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Home संस्कृति इतिहास

‘जय जवान-जय किसान’ के नारे और इंदिरा गांधी की हरित क्रांति ने बदला था छत्तीसगढ़ में खेती का रूप

मुस्लिम टुडे by मुस्लिम टुडे
जुलाई 9, 2021
in इतिहास, देश, भारतीय
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‘जय जवान-जय किसान’ के नारे और इंदिरा गांधी की हरित क्रांति ने बदला था छत्तीसगढ़ में खेती का रूप
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1947 में उनका जन्म हुआ था। उस वर्ष अंग्रेज़ भारत को बदहाल छोड़ कर गये थे। न सरकार के खज़ाने में पैसा था न खेतों में अनाज। कृषि और सिंचाई व्यवस्थाएं अपने पैरों पर खड़ी हो ही रही थीं कि इसी बीच दो लगातार सालों की अवर्षा और सूखे ने खाद्यान्न व्यवस्था की कमर तोड़ दी। देश भीषण अकाल और भुखमरी की दहलीज़ पर पहुंच गया। 1965 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को आह्वान करना पड़ा था कि देशवासी सप्ताह में एक समय का भोजन छोड़ दें। सोमवार की शाम भारत के घरों में चूल्हे जलना बंद हो गये थे। उन्ही दिनों शास्त्री जी के जय जवान-जय किसान नारे का जादू भी पूरे उफान पर था।

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छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के बोतल्दा गांव के युवा किसान-पुत्र बालकराम पर इन सब बातों का गहरा असर पड़ा। उसके बाद कृषि और कृषक-सेवा मानों उनके जीवन का ध्येय बन गया।

शास्त्री जी की मृत्यु (और भारत-पाक युद्ध) के बाद जब इंदिरा गाँधी जी ने सत्ता  संभाली तब तक स्थिति पूरी तरह बिगड़ चुकी थी। (युद्ध और मौसम ने पाकिस्तान को भी बेहतर स्थिति में नहीं छोड़ा था)।

ये भी पढ़ें :  मोदी मंत्रिमंडल विस्तार : ज्योतिरादित्य सिंधिया, सर्बानंद सोनोवाल, मीनाक्षी लेखी सहित 43 नेता बनेंगे मंत्री

प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा जी का पहला सबसे महत्वपूर्ण फ़ैसला था भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने का। खाद्य मंत्री सी. सुब्रमण्यम, कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन (उसी स्वामीनाथन आयोग वाले जिनकी सिफ़ारिशों को लागू करने की मांग किसान कर रहे हैं) और अमेरिका में भारतीय राजदूत बी. के. नेहरू ने भारतीय इतिहास के इस ऐतिहासिक मोड़ पर श्रीमती इंदिरा गांधी के लिये वही भूमिका अदा की जो 1991 में श्री नरसिंह राव के लिए डॉ मनमोहन सिंह ने की।

तात्कालिक समाधान के रूप मे 1967 में मेक्सिको से एकमुश्त 18000 टन अनाज का आयात किया गया। लेकिन छत्तीसगढ़ के लोगों के लिये यह आयात कोई राहत की खबर नहीं थी। लगभग सारा का सारा अनाज गेहूं था और यहां चावल ही खाया जाता था/है। अधिकांश जनसामान्य का गेहूं से परिचय भी नहीं था।

सरकार को छत्तीसगढ़ियों की आदत की जानकारी न हो ऐसा नहीं था। पर उसकी भी मजबूरी थी। विदेशी मुद्रा पर्याप्त नहीं थी और रुपये का भुगतान स्वीकार करने में मैक्सिको का विकल्प नहीं था (अमरीकी पी.एल.480 नामक कानून के कारण)। मैक्सिको की मजबूरी यह थी कि क्रिस्टोफर कोलम्बस जब वहां पहुंचे थे तो गेहूं के बीज ले कर पहुंचे थे, चावल के नहीं। ऊपर से पंद्रहवीं सदी में स्पैनिश शासन के दौरान यह इलाका गेहूं के खेतों से भर दिया गया। 1967 में  मैक्सिको, अमेरिका और कनाडा में स्थिति यह बनी थी कि यदि गेहूं का कोई लेने वाला न मिलता तो कीमत स्थिर रखने के लिए गेहूं को समुद्र में फेंकना पड़ जाता।

नेहरू जी ने पहली पंचवर्षीय योजना में बजट का 31% आवंटन कृषि क्षेत्र के लिये किया था (पिछले छह वर्षों में यह 2.3% से 5.2% के बीच रहा है)। इसका एक नतीजा यह हुआ था कि देश में उन दिनों की सरकारी व्यवस्था में कृषि विभाग का ग्राम सेवक एक बहुत महत्वपूर्ण और शक्तिशाली कर्मचारी हो गया था। सदियों से खेती के पारम्परिक तौर-तरीकों में रचे बसे किसानों के ‘आधुनिकीकरण’ और कृषि क्षेत्र के विस्तार का पूरा दायित्व ग्राम सेवकों पर आ गया  था।

भारत में कम से कम तीन उदाहरणों की जानकारी मुझे है (आपके पास और हों तो बताएं) जहाँ भारतीयों को एक नये स्वाद/आदत से परिचित कराने के लिए ‘डायरेक्ट मार्केटिंग’ का इस्तेमाल तब किया गया जब ये शब्द प्रचलन में नहीं थे।

घी और तेल के बीच पीढ़ियां गुज़ार चुके भारतीयों के बीच 1937 में हिन्दुस्तान यूनिलीवर कम्पनी के पुरखों ने पहली बार “डाल्डा” के नाम से वनस्पति को प्रवेश दिलाया था। बम्बई (मुम्बई) में जब यह लाॅन्च हुआ तो सड़क के किनारे कुछ कुछ दूरी पर “सेल्स-गर्ल” के रूप में नियुक्त महिलाओं को स्टोव, कड़ाही और बेसन के साथ बैठाया गया था। उनका काम था डाल्डा में भजिया तलना और आते जाते को रोक कर खिलाना।

इसके पहले चिलम और हुक्के के आदी भारतीयों को जब इम्पीरियल टोबैको कम्पनी (अब आई.टी.सी.) ‘सिगरेट’ नाम की नयी वस्तु से परिचित कराने मैदान में उतरी तो मेला और हाट बाज़ारों में मुफ़्त में सिज़र्स सिगरेट पिलायी जाती थी।

1967 में सरकार ने कुछ इसी तरह की डायरेक्ट मार्केटिंग का जिम्मा छत्तीसगढ़ के ग्राम सेवकों को दिया था। जगह जगह स्टाॅल लगा कर गेहूं की रोटियाँ सेंक कर लोगों को खिलायी गयी थीं। युवा बालकराम ने इन कार्यक्रमों में वाॅलेन्टियर के रूप में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कृषि  अधिकारियों को इस युवा के उत्साह और नये को आज़माने और सीखने की ललक ने प्रभावित किया।

उसी समय भारत में ‘हरित क्रांति’ की शुरूआत हुई। 1967 में मेक्सिको में गेहूं की जो बम्पर फ़सल हुई थी वह अमेरिका की राॅकफैलर फाउंडेशन के द्वारा मेक्सिको में कृषि विकास के लिये 1943 से लगातार किये गये प्रयत्नों का नतीजा थी। इस कार्यक्रम को वहां ‘ग्रीन रिवोल्यूशन’ कहा गया था। गेहूं के साथ साथ वही कार्यक्रम भारत आ गया और हरित क्रांति कहलाया।

हरित क्रांति के साथ ही कृषि विभाग के अमले पर एक दबाव और आ गया – इलाक़े में खेती के लिये ट्रैक्टर और दूसरी मशीनरी के उपयोग को बढ़ावा देने का। छत्तीसगढ़ में नांगर (हल) जोतकर धान उपजाया जाता था और बैल गाड़ी में ढो कर इधर से उधर पहुंचा दिया जाता था। बाकी काम हाथ से। ऊंची मेड़ वाले कटोरीनुमा खेतों में ट्रैक्टर न तो व्यावहारिक था न आवश्यक।

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यहाँ कृषि विभाग वालों की नज़र पड़ी इस उत्साही युवा बालकराम पर। परिवार में डेढ़ सौ एकड़ के सिंचित खेत थे और दिल में इलाके की खेती विकसित करने का जज़्बा। नये नये ग्रेजुएट हुए बालकराम को उन्होंने बुधनी जाने के लिए प्रेरित किया। मध्यप्रदेश में भोपाल और इटारसी के बीच बुधनी में भोपाल के नवाब से दान में प्राप्त एक हज़ार एकड़ भूमि में हरित क्रांति के दौर का एक बहुत बड़ा और अहम संस्थान स्थापित हुआ था। यहां ट्रैक्टर और दूसरी कृषि मशीनरी की टेस्टिंग और ट्रेनिंग अभी भी होती है। यह भी राॅकफैलर फाउंडेशन के सहयोग से हुआ था और मेक्सिको के अलावा विश्व में इस तरह का यह अकेला संस्थान था।

इस संस्थान ने बालकराम को ट्रैक्टर टेक्नोलॉजी में प्रशिक्षित किया और लौटकर इन्होने अपने इलाके में पहले तो पचास एकड़ खाली पड़ी भूमि पर खेत बना कर उसमें दो साल गेहूं उगाया और फिर किसानों को ट्रैक्टर खरीदने के लिये प्रेरित किया। सरकार भी पीछे नहीं थी। बैंकों से सस्ती ब्याज दरों में ॠण दिलाने के अलावा  कीमत में भारी सब्सिडी भी दी गयी थी। बालकराम जी ने अपनी ओर से तकनीकी मदद – वह भी निःशुल्क – की गैरन्टी दी। उन दिनों मध्यप्रदेश में सब्सिडी वाले नये ट्रैक्टर सिर्फ भोपाल में मिलते थे। भोपाल में खरीदी होती और बालकराम जी हज़ार किलोमीटर की दूरी पांच दिनों तक ट्रैक्टर चला कर पूरी करते और नया ट्रैक्टर किसान के दरवाजे पहुंचाने लगे। जिस इलाक़े ने ट्रैक्टर नहीं देखा था, वहां एक एक करते पचास से अधिक ट्रैक्टर आ गये। फ्री-सर्विस देते दस वर्ष बीत गये। किसानों के सामने बालकराम जी की शर्त बस यह रखी जाती कि जब ट्रैक्टर मरम्मत के लिए भेजें तो एक युवक जो कम से कम मैट्रिक पास हो ज़रूर साथ भेजें। बालकराम जी ऐसे युवाओं को मैकेनिक बना कर वापस भेजते। आज नतीजा यह है कि इलाके में ट्रैक्टर रिपेयर के वर्कशॉप नहीं दिखते। हर किसान स्वयं मालिक के साथ साथ मैकेनिक भी है। दस साल तक निःशुल्क सेवा देने के बाद किसानों का दबाव पड़ा और 1980 में उन्होंने अपना एक वर्कशाप और शो-रूम शुरू किया। आज उनकी डिज़ाईन की गयी और बनायी ट्राॅली खरीदने दूर दूर से किसान आते हैं। उनका शुरू किया गया उपक्रम “बोतल्दा ट्रैक्टर्स’ छत्तीसगढ़ राज्य की सबसे बड़ी ट्रैक्टर डीलरशिप है।

डॉ. परिवेश मिश्रा

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