राजेश बादल
पेगासस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय की उलझन समझ में आने वाली है। हुक़ूमते हिन्द ने अपना उत्तर देने से इनकार कर दिया है। सॉलिसिटर जनरल का एक तर्क किसी के पल्ले नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि हमारे पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है। आम नागरिकों की खुफ़ियागीरी पर जनता में चर्चा नहीं होनी चाहिए। अब सॉलिसिटर जनरल साहब को कोई कैसे समझाए कि यह समूचा देश उत्तर चाहता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में तो भारतीय मतदाता भी नहीं जानना चाहते।
जब एक बार किसी दल को बहुमत से सरकार बनाने का मौक़ा दिया है तो मुल्क़ की हिफाज़त करना भी उसी निर्वाचित सरकार की ज़िम्मेदारी है। एक नागरिक नहीं चाहता कि उनकी हुक़ूमत बताए कि आतंकवादियों से वह कैसे निबट रही है अथवा चीन और पाकिस्तान के षड्यंत्रों का मुक़ाबला कैसे कर रही है ? वह तो सिर्फ़ दो तीन जानकारियाँ चाहता है कि परदेसी जासूसी सॉफ्टवेयर ख़रीदा गया है या नहीं।
अगर ख़रीदा गया है तो किस मंत्रालय ने ,कितने पैसे में और किन शर्तों पर खरीदा है।यह जानना उसका संविधान प्रदत्त अधिकार है। संसद में इसीलिए पाई पाई का हिसाब रखा जाता है।इसके अलावा संविधान में आम आदमी को अनुच्छेद -21 के तहत दिए गए निजता के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं किया गया है ?
अगर इस अदृश्य जासूसी तकनीक से एक पत्रकार,एक राजनेता ,एक न्यायाधीश, विपक्षी नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता के घर परिवार,कारोबार,और रिश्तेदार की बातें सरकार तक पहुँच रही हैं तो ऐसा क्यों होना चाहिए ? यदि इन श्रेणियों में से किसी एक नागरिक की भी खुफ़ियागीरी हुई है तो सरकार को बताना चाहिए कि वह राष्ट्रद्रोही है और उसके सबूत देश की आला अदालत के सामने रख देना चाहिए।
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खुले तौर पर नहीं रखना चाहते तो बंद लिफ़ाफ़े में अदालत को सौंप दीजिए। फिर माननीय न्यायालय को तय करने दीजिए कि वाकई उस लिफ़ाफ़े में बंद जानकारी को उजागर करना हिन्दुस्तान के हित में नहीं है तो फिर यह देश कभी भी हुकूमत से कोई जवाब तलब नहीं करेगा।अगर अदालत पाती है कि उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है तो उसे सामने लाना राष्ट्रहित में बेहद ज़रूरी है।
भारतीय मतदाता ने अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा टैक्स के रूप में इसलिए सरकारी ख़ज़ाने में जमा नहीं किया है कि उसका दुरूपयोग उसी के विरोध में हो।आख़िर किस देश में ऐसा हो सकता है।कम से कम लोकतंत्र और क़ायदे-क़ानून से चलने वाले किसी राष्ट्र में तो ऐसा नहीं हो सकता