30 जनवरी 1971 की सुबह इंडियन एयरलाइंस के VT-EBJ फाॅकर-फ्रेन्डशिप विमान “गंगा” ने जब श्रीनगर से उड़ान भरी तो उसमें 28 यात्री सवार थे। जम्मू में विमान लैन्ड करने ही वाला था कि पीछे की सीटों से दो युवक आज़ाद कश्मीर के नारे लगाते दौड़ते हुए सामने की ओर आये। पिस्तौल लहराता एक युवक काॅकपिट में घुसा और दूसरा हैन्ड-ग्रेनेड ले कर यात्रियों के सामने खड़ा हो गया।
भारत के इतिहास में पहले विमान अपहरण की कहानी शुरू हो गयी थी।
आम याददाश्त में कश्मीर में अलगाववाद ने सन् 1989 में सिर उठाया था। सच यह है ISI के साथ चले शह और मात के खेल में यदि 1971 मेें भारतीय “राॅ” (रिसर्च एन्ड एनालिसिस विंग) निर्णायक बाजी न जीतता तो यह शुरुआत तभी – 1971 में ही – हो चुकी होती। “राॅ” की इस जीत के पीछे मजबूत हाथ था तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी का।
पाकिस्तान ने पायलट राजीव गांधी के द्वारा उड़ाये जा रहे विमान को हाईजैक करने की योजना बनायी गयी थी। इस षड्यंत्र की जानकारी मिलते ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस संभावित आपदा को अवसर में बदल कर भारत के हित में इस्तेमाल करने का फैसला किया। इंदिरा गांधी के इस साहसिक कदम का एक असर यह हुआ कि उनके जीते जी पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद को हवा न दे पाया। पाकिस्तान को सफलता तब मिली जब 1989 में तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद (बाद में मुख्यमंत्री बनीं महबूबा मुफ्ती की बहन) को श्रीनगर में अगवा किया गया और उसे छुड़ाने की कीमत के रूप में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने खूंखार आतंकवादियों को रिहा करना स्वीकार कर लिया।
लेकिन यहां थोड़ी क्रोनोलाॅजी समझना ज़रूरी है।
1966 तक के आतंकवाद और प्लेन-हाईजैकिंग, ये दो शब्द प्रचलन में नहीं आये थे। शुरुआत तब हुई जब अमानुल्ला खां और मकबूल बट्ट नामक दो कश्मीरियों के रूप मे पाकिस्तान को सहयोगी मिले। अपने साथ और सदस्य जोड़ने के उद्देश्य से बट्ट ने एक साथी के साथ सीमा पार कर भारत में घुसने की कोशिश की लेकिन पुलिस से आमना-सामना हो गया। गोलाबारी में एक भारतीय सब-इन्सपेक्टर मारा गया। बट्ट पर इन्सपेक्टर की हत्या का मुकदमा चला और उसे फांसी की सज़ा हुई। लेकिन फांसी हो पाती उससे पहले ही वह श्रीनगर जेल में सुरंग खोद कर भाग निकला और पाकिस्तान पंहुच गया। (आगे चलकर वह दोबारा गिरफ्तार हुआ और 11 फरवरी 1984 को दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी पर लटकाया गया था, लेकिन वह अलग कहानी है)
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भागने की यह घटना 8 दिसम्बर 1968 की है। उसी वर्ष तीन और घटनाएं हुई थीं जिनका संबंध इस कहानी से है।
25 जनवरी को राजीव गांधी ने कमर्शियल पायलट के रूप में लाइसेंस प्राप्त कर नियमित उड़ान प्रारंभ कर दी थीं। और दूसरी, 21 सितम्बर को खुफिया एजेंसी “राॅ” की स्थापना हुई थी। (इससे पहले तक इंटेलिजेंस ब्यूरो की ही एक शाखा भारत से बाहर के खुफिया मामलों को देखती थी) “राॅ ” का नियंत्रण प्रधानमंत्री ने अपने हाथों में रखा था। इन्हीं दिनों मकबूल बट्ट की अनुपस्थिति में ISI ने ‘अल-फतह’ नामक एक बैनर के नीचे कम उम्र के लड़कों को आतंकवाद की ट्रेनिंग दे कर भारत में ठेलना प्रारम्भ कर दिया था।
भारतीय खुफिया एजेंसियों की मदद से पुलिस ने अल-फतह के 36 लड़कों को कश्मीर में पकड़ लिया। अल-फतह चूंकि नया संगठन था इसलिए इसके बारे में और जानकारी प्राप्त करना ज़रूरी था। “राॅ” ने इसके लिये जिस एजेंट को चुना उसका नाम था मोहम्मद हाशिम कुरैशी।
हाशिम उन दिनों अनौपचारिक रूप से BSF के साथ संबद्ध था। उसकी भूमिका डबल-एजेंट की थी – अर्थात मूल रूप से “राॅ” का जासूस जो ISI की ओर से जासूस बनने के लिये जा रहा था। बी.एस.एफ. ने सियालकोट बार्डर पर उसका पाकिस्तान प्रवेश करवा दिया। पाकिस्तान में हाशिम मकबूल बट्ट का विश्वास जीतने में सफल हो गया।
जुलाई 1970 में भारत लौटकर हाशिम ने जो सूचनाएं दीं वे “राॅ” के होश उड़ाने वाली थीं। भारत में राजीव गांधी इंडियन एयरलाइंस में पायलट के रूप में नौकरी शुरू कर चुके थे और उन दिनों फाॅकर फ्रेन्डशिप विमान उड़ाते थे। हाशिम ने बताया कि ISI ने चकलाला के एयर-बेस में पायलट जावेद मंटू के हाथों फाॅकर फ्रेन्डशिप विमान के अंदर ले जा कर अपहरण के संबंध में आवश्यक ट्रेनिंग दिलायी थी। राजीव गांधी के साथ विमान को हाईजैक कर पाकिस्तान लाने के लिए उसे भारत वापस भेजा गया था।
उन दिनों बी.एस.एफ के मुखिया थे के.एफ. रुस्तमजी और “राॅ” के रामेश्वर नाथ काव। दोनों इंदिरा गाँधी के विश्वास पात्र थे और दोनों में भरपूर तालमेल था। हाशिम से प्राप्त जानकारियां श्रीमती इंदिरा गाँधी को दी गयीं।
उन दिनों श्रीमती गांधी की पैनी नज़र पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे घटनाक्रम पर भी थी। 2 नवम्बर 1970 के दिन पूर्वी पाकिस्तान को सायक्लोन ‘भोला’ से बहुत बड़ी मात्रा में जान-माल की हानि हुई थी। किन्तु पश्चिमी पाकिस्तान का बे-परवाह रवैया बंगालियों का दिल तोड़ गया था। अगले महीने चुनाव हुए जिसमें आवामी लीग की एक-तरफ़ा जीत के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान का और साथ रहना मुश्किल है। पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिम से भेजे जाने वाले सैनिकों की संख्या में अचानक बहुत बढ़ोतरी हो रही थी। पाकिस्तान के विभाजन की संभावना प्रबल होने लगी थी। भारत के लिये ज़रूरी हो गया था कि कूटनीति की बिसात पर भविष्य में चली जाने वाली चालों के बारे मे सोचना शुरू कर दे।
इंदिरा गाँधी ने इस अवसर को भारत के हित में भुनाने का फैसला किया। पाकिस्तान को उसी की चाल से मात देने की योजना बनी।
कारीगरों से लकड़ी की एक असल सी दिखने वाली पिस्तौल और एक हैन्ड-ग्रेनेड बनवा कर, पाॅलिश और पेन्ट कर, हाशिम कुरैशी को दिया गया। सत्रह वर्षीय हाशिम ने साथी के रूप में अपने हमउम्र चचेरे भाई अशरफ कुरैशी को तैयार कर लिया। अशरफ श्रीनगर मेडिकल कॉलेज में फर्स्ट इयर का छात्र था। इंडियन एयरलाइंस का एक पुराना विमान “गंगा” जिसे कुछ ही समय पहले सेवा से हटाया गया था, उसे वापस लाया गया। एयरपोर्ट में सुरक्षा जांच का रिवाज़ तब तक शुरू नहीं हुआ था, सो प्लेन के अंदर पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई।
अपहृत विमान जब लाहौर में उतरा तो वहां उत्सव का माहौल बनते देर न लगी। विमान अपहरण का कोई तज़ुर्बा दोनों देशों को नहीं था। अपहरण में विमान से अधिक कीमती उसकी सवारी होती हैं यह ज्ञान तब तक सब के पास नहीं पंहुचा था। सवारियों को विमान से उतारा गया और खूब खातिरदारी की गयी। विमान को देखकर ISI की खुशी का ठिकाना न था। विमान की सवारियों को पहले एक पांच सितारा होटल में ठहराया गया और फिर अगले दिन बस में बैठाकर हुसैनीवाला चेकपोस्ट पर भारत के हवाले कर दिया गया। सीमा पार करने से पहले पाकिस्तान रेन्जर्स ने उन्हें बाकायदा फौजी सम्मान देते हुए बिदा किया।
इधर ISI ने लाहौर एयरपोर्ट पर पेशावर से बुलाकर मकबूल बट्ट की भेंट अपहरणकर्ताओं से करायी। भारत में बंद अल-फतह के 36 बंदियों की रिहाई की मांग की गयी जिसे भारत ने ठुकरा दिया। संयोग से उस समय लाहौर पंहुचे ज़ुल्फिक़ार भुट्टो (तब विदेशमंत्री थे) ने अपहरणकर्ताओं को साथ ले कर एक प्रेस कांफ्रेंस भी कर ली। योजना के अनुसार पाकिस्तानियों ने खाली खड़े विमान में आग लगा दी। अनेक लोगों ने धू-धू कर जलते विमान की पृष्ठभूमि में फोटो खिंचवायी। पटाखे फूटे। माहौल कुछ ऐसा बना मानो पाकिस्तान ने भारत से टेस्ट सिरीज़ जीत ली हो।
लेकिन पाकिस्तान का उत्सव एक दिन से अधिक नहीं खिंच पाया। 2 फरवरी को जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री जी.एम. सादिक़ ने श्रीनगर में कह दिया कि “गंगा” की हाईजैकिंग भारत ने ही की थी। अगले दिन शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली में “राॅ” की प्रशंसा में इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिख दिया।
4 फरवरी 1971 को भारत ने अपना तुरूप का वो पत्ता बाहर निकाला जो पहले से तैयार था, बस अवसर तैयार किया जा रहा था। भारत ने अपनी भूमि के ऊपर से पाकिस्तानी विमानों की उड़ान पर रोक लगा दी। पाकिस्तान के लिए पूर्वी पाकिस्तान की दूरी तीन गुना बढ़ गयी। उसके पास बहुत कम विमान ऐसे थे जो रास्ते में पेट्रोल लिए बिना पूरी दूरी तय कर पाते। पाकिस्तान ने श्रीलंका में ईंधन भरना शुरू किया। श्रीमती गांधी ने श्रीलंका पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर यह सुविधा भी बंद करवा दी। सैनिक और सामान, दोनों को पूर्वी हिस्से तक पंहुचाने का काम लगभग थम सा गया। भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के इस कदम का दूरगामी असर दुनिया को साल के अंत में नज़र आया जब पाकिस्तान टूटा, सप्लाय के अभाव में नब्बे हज़ार फंसे सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा और बांग्लादेश अस्तित्व में आया।
विमान हाईजैकिंग का एक फायदा और हुआ। कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के पीछे ISI के हाथ को दुनिया के सामने पहली बार एक्सपोज़ करने में भारत सफल हुआ। लाहौर एयरपोर्ट पर इंडियन एयरलाइंस के धू-धू कर जलते विमान और हाशिम के साथ भुट्टो की तस्वीरों को दुनिया भर में देखा गया था।
विमान अपहरण की हक़ीक़त सामने आने पर पाकिस्तानी सरकार और ISI की भारी बेइज्ज़ती हुई। भारतीय “राॅ” ने उसे बड़ी शिकस्त दी थी। ISI को कुछ सूझा नहीं तो उसने दोनों अपहरणकर्ताओं के साथ मकबूल बट्ट और उसके साथियों को जेल में डाल दिया। लेकिन कुछ दिनों में जब “राॅ” का खेल समझ में आया तो सिर्फ़ हाशिम कुरैशी को दस वर्षों के कारावास की सज़ा देकर बाकी सब को छोड़ दिया।
सज़ा पूरी कर बाहर आने पर “राॅ” ने अपने वायदे के अनुसार हाशिम कुरैशी को ऑस्ट्रिया में बसने और नया जीवन शुरू करने में सहायता की।
डॉ परिवेश मिश्रा