जैसा कि अनुमानित था द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति चुनाव स्पष्ट बहुमत के साथ जीत लिया है। वे देश की 15वीं राष्ट्रपति होंगी और दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी। इससे पहले यूपीए शासनकाल में प्रतिभा सिंह पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनी थीं। देश में अब तक बहुसंख्यक समुदाय के राष्ट्रपतियों के अलावा सिख, मुस्लिम व दलित राष्ट्रपति भी बन चुके हैं, अब द्रौपदी मुर्मू ने इसमें आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व भी जोड़ दिया है। इससे पहले पी.ए.संगमा को 2012 में आदिवासी चेहरे के कारण राष्ट्रपति पद के लिए तत्कालीन एनडीए ने खड़ा किया था, लेकिन प्रणव मुखर्जी के सामने उन्हें मात मिली थी। बहरहाल, द्रौपदी मुर्मू ने पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनकर इतिहास तो रच ही दिया है। उनका देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचना इस बात का परिचायक है कि हमारा संविधान लोकतंत्र की हर कसौटी पर खरा उतरता है। निश्चित ही इसका श्रेय संविधान निर्माताओं और आजादी के बाद देश किस राह पर चलेगा, इसका खाका खींचने वाली तत्कालीन नेहरू सरकार को जाता है।
भाजपा के नजरिए से द्रौपदी मुर्मू की जीत, उसके चुनावी तीर का निशाने पर लगना है। चुनाव दर चुनाव जीतती आ रही भाजपा ने राष्ट्रपति चुनाव को भी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था। इस चुनाव के लिए उसने अपने पत्ते तब तक नहीं खोले, जब तक विपक्ष की चाल सामने नहीं आ गई। विपक्ष ने यशवंत सिन्हा का नाम आगे करने में जल्दबाजी दिखा दी, लेकिन भाजपा ने सारे समीकरणों को समझ कर फिर एक ऐसा नाम सामने किया, जिसका विरोध करना भाजपा के विरोधियों के लिए भी आसान नहीं था। चुनाव में रणनीति बनाने के लिए कितने धैर्य, सूझ-बूझ और दूरदृष्टि की जरूरत होती है, ये बात जब तक विपक्ष समझेगा नहीं, तब तक भाजपा को हराना उसके लिए आसान नहीं होगा।
द्रौपदी मुर्मू का जीवन संघर्षों भरा रहा है और राजनैतिक करियर बेदाग। ये दोनों बातें उन्हें देश के सर्वोच्च पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार बना रही थीं। भाजपा ने इन्हीं दोनों बातों को बखूबी भुनाया। देश में बहुत से लोग ऐसी ही योग्यता रखते हैं, लेकिन द्रौपदी मुर्मू से भाजपा एक साथ कई निशाने साध सकती है। उनकी पहली योग्यता तो यही है कि वे आदिवासी महिला हैं और इस तरह भाजपा आदिवासी और महिला हाशिए के दोनों समुदायों को लुभाने में कामयाब रही। ओडिशा सुश्री मुर्मू का गृहराज्य और कर्मस्थली है, यहां बीजू जनता दल के आगे भाजपा बार-बार कमज़ोर साबित हो जाती है। लेकिन अब भाजपा इस प्रदेश को भी अपने खाते में लेने की कोशिश कर सकती है। देश में आगामी विधानसभा चुनावों में गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश ऐसे तमाम आदिवासी बहुल राज्यों में भाजपा मुर्मू कार्ड को भुनाएगी।
द्रौपदी मुर्मू को झामुमो, शिवसेना जैसे कांग्रेस के सहयोगियों ने समर्थन दिया, टीएमसी ने उनका साथ तो नहीं दिया लेकिन ममता बनर्जी ने उनकी उम्मीदवारी को सही बताया था। कुल मिलाकर सुश्री मुर्मू के समर्थन में व्यापक माहौल पहले से ही तैयार था। जो लोग उनका समर्थन नहीं कर रहे थे, वे खुलकर विरोध भी नहीं कर रहे थे। उनकी जगह भाजपा का विरोध हो रहा था। जैसे तेजस्वी यादव ने सवाल किया था कि हमें मूर्ति चाहिए क्या या द्रौपदी मुर्मू के प्रतिद्वंद्वी यशवंत सिन्हा ने सवाल उठाया कि देश के अहम मुद्दों पर उनकी राय क्या है, वे प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं करती, क्या वे भी पांच साल चुप रहेंगी। दरअसल ये सारे सवाल द्रौपदी मुर्मू के बहाने भाजपा से ही किए गए हैं। क्योंकि भाजपा की कार्यशैली ऐसी ही बन चुकी है जहां शीर्ष नेतृत्व की मर्जी से सारे फ़ैसले लिए जाते हैं। अब राष्ट्रपति बनने के बाद द्रौपदी मुर्मू की योग्यता की असली परीक्षा होगी कि वे देश की प्रमुख होने के नाते सरकार के गलत फ़ैसलों, संवैधानिक उसूलों के साथ हो रही छेड़छाड़ या लोकतंत्र के गिरते स्तर पर केंद्र सरकार के खिलाफ कुछ कहेंगी या चुपचाप सब कुछ यथावत चलने देंगी।
द्रौपदी मुर्मू जिस आदिवासी इलाके से आती हैं, वहां उन्होंने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर सम्मानजनक जीवन के लिए जरूरी संसाधनों तक हर मुद्दे पर आम लोगों को संघर्ष करते देखा है। आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और समाज में हर तरह से कमजोर वर्ग के शोषण की भी वे साक्षी रही हैं। बतौर राष्ट्रपति वे हाशिए के लोगों के उत्थान के लिए किस तरह के कदम उठा सकती हैं, और पूंजीवादी ताकतों से इनकी रक्षा में अपना क्या योगदान दे सकती हैं, ये देखने वाली बात होगी। उनके राजनैतिक करियर को गढ़ने में भाजपा की अहम भूमिका रही है, लेकिन देश की प्रथम नागरिक बनने के बाद क्या वे दलीय निरपेक्षता के साथ काम करते हुए नीर-क्षीर विवेक का परिचय देंगी, ये भी गौरतलब होगा।
द्रौपदी मुर्मू को यशवंत सिन्हा ने चुनौती दी और आखिर तक कड़ी टक्कर देने की कोशिश उनकी रही। हालांकि वे भी जानते थे कि वे हारी हुई बाज़ी पर दांव लगा रहे हैं। उन्होंने गैरभाजपाई दलों के साथ-साथ अपने पुराने दल भाजपा के सांसदों और विधायकों से भी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने की अपील की थी। वैसे श्री सिन्हा ये बात जानते ही होंगे कि मौजूदा राजनीति में अंतरात्मा की आवाज़ जैसी बातों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। जब निर्वाचित सरकारें पैसों के दम पर गिराई जा रही हैं, तब नैतिकता की उम्मीदें व्यर्थ हैं। और अब भाजपा का चाल, चरित्र व चेहरा बदल चुका है, इसलिए उनकी अपील का कोई खास असर नहीं हुआ। यशवंत सिन्हा के पास खोने के लिए कुछ नहीं था, इसलिए उन्होंने एक बड़ा दांव खेलने का जोखिम उठा लिया। लेकिन विपक्ष के लिए यह विचारणीय है कि एक पुराने भाजपा नेता को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने की नौबत उसके लिए क्यों आई।