जनता को मुफ्त सुविधाएं बांटने के फेर में केंद्र और राज्य सरकारें कर्ज के बोझ तले दबती जा रही हैं। वित्तवर्ष 2022-23 में केंद्र सरकार ने 4.36 लाख करोड़ रुपए की सबसिडी बांटी है।
आगामी वित्तवर्ष 2023-24 में केंद्र ने सबसिडी को कम जरूर किया है, लेकिन कोयनाकाल से जारी मुफ्त राशन योजना को दिसंबर 2023 तक विस्तार दे दिया है। देश भर में मुफ्त अनाज लेने वाले लाभार्थियों की संख्या करीब नब्बे करोड़ राष्ट्रीय खाद्यान्न योजना के अंतर्गत देश भर में मुफ्त अनाज लेने वाले लाभार्थियों को संख्या करीब नब्बे करोड़ है।
केंद्रीय मंत्री संसद में स्वीकार कर चुके हैं कि राज्यों में फर्जी राशन कार्डों के माध्यम से 55.37 लाख अपात्र लाभार्थी योजना का लाभ ले रहे हैं। वित्तवर्ष 2022-23 में केंद्र ने मनरेगा पर नब्बे हजार करोड़ रुपए खर्च किए। बदले में पच्चीस फीसद विकास कार्य भी देश में नहीं दिखाई दिए है। रिजर्व बैंक का आकलन है कि बीते वर्ष में राजस्व में एक फीसद की अवश्य वृद्धि हुई है, लेकिन केंद्रीय बजट में सबसिडी का हिस्सा सात फीसद तक पहुंच गया है।
यानी सरकार जीएसटी और अन्य करों के माध्यम से वसूली कर रही है, तो उससे कई गुना राशि मुफ्त में बाट रही है। सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों में चुनाव जीतने के लिए मुफ्त रेवड़ी की घोषणा एक सुलभ उपाय के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। इससे देश का बुनियादी ढांचा चरमरा गया है। अब देश के आम आदमी की मानसिकता गरीब बनकर जीवन यापन को हो चुकी है। वह अपने स्तर से ऊपर आना भी नहीं चाहता, क्योंकि उसे मिलने वाली मुफ्त और अनुदान आधारित योजनाओं के छिन जाने का डर है!
देश के दस राज्य अपनी कर्ज लेने की अंतिम सीमा रेखा पार कर चुके हैं। आरबीआइ की रिपोर्ट बताती है कि इन राज्यों ने मुफ्त बांटने की योजनाओं पर रोक नहीं लगाई तो राज्यों में विकास की स्थिति श्रीलंका और पाकिस्तान जैसी होगी। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के तीस राज्यों ने अप्रैल 2022 से दिसंबर 2022 तक नौ माह की अवधि में 2.28 लाख करोड़ रुपए का कज लिया था, जबकि अगले तीन माह जनवरी 2023 से मार्च 2023 तक 3.34 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेने की कतार में शामिल थे।
आरबीआइ की रिपोर्ट में घोषित दस राज्यों पंजाब, केरल, बिहार, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, सरखंड, मध्यप्रदेश के हालात ये हैं कि इनकी समस्त आय का नब्बे फीसद हिस्सा कर्मचारियों की तनख्वाह, पेंशन, ब्याज, सबसिडी पर खर्च हो रहा है। सभी व्यय के बादइन राज्यों में विकास के लिए दस फीसद हिस्सा भी नहीं बच रहा है। सवाल यह भी है कि क्या ये राज्य लिए गए कर्ज कभी लौटापाएंगे?
स्थितियां बदतर हैं, लेकिन चुनावी प्रबंधन के लिए मुफ्त घोषणाओं में कोई भी सरकार पीछे नहीं है। रिजर्व बैंक की गणना के अनुसार सरकार के वित्तीय अनुशासन में कर्ज का बोझ उस राज्य की जीडीपी के तीस फीसद से अधिक नहीं होना चाहिए, लेकिन पंजाब 53.3 फीसद, राजस्थान 40 फीसद, बिहार 38, उत्तर प्रदेश 34, मध्यप्रदेश 32 फीसद का बोझ लिए बैठे है।
इन राज्यों को और अधिक कर्ज देने से वित्तीय संस्थाएं परहेज कर रही है, लेकिन जरूरतमंद राज्य अचल संपतिया और प्रतिभूति गिरवी रख कर भी कर्ज मांगने की कतार में शामिल हैं। इन राज्यों में जो नागरिक नियमित कर अदा कर रहा है, उस पर और अधिक कर, विकास अधिभार लाद कर राज्य आय के संसाधन विकसित कर रहे हैं। इनकी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी अति आवश्यक सुविधाएं पिछड़ चुकी हैं। आवश्यक सेवाओं में भी नियमित भर्ती के स्थान पर संविदा और अतिथि कर्मचारी नियुक्त किए जा रहे हैं।
अर्थशास्त्री मानते हैं कि अतिआवश्यक सेवाओं को छोड़कर उन योजनाओं पर, जिनका प्रतिदान शून्य हो, राज्य की जीडीपी हिस्सेदारी एक फीसद से अधिक की नहीं होनी चाहिए। मगर मुफ्त और अनुदान आधारित योजनाओं में पंजाब राज्य की 2.7, आंध्र प्रदेश 2.1, मध्यप्रदेश 1.5 और राजस्थान की 20 फीसद हिस्सेदारी है। पंजाब की आबादी करीब तीन करोड़ है और उस पर कर्ज तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक का है।
इस तरह राज्य के प्रत्येक नागरिक पर एक लाख का कर्जा है। राज्य के पच्चीस फीसद युवा बेरोजगार है। राज्य सरकार रोजगार के अवसर पैदा नहीं कर पा रही है। अमूमन यह स्थति उन सभी राज्यों की है, जिन्हें आरबीआइ ने संवेदनशील राज्यों की श्रेणी में रखा है। विश्व बैंक का आकलन है कि देश के नगर निकायों को स्थानीय विकास, जल निकासी और जल प्रदाय के लिए आगामी पंद्रह वर्षों में 840 अरब डालर की दरकार है।
नगर निकाय अभी तक केंद्र और राज्य सरकार से मिलने वाली आर्थिक सहायता पर निर्भर रहते आए हैं। राजनीतिक कुप्रबंधन के कारण निकाय अपने आय के स्रोत विकसित करने में विफल रहे हैं। कर्ज में डूबे राज्यों की मुफ्त घोषणाओं ने सबसे अधिक नगरीय विकास को प्रभावित किया है। संस्थाओं में तकनीकी कर्मचारियों की भर्ती के बजाय ठेके से काम लिया जा रहा है। इसके चलते नागरिक सेवाओं में गुणवत्ता और उत्तरदायित्वों का अभाव होने लगा है।
नागरिक सेवाओं की बेहतर बहाली के बजाय, सरकारें सिर्फ वोट प्रबंधन कर सत्ता हासिल करने में जुट गई हैं। किसान सम्मान निधि के अंतर्गत प्रति वर्ष देश के किसानों को साठ हजार करोड़ रुपए तक की राशि केंद्र सरकार देती है। कई राज्य सरकारें इसके अलावा भी आबंटन कर रही हैं। मगर देश में कृषि क्षेत्र की हालत यह है कि अगर प्रकृति तनिक भी विचलित हो जाए तो किसानों के पास अगले दिन की व्यवस्था नहीं है। सवाल है कि हम किसानों को योजनाओं के माध्यम से कितना सक्षम बना पाए है?
आज देश के प्रत्येक किसान परिवार पर औसतन 74, 121 रुपए का कर्ज है। जबकि प्रति परिवार मासिक आय मात्र 10,218 रुपए है। अर्थशास्त्रियों की चेतावनी है कि शिक्षा और स्वास्थ्य पर अनुदान के बजाय सारी मुफ्त योजनाएं देश को गर्त में उतारने के लिए है। तीन बड़े हिंदी राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं।
आरबीआइ की सूची में मध्यप्रदेश और राजस्थान अपनी कर्ज सीमा लांघ कर संवेदनशील इलाके में पहुंच चुके हैं। इन राज्यों को अपने कर्मचारियों के मासिक वेतन और पेंशन के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है। मप्र सरकार का दावा है कि वह जन्म के पूर्व से लेकर अंत्येष्टि तक गरीबों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराती है। अब राज्य सरकार ने प्रदेश की 2.50 लाख से कम आय वाली प्रत्येक महिला को एक हजार रुपए मासिक पेंशन देने का फैसला किया है।
इस लाडली बहना योजना पर सरकार पांच साल में करीब इकसठ हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी। जबकि राज्य के हालात ये हैं कि अमृत 2.0 योजना में केंद्र सरकार द्वारा राशि देने के इनकार करने से राजधानी भोपाल सहित पूरे प्रदेश की जलनिकासी व्यवस्था में सुधार नहीं हो पा रहा है। सरकार अपनी प्रतिभूति और अचल संपति को गिरवी रख कर बाजार से कर्ज लेने को मजबूर है। छत्तीसगढ़ पर कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद का 28 फीसद है। मगर कर्ज लेकर मुफ्त बांटने में वह एक कदम भी पीछे नहीं
आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि वित्तवर्ष 2023-24 में राज्यों में कर संग्रह पिछले साल की अपेक्षा दो फीसद कम रहेगा। आगामी वर्षो में अब राज्यों को केंद्र की बैसाखी छोड़ अपने आय के स्रोत विकसित करना होगा। मगर मुफ्त बांट कर सत्ता प्राप्ति का सूत्र राज्यों को दिवालिया और नागरिकों को आश्रित बना रहा है।