नसो मे दौड़ते हुये गर्म खून और जवानी के जोश के साथ मै अपनी खटारा बाईसिकिल से अपने निवास स्थान युसूफ बिल्डिंग, नागपाडा, मुंबई से एक निजी शैक्षिक संस्था इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड सेंटर (IITC) द्वारा चलाए जा रहे प्रबंधन के सर्टिफिकेट्स कोर्स की वी०टी० रेलवे स्टेशन के पास स्थित कक्षा मे पढ़ने के लिये, जैसे ही कुछ कदम दूर चला था,वैसे ही चौराहे पर काँच की बोतलो की बौछार शुरू हो गई।
सर्दी का मौसम होने की वजह से मैने एक जैकेट पहन रखी थी (जो मुंबई की सर्दी के लिये काफी होती है),उसने मेरा बचाव किया किंतु फिर भी एक काँच का टुकड़ा मेरे हाथ के पंजे के ऊपर लगा, फिर खून टप-टप करके बहने लगा। सोमवार, 7 दिसंबर 1992 को सुबह के लगभग 7 बजे उस खूनी दंगे (1993-93) से यह मेरा पहला साक्षात्कार था,बाकी किस्सो के लिये किताब लिखी जा सकती है।
सारांश यह है, कि मैने उस दंगे मे शिवसेना के नेताओ खासकर मधुकर सरपोतदार को नंगी आंखो से बी०आई०टी० चाल मे अपनी गाड़ी से हथियार निकलवा कर बाँटते देखा था। यद्यपि उन्हे दूसरे मामले मे अपराधी माना गया, किंतु यह मामला दबा का दबा ही रह गया, जस्टिस श्री बी० एन० श्रीकृष्णा की अध्यक्षता मे एक जांच आयोग बना था, लेकिन उसकी फाइले गोदाम मे सड़ती रही और अपराधी सड़क पर खुलेआम घूमकर जिंदगी की मौज मस्ती लूटते रहे।
मैं 2 मार्च 2020 को हिन्दी के एक छोटे से भारतीय चैनल पर एक परिचर्चा मे हिस्सा लेने गया जिसमे 9 लोग शामिल थे,जब मैने मुसलमानो के दुकान-मकान जलाने, मस्जिद-कुरान को शहीद करने और दंगे के आरोपी हिंदू हत्यारो को फांसी ना देने का मुद्दा उठाया, तो मेरी भाषा को असंसदीय और अमर्यादित बताकर मेरी आवाज को दबा दिया गया।
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परिचर्चा के बाद गैस्ट कोऑर्डिनेटर ने मुझे अपमानित करते हुये कहा, कि आप परिचर्चा मे भाग लेने के काबिल ही नही है, फिर धमकाते हुए कहा कि मुझे इलेक्ट्रानिक मीडिया से ब्लैक लिस्ट भी करवा दिया जाएंगा। अंतिम शब्द बहुत कड़वे लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सच्चाई बताने वाले है, उसने कहा कि “आप अपना एजेंडा सेट करने आये थे!”
यह आरोप निराधार था, क्योकि ना तो मैं स्कूलो मे बच्चो के एडमिशन कराने, युवाओ की नौकरी लगवाने और व्यापारियो को ठेके दिलवाने की आड़ मे दलाली करता हूं,ना ही मैं दलगत और चुनावी राजनीति मे हिस्सा लेता हूं,तो फिर मुझे एजेंडा सेट करने का क्या फायदा होगा? वास्तव मे खुद इन टी०वी० चैनलो का एक एजेंडा होता है!
राजनीतिक दल या व्यापारिक समूह के एजेंडे पर यह टी०वी० चैनल काम करते है,वह राजनैतिक दल इन चैनलो को धन और व्यापारी अपने व्यवसायिक संस्थानो के विज्ञापन देते है। मोदी सरकार को खुश करने लिये प्रशासन चाहता है, कि टी०वी० चैनल ताहिर हुसैन के घर को आतंकवादियो का अड्डा साबित करने की कोशिश करे, किंतु फासीवादी भगवा आतंकवादियो के अड्डे मोहन नर्सिग होम (भजनपुरा) के बारे मे चर्चा ना करे।
उद्देश्य यह है कि मुसलमानो को जबरदस्ती आतंकवादी, अलगाववादी, चरमपंथी और असहनशील बताकर इस्लाम को बदनाम किया जाये, किंतु दूसरे तरफ “सनातन संस्था और बजरंग दल” जैसे “भगवा आतंकवादी” संगठनो को अपराधी बताकर और “श्रीराम सेना” और “गौरक्षक” जैसे “फांसीवादी” संगठनो को असामाजिक तत्व बताकर उनकी हरकतो पर पर्दा डालते हुये टीवी चैनलो द्वारा सनातन धर्म का महिमामंडन किया जाये।
अगर कोई चैनल सच्चाई सामने लाने की कोशिश करता है, तो उसे “एन०डी०टी०वी०” की तरह प्रताड़ित किया जाता है या फिर उसे मलयाली टी०वी० चैनल “एशियानेट न्यूज़” (Asianet News) और “मीडिया-वन टी०वी०” (Media-One TV) की तरह प्रतिबंधित कर दिया जाता है।
बुलंदशहर दंगे मे 3 दिसम्बर 2018 को इस्पेक्टर सुबोध कुमार की हत्या करने वाले फासीवादी हत्यारो के ऊपर खबरे चलाने के बजाय मीडिया मुसलमानो मे ही उपद्रवियो को खोजता रहा, इस्पेक्टर सुबोध की हत्या की “मॉक-ड्रिल स्टोरी” अर्थात “घटना का काल्पनिक प्रस्तुतीकरण” करने के मामले मे टी०वी० चैनलो को सांप सूंघ गया था।
“कुंदन ने गाय काटी थी!” उस घटना से संबंधित वायरल वीडियो मे कथित “कुंदन” की कोई विस्तृत चर्चा नही हुई। यह कुंदन कौन था? कुंदन किस जाति का था? कुंदन किस संगठन से जुड़ा था? कुंदन के कौन-कौन साथी थे? कुंदन का पुराना आपराधिक रिकॉर्ड है या नही? अगर कुंदन की जगह कोई अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमान होता, तो टी०वी० चैनल 10-20 घंटे इस मुद्दे पर कवरेज देते और मजेदार और चटकारेदार कहानियां चलाते।
सुदर्शन और रिपब्लिक भारत जैसे फासीवादी चैनलो को तो पूरे दिन की सामग्री मिल जाती थी। चंद दिनो बाद पुलिस ने “कुंदन को मुल्लन” बनाकर मुल्ला (मुसलमान) साबित कर दिया, लेकिन ना तो मीडिया ने इस पर कोई सवाल खड़ा किया, ना ही किसी विदेशी संस्था से वीडियो की जांच कराने की मांग करी।
कांवड़ यात्रा के नाम पर हिंसा करने वाले आतंकियो और होली की आड़ मे हुल्लड़ करने वाले उपद्रवियो पर टी०वी० चैनल कहानियां बनाकर प्रसारित करने से कतराते और डरते है, किंतु वही टीवी चैनल सिक्ख और मुस्लिम युवाओ द्वारा दिल्ली की सड़को पर मोटरसाइकिल के करतब दिखाने पर खूब कहानियां बनाकर प्रसारित करते है और टी०वी० पैनलिस्ट चर्चा मे बैठकर अल्पसंख्यको को खूब प्रवचन सुनाते है।
“साउथ एशिया प्रोजेक्ट” पर काम करने वाले कोलंबिया विश्वविद्यालय के “स्टेनली मैरन”(Stanley Maron) की 1956 मे पाकिस्तान के उपर “ऐ सर्वे आफ पाकिस्तान सोसाइटी” (A Survey of Pakistan Society) शीर्षक से एक किताब छपी थी, जिसमे उन्होने लिखा था कि पश्चिमी पाकिस्तान मे अल्पसंख्यको की 1951 मे आबादी 2.9% थी, जो विकिपीडिया के अनुसार 2019 मे लगभग 4% हो गई है, जिसमे हिंदू आबादी 1.6% (1951) से बढ़कर 1.85% (2019) और इसाई आबादी 1.3% से बढ़कर 1.5% हो गई है।
भारतीय टी०वी० चैनलो पर एंकर और वक्ता पश्चिमी पाकिस्तान की हिंदू आबादी कभी 20% तो कभी 25% बताते है, 4 मार्च 2020 को मैं एक टी०वी० चैनल पर परिचर्चा मे हिस्सा ले रहा था, तो एक अधिवक्ता बोले कि पश्चिमी पाकिस्तान मे हिंदुओ की आबादी 30% थी, मैने एंकर और वक्ताओ को पूछा कि आपके इन पास आंकड़ो का कोई साक्ष्य है? अगर नही है, तो आप झूठे आंकड़े देकर जनता को गुमराह क्यो कर रहे हो? रंगे हाथो पकड़े जाने के बावजूद इन झूठो के ऊपर कोई असर नही होता है, क्योकि इन फांसीवादियो का उद्देश्य दुष्प्रचार करके भारत मे मनुवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना है।
भारत मे फासीवाद का प्रचार करने मे इन टी०वी०चैनलो का बहुत अधिक योगदान है, टी०वी० चैनल पर परिचर्चा (डिबेट) मे एक मुसलमान को बिठाकर उसे इस तरह अपमानित किया जाता है, जैसे वह कोई अपराधी “पुलिस टॉर्चर रूम” या “न्यायालय” मे अपना अपराध स्वीकार करवाने के लिये लाया गया हो।
मुसलमान कट्टरपंथी है! मुसलमान हिंसक है! मुसलमान अपराधिक प्रवृत्ति के है! मुसलमान पाकिस्तानी एजेंट है! मुसलमान अलगाववादी है! मुसलमान आतंकवादी है! मुसलमान देशद्रोही है!
देश की हर समस्या का कारण और जिम्मेदार बताते हुये मुसलमानो के खिलाफ इस तरह दुष्प्रचार किया जाता है, कि जिस तरह यूरोप विशेषकर हिटलर की नाज़ी जर्मनी मे यहूदियो के खिलाफ दुष्प्रचार किया जाता था।
पहले इन टी०वी० चैनलो के द्वारा बहुसंख्यक वर्ग के युवाओ की माइंड प्रोग्रामिंग की जाती है, फिर सोशल मीडिया पर फर्जीवाड़ा करके “नफरत की खेती” की जाती है, ताकि बहुसंख्यक वर्ग के युवाओ को हिंसा के लिये उकसाया जा सके, फिर जिससे किसी विशेष राजनीतिक दल को फायदा मिले।
बौद्धिक कुटिलता के चलते मीडिया यह नही बताना चाहती है, कि दंगे के दौरान मरने वालो मे कितने प्रतिशत मुसलमान है? क्योकि वह जानते है कि मरने वालो मे औसतन 95% अल्पसंख्यक ही होते है।
दंगे मे बलात्कार पीड़ित लगभग सभी महिलाये अल्पसंख्यक ही होती है, दुकान और मकान भी औसतन 90% अल्पसंख्यको के ही तोड़े और जलाये जाते है, पुलिस फायरिंग मे मरने वाले भी औसतन 80% अल्पसंख्यक ही होते है, फिर भी 75% अभियुक्त अल्पसंख्यक ही बनाये जाते है।
हिंदू आतंकवादियो और दंगाईयो को हमेशा “उग्र-भीड़” बताकर बचाने की कोशिश की जाती है, जबकि अल्पसंख्यको को चिन्हित करके सजा देने का प्रयास किया जाता है, जब असली अपराधी नही मिलते है, तो बेगुनाह अल्पसंख्यको को फंसाकर अपराधी बनाया जाता है, ताकि बहुसंख्यको को खुश किया जा सके और सरकार पर हिन्दूओ का भरोसा बना रहे।
क्यो आठ दशक से भारत सरकार “भीड़” को रोकने मे नाकामयाब रही है? दिल्ली मे तो सी०सी०टी०वी० कैमरो की भरमार है और पुलिस के पास ड्रोन कैमरे भी मौजूद है, तो फिर भीड़ मे मौजूद हिंदू दंगाईयो की पहचान क्यो नही होती है और यह अभी तक अज्ञात क्यो है? पुलिस के पास मुखबिर होते है और गृह मंत्रालय के पास तो इंटेलिजेंस ब्यूरो जैसी संस्था मौजूद है, फिर यह हिंदू अपराधी और दंगाई कैसे नही पहचाने जाते है?
जवाब दुनिया जाती है, कि हिंदू अपराधियो को बचाने के लिये उन्हे “अज्ञात भीड़” का नाम दे दिया जाता है। 1969 के अहमदाबाद दंगे से लेकर दिल्ली के दंगे तक लगभग 50,000 मुसलमानो, 3000 सिक्खो और सैकड़ो इसाईयो (जिसमे ऑस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उसके दो बेटे भी सम्मिलित है) को घायब या कत्ल कर दिया गया है, किंतु आज तक एक हिंदू हत्यारे को दंगे के आरोप मे फांसी नही दी गई है।
जब मुसलमानो, सिक्खो और इसाईयो को कत्ल करने वाले हत्यारो को सिर्फ हिंदू होने की वजह से फांसी नही दी जायेगी, क्यो तब वह दंगा करने से पीछे हटेगे? क्यो फिर हिंदू दंगाई सरकार, प्रशासन और न्यायालय से डरेगे? इसीलिये भारत मे हमेशा संप्रदायिक दंगे होते रहते है और आगे भी होते रहेगे।
अगर भारतीय पुलिस-सेना भीड़ को रोकने मे सक्षम नही है। तो संयुक्त राष्ट्र से दखल की मांग क्यो नही करनी चाहिए? अगर नेल्ली जैसे नरसंहार, हाशिमपुरा-मलयाना जैसे सुनियोजित हत्याकांड और कुनान-पोषपारा जैसे बलात्कार कांड के अपराधी हिंदुस्तानी अदालत से बच जाते है, तो अंतरराष्ट्रीय अदालत मे मुकदमा क्यो नही दर्ज करवाना चाहिए?
पश्चिमी जगत मे फासीवाद एक घृणित अपराध माना जाता है, तो हमे मानवाधिकार और समाजसेवी संस्थाओ के माध्यम से फासीवाद के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्यो नही उठाना चाहिए? ना तो कोई मुसलमान नेता और बुद्धिजीवी विदेशी एजेंट का इल्जाम लगने या देशद्रोह के मुकदमे में फंसाए जाने के डर से यह प्रश्न उठाता है, ना ही कोई धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाला हिंदू नेता वोट बैंक की राजनीति के चलते यह प्रश्न उठाता है।
नेता हमेशा दंगो के ऊपर दलगत राजनीति करते है और फिर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है, बीजेपी वाले कहते है कि कांग्रेसियो ने 1984 मे हज़ारो सिक्खो का कत्ल किया, तो कांग्रेसी कहते है कि भाजपाईयो ने गुजरात मे हजारो मुसलमानो को कत्ल किया, फिर टी०वी० पर भी यही नौटंकी होती है।
हर दंगे के बाद अस्थाई कैंप लगाये जाते है, फिर दंगा पीड़ित विस्थापितो को बसाने के नाम पर धार्मिक और समाजसेवी संस्थाएं जनता से चंदा उगाही करती है, कागज पर योजनाए आती है और मीडिया पर बयानबाजी होती है, किंतु पीड़ितो की स्थिति मे सुधार नही होता है और वह अपनो को खोने के साथ-साथ आर्थिक रूप से पच्चीस साल पीछे हो जाते है।
फासीवादियो द्वारा कई दशक से मुसलमानो को हिंदुओ के दुकान और मकान किराए पर नही दिये जाने के लिये दुष्प्रचार किया जाता रहा था,
प्राइवेट नौकरी भी नही देने के लिये गुपचुप मुहिम चलाई जाती रही है, अब तो मुसलमान मजदूरो को भी काम ना देने के लिये पर्दे के पीछे से साजिश रची जा रही है।
राजनैतिक महत्वाकांक्षा के चलते ब्राह्मणवादी (फासीवादी) मुसलमानो को चैन से रहने नही देगे, क्योकि इनके सत्ता हासिल करने का रास्ता मुसलमानो की लाशो से ही बनता है, इसलिए नित नई-नई झूठी कहानियां गढ़ के मुसलमानो पर इल्ज़ाम लगाकर आरोप-प्रत्यारोप की बहस चलाते है। मुसलमान यह समझते है कि नरेंद्र मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वजह से वातावरण दूषित हो रहा है, जबकि असली समस्या हिंदू समाज मे बढ़ता हुआ फासीवाद है, जिसका शिकार आगे चलकर इसाई, सिक्ख और बौद्ध भी होगे।
मै फासीवाद को जिम्मेदार इसलिये मानता हूं, क्योकि यह बहुसंख्यको मे बौद्धिक कुटिलता पैदा करती है, जिससे वह नाज़ियो की तरह झूठ बोलते और बर्ताव करते है। भारतीय मीडिया मे ब्राह्मण और वैश्य जाति का वर्चस्व है, अधिकांशत: यह मनुवादी (फासीवादी) विचारधारा के प्रचारक है, इसलिये भारतीय मीडिया फासीवादी दुष्प्रचार का केंद्र बन गया है।
गुजरात मे 2012 मे 57 दंगे और 2013 मे 68 दंगे हुये थे, किंतु 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले टी०वी० चैनल यह बताते रहे, कि गुजरात मे पिछले एक दशक से कोई दंगा नही हुआ है। मीडिया ने “गुजरात मॉडल” के नाम पर झूठे तथ्यो और आंकड़ो के आधार पर भारतीय मतदाताओ को प्रभावित करके मोदी लहर को पैदा किया था, क्योकि फांसीवादियो का विश्वास है कि “एक झूठ को सौ बार बोला जाए, तो वह भी सत्य हो जाता है!”
6 अप्रैल 2006 मे महाराष्ट्र के नांदेड़ मे एक बम बनाने की दुर्घटना मे “बजरंग” दल के कार्यकर्ता “नरेश कोंडवार” और “हिमांशु पानसे” मारे गये थे। 24 अगस्त 2008 को कानपुर मे “बजरंग दल” के कार्यकर्ता 25 वर्षीय “राजीव मिश्रा” और 31 वर्षीय “भूपेंद्र सिंह चोपड़ा” बम बनाते हुये मारे गये थे। 16 अक्टूबर 2009 को “सनातन संस्था” के “मालगोंडा पाटिल” और “योगेश नाइक” गोवा मे बम ले जाते हुए मारे गये थे।
इतने कम वर्षो मे भगवा आतंकवादी तीन घटनाओ मे बम इस्तेमाल करने से पहले ही उस बम के विस्फोट से मारे गये थे, चूँकि आतंकवादियो का आधुनिक बम बनाते समय मारे जाने का अंतरराष्ट्रीय औसत एक प्रतिशत से भी कम है, इसलिये यह प्रश्न स्वाभाविक है, कि शायद यह आतंकवादी लगभग दो सौ सत्तानवे (297) वारदाते करने मे सफल भी हो गये हो?
इनका नेटवर्क कितना बड़ा होगा? नेटवर्क के तार किन-किन राजनेताओ से जुड़े होगे? क्योकि बिना राजनैतिक प्रोत्साहन से इतना बड़ा जोखिम लेना संभव नही है। इन भगवा आतंकवादियो को किन-किन बाहरी शक्तियो का समर्थन प्राप्त है? क्योकि विदेशी सहायता के बिना इतना बड़ा नेटवर्क संभव नही है।
इस नेटवर्क का पता लगाने और भंडाफोड़ करने के बजाय, उल्टे तफ्तीश कर रहे अधिकारियो के विरुद्ध ही कार्रवाई शुरू हो गई और अधिकतर आरोपी अदालत से बरी हो चुके है, बाकी भी जल्द छूट जायेगे या नाम मात्र की सजाएं होगी। मोटरसाइकिल, फोन रिकॉर्ड, मीटिंग के गवाह और कई सुबूत होने के बावजूद प्रज्ञा ठाकुर (सिंह साहब) फांसी के फंदे पर चढ़ने के बजाय संसद की सम्मानित सदस्य बन गई और भविष्य मे मंत्री भी बन जायेगी, अगर यह सबूत किसी मुसलमान के विरुद्ध होते तो उसको अब तक अफजल गुरु की तरह फांसी हो चुकी होती।
भारत सरकार यह मानने को तैयार ही नही है, कि “हिंदू आतंकवादी होता है”, तो स्वाभाविक है, कि आतंकवाद के नाम पर की जाने वाली कार्यवाही मे सिर्फ अल्पसंख्यक समुदायो को ही निशाना बनाया जाता है और भविष्य मे भी इसी प्रक्रिया को दोहराया जायेगा।
अब मीडिया विशेषकर टी०वी० चैनलो की जिम्मेदारी थी, कि वह भगवा आतंकवादियो को खोज-खोजकर उनका पर्दाफाश करते, किंतु यह फासीवादी मीडिया केरल के कन्नूर मे पुलिस पिकेट पर बम फेकने वाले “के० प्रबेश” (K। Prabesh) को “पेशेवर अपराधी” बताकर और मंगलौर हवाई अड्डा को बम से उड़ाने की कोशिश करने वाले “आदित्य राव” (Aditya Rao) को “पागल” बनाकर उल्टे भगवा आतंकवाद पर ही पर्दा डालने की कोशिश करता रहा है।
जबकि यही टी०वी० चैनल साधारण मुसलमान अपराधी को भी खूंखार आतंकवादी साबित करने का प्रयास करते है। फासीवादी हत्यारे “अज्ञात भीड़” की आड़ मे कार्यवाही करते है और भगवा आतंकवादी “मुसलमानो के भेष” मे वारदात को अंजाम देते है, यह अब काफी पुराना पैटर्न बन चुका है, इसके बावजूद भी अगर मुसलमान इसका समाधान खोजने मे असफल रहे है, तो यह मुसलमानो के नेतृत्व की कमी है और फासीवादी इस कमी का फायदा आगे भी उठाएंगे।
सबसे पहला इलाज भीड़ का करना होगा, अगर भारत सरकार इस फासीवादी भीड़ को रोकने के लिये “दंगा विरोधी कानून” नही लाती है, तो इस फासीवादी भीड़ की शिकायत संयुक्त राष्ट्र मे करनी चाहिए। अगर हिंदू आतंकवादी लचर प्रशासन का फायदा उठाकर बच जाते है, तो सिविल सोसाइटी और मानवाधिकार संगठनो की सहायता से “भगवा आतंकवाद” का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाना चाहिए।
युवाओ मे सोशल मीडिया का बहुत प्रचलन है। इसके माध्यम से आपस मे जुड़ने (Social Networking) के लिये मुसलमानो को प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि वह इस्लाम से संबंधित विषयो को आपस मे चर्चा कर सके और “सिविल सोसाइटी” की अवधारणा को विकसित करके आपस मे सहयोग कर सके, इसलिये यूट्यूब चैनल और वेब पोर्टल बनाकर अपनी मीडिया विकसित करनी चाहिये।
फासीवादी सोशल मीडिया पर गाली-गलौज और फर्ज़ी खाते बनाकर मुसलमानो को भड़काने और बदनाम करने का प्रयास करते है, इसलिये मुस्लिम वकीलो का संगठन बनाना चाहिए जो इन शरारती तत्वो के विरूद्ध अदालत के माध्यम से कार्यवाही कर सके,
क्योकि पुलिस इन मामलो को नजरअंदाज करती है।
अगर हम भारतीय मीडिया मे मौजूद फासीवादी तत्वो के विरुद्ध संघर्ष करने मे असफल रहे, तो भारत मे जर्मन नाजियो के इतिहास को दोहराया जायेगा और आने वाली पीढ़ियां हमारे निकम्मेपन और मूर्खता को कभी माफ नही करेगी।
मशहूर कहावत है, कि “अंत भला तो सब भला”,
किंतु मुसलमानो ने अगर 1946 की तरह “अपना-अपना राग अलापना” (विचारधारा) और “अपनी खिचड़ी अलग पकाना” (राजनैतिक दल) जारी रखा तो “अपने पांव पर आप कुल्हाड़ी मारना” वाली कहावत की पुनरावृति होगी।
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मेरा प्रयास “भैस के आगे बीन बजाना” के बराबर होगा क्योकि “अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता” है, इसलिये “सिविल सोसायटी” विकसित करने की बहुत जरूरत है, वरना मुसलमानो के लिये “अपने पांव पर आप कुल्हाड़ी मारना” वाली कहावत सही साबित होगी।
चुनाव जीतने मात्र से फासीवादी खुश नही है, उन्हे पता है कि “अभी दिल्ली दूर है” क्योकि “कही पर निगाहे और कही पर निशाना है”, सी०ए०ए० (CAA) तो बहाना है, असली निशाना तो मनुस्मृति आधारित नया सविधान लाना है।