिया जितने महफ़ूज़ महसूस कर रहे थे अफ़ग़ानिस्तान के किसी तारीख़ी दौर में ऐसी मिसाल नहीं थी। कम्युनिस्ट हुकूमत में दो हिंदु काबीना दर्ज़े के वज़ीर थे। एक सिख मंत्री भी था।
एक वास्तविक “समावेशी सरकार” (Inclusive Government ) थी। धार्मिक स्वतंत्रता का नमूना देखने को मिल रहा था। सरकार धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव की नीति पर हर संभव अमल करने की दिशा में बढ़ने को संकल्पित ़थी । एक इस्लामिक रूढ़िवादी समाज में इस तरह की पहलक़दमी वाक़ई इन्क़्लाब थी।
कम्युनिस्ट सरकार के ये सारे जनपक्षीय काम, क्रांतिकारी सुधार वहाँ की परंपरा से क़ायम ज़मींदारों, मज़हबी रहनुमाओं, जंगी सरदारों, और सबसे बढ़कर सरमायेदारों और उनके फ़ितरती हमदम विश्व साम्राज्यिक पूँजी के हितों पर सीधी चोट कर रही थी जो उनके लिए नाक़ाबिलेक़ुबूल, नाक़ाबिलेबर्दाश्त हो रहा था।
इसके अतिरिक्त,दक्षिण के पश्तून इलाक़े और पूरब के सरहदी इलाक़े में जहाँ औरतें मुश्किल से सड़कों पर दिखतीं थीं, वह भी बुर्के में मर्दों के साथ, वहाँ के लोगों ने कम्युनिस्टों के फ़रमान के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी जिनमें औरतों को आज़ादी दे दी गई थी, जबरन शादी रोक दी गई थी, और शादी की उम्र के लड़कियों के लिए बढ़ाकर सोलह कर दिया गया था ।
मर्दों ने इसे अपने पुराने रिवाज़ों के तौहीन के रूप में देखा था कि ख़ुदा में यक़ीन करनेवाली हुकूमत उन्हें बताए कि उनकी लड़कियों को घर छोड़कर स्कूल जाना होगा और मर्दों के साथ साथ मिलकर काम करना होगा!
भगवान प्रसाद सिन्हा