राहत इंदौरी ने ज़िंदगी और मौत से यारी बराबर निभाई। कोरोना पॉज़िटिव पाए जाने के बाद 70 बरस के राहत साहब का दिल का दौरा पड़ने से निधन।
ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था।
यह लिखने वाले राहत इंदौरी अब हमारे बीच नहीं हैं। वह ज़िंदगी और हमलोग में इतने शामिल शख़्स थे कि जिसने भी यह ख़बर सुनी, उसे एक दफ़ा यक़ीन नहीं हुआ। लेकिन शायर कह गया है :
एक ही नदी के हैं ये,दो किनारे दोस्तो
दोस्ताना ज़िंदगी से, मौत से यारी रखो।
राहत इंदौरी ने ज़िंदगी और मौत से यारी बराबर निभाई। कोरोना पॉज़िटिव पाए जाने के बाद 70 बरस के राहत साहब को जब अस्पताल में भर्ती कराया गया, तो उन्होंने लिखा, ‘दुआ कीजिए, जल्द-से-जल्द इस बीमारी को हरा दूं।’
उनके चाहने वाले उन्हीं के शब्द लेकर कह भी रहे थे, ‘बुलाती है, मगर जाने का नहीं।’ लेकिन एक के बाद एक दिल के दौरों के बाद राहत साहब को मौत अपने साथ ले गई।
हालांकि मेरा ख़याल है, राहत साहब ने जन्नत पहुंचकर अपने ख़ास अंदाज़ में ज़रूर पूछा होगा :
गुलाब, ख़्वाब, दवा, ज़हर, जाम क्या क्या है
मैं आ गया हूं, बता इंतज़ाम क्या क्या है।
जिस क्लासिकी की फ़िक्र में दूसरे कवि दुबले हुए जाते हैं, राहत साहब ने उससे बेपरवाह रहकर गली-नुक्कड़ की ज़बान को अपनी शायरी में जगह दी। ‘बुलाती है, मगर जाने का नहीं’ जैसे वाक्य से कविता शुरू करके राहत ही यह लिख सकते थे, ‘वो गर्दन नापता है, नाप ले/ मगर ज़ालिम से डर जाने का नहीं।’
कविता से लेकर मीम की दुनिया तक उनके सिवा कौन-सा कवि छाया हुआ है? दरअसल कोई नहीं। यह मौजूदगी इतनी दमदार है, जिससे दूसरे शायरों को दहशत होती है। वह जिस बारे में सोच नहीं पाते, राहत इंदौरी वहां जाकर कविता और गीत मुमकिन कर सकते थे।
लेकिन ऐसा नहीं है कि वह केवल मजाहिया या पॉप्युलिस्ट मिज़ाज के ही पैरोकार थे। उनके सरोकार बड़े थे। उन्होंने कविता में अपने वतन, इसकी मिट्टी, इसके लोगों की फ़िक्र की। और कविता के बाहर इसे लेकर वह बहुत मुखर थे।
अपने नाम के पीछे वह तख़ल्लुस भले ‘इंदौरी’ लगाते थे, लेकिन उनकी चिंता के भूगोल में सारा हिंदुस्तान समाया हुआ था। और इस हिंदुस्तान के बारे में जब-जब किसी ने, ‘मेरा है, तेरा नहीं’ जैसी फ़िरक़ापरस्त बातें कीं, मंच से राहत साहब की बुलंद आवाज़ उठी :
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।
बॉलिवुड से लेकर कविता के जनप्रिय मंच तक अपनी धाक जमाने वाले राहत साहब को यह बात सालती थी कि फ़िल्मी गीतों में अब शब्दों की जगह नहीं रह गई है।
उन्होंने सर, इश्क़, मर्डर, मुन्नाभाई एमबीबीएस जैसी बेहद कामयाब फ़िल्मों में गीत लिखने के बावजूद अपना घर उसी कविता को माना, जिसे मंच पर अपनी ख़ास अदा में वह सुनाते थे।
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अब जब मंच का वह हिस्सा सूना हो गया है, उनकी कविता पढ़ने की जगह को सबसे ज़्यादा रोशन उनके शब्द करेंगे :
नाम सुनता है तुम्हारा तो उछल पड़ता है
उसकी याद आई है सांसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है।
और शायर की आख़िरी ख़्वाहिश भी सुन लीजिए :
मैं जब मर जाऊं, तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पे, हिंदुस्तान लिख देना।
करामाती नेता राष्ट्र गढ़ने का दावा करते हैं। कवि ऐसा दावा करते हुए लजाता है। राहत साहब में अपने मुल्क को महबूब की तरह मोहब्बत करने में कोई हया नहीं थी।
और ऐसा वह इसके सियासतदां के साथ बहुत क्रिटिकली इंगेज होकर भी करते थे। इसीलिए उन जैसे पोएट के जाने पर अवाम को लगता है, उनके बीच का कोई गया है।