बीसवीं सदी में दुनिया में बहुत सी महिला प्रधानमंत्री हुई हैं। श्रीलंका की सिरीमाओ भंडारानायके, इसराइल की गोल्डा मेयर, भारत की इंदिरा गांधी और ब्रिटेन की मार्ग्रेट थैचर। बेनज़ीर भुट्टो इन सबसे इन मायनों में अलग थीं क्योंकि वो युवा होने के साथ-साथ आकर्षक और पढ़ी-लिखी भी थीं और किसी भी मुस्लिम देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं।
बेनज़ीर भुट्टो का शायद सबसे दिलचस्प वर्णन मशहूर इतिहासकार विलियम डैलरिंपल ने बेनज़ीर की मौत के बाद गार्डियन अख़बार में छपे एक लेख ‘पाकिस्तान्स फ़्लॉड एंड फ़्यूडल प्रिंसेज़’ में किया था।
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डैलरिंपल ने लिखा था, “ऑक्सफ़र्ड में उनको जानने वाले अंग्रेज़ दोस्त उन्हें एक चंचल लड़की के रूप में याद करते हैं जो अपनी पीली एमजी स्पोर्ट्स कार ख़ुद चलाकर लेक्चर अटेंड करने आया करती थीं।
जब वो राजनीति में आईं तो वो लगातार 12 घंटे तक कैबिनेट मीटिंग लेने और सिर्फ़ चार घंटे की नींद लेकर ज़िंदा रहने के लिए याद की गईं। ये वही बेनज़ीर थीं जिन्होंने पाकिस्तान लौटने पर अपने ऊपर हुए जानलेवा हमले के बाद भी अपना चुनाव प्रचार जारी रखा था।”
भुट्टो बेनज़ीर को लाना चाहते थे राजनीति में
डैलरिंपल बेनज़ीर को अपने पिता की तरह अक्खड़ भी बताते हैं। जिस तरह से वो चला करती थीं और राजसी ढंग से बात करते हुए ‘हम’ शब्द का इस्तेमाल करती थीं, उससे सामंतवाद की बू आती थी। लेकिन जिन लोगों ने उनके साथ काम किया है, उनमें से एक हैं, उनके पहले कार्यकाल में उनके सुरक्षा सलाहकार रहे इक़बाल अखुंड।
उनका मानना है कि “बेनज़ीर की शख़्सियत की सबसे ख़ास बात है उनका साहसी और जुझारू होना। उनका ये साहस शारीरिक भी है और नैतिक भी। बेनज़ीर का सबसे अच्छा रूप तभी सामने आता है जब वो संघर्ष कर रही हों।”
बेनज़ीर को कई नामों से पुकारा जाता था। कुछ लोगों के लिए वो बीबी थीं तो कुछ के लिए पिंकी, मिस साहिबा और मोहतरमा। बेनज़ीर पाकिस्तान विदेश सेवा में जाना चाहती थीं लेकिन उनके पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो चाहते थे कि वो राजनीति में आएं।
बेनज़ीर अपनी आत्मकथा ‘द डॉटर ऑफ़ द ईस्ट’ में लिखती हैं, “जब मैं छह साल की थी तब से वो मुझे नेपोलियन की कहानियाँ सुनाया करते थे। आठ साल की उम्र में उन्होंने मुझे चाऊ एन लाई से मिलवाया था। नवंबर 1963 में जब मैं उनके साथ ट्रेन में सफ़र कर रही थी उन्होंने मुझे जगाकर कहा था, ये सोने का समय नहीं है। बहुत बड़ी ट्रेजेडी हो गई है।
अमरीका के युवा राष्ट्रपति कैनेडी को गोली मार दी गई है। मैं उनके बगल में बैठी थी, जब वो कैनेडी के बारे में सारी ताज़ा ख़बरें ले रहे थे। वो व्हॉइट हाउस में कैनेडी से कई बार मिल चुके थे और उन्हें बहुत मानते थे।”
भुट्टो से कूटनीति का पाठ
1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जब भुट्टो संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का पक्ष रखने न्यूयॉर्क गए थे तो बेनज़ीर भी उनके साथ गई थीं। तब भुट्टो ने उन्हें कूटनीति का ऐसा पाठ पढ़ाया जिसे वो ज़िंदगी भर नहीं भूली।
बेनज़ीर अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, “हम पियरे होटल में ठहरे हुए थे। मेरे पिता ने मुझसे कहा जब मैं किसी से बात कर रहा हूँ तो तुरंत कमरे में आकर मुझे रोक दो। अगर सोवियत मेरे पास बैठे हों तो कहो चीनी फ़ोन लाइन पर हैं।
अगर मैं अमरीकियों से बात कर रहा हूँ तो कहो कि रूसी और भारतीय आपसे बात करना चाहते हैं। कूटनीति का सबसे बड़ा पाठ है कि हमेशा दूसरे के मन में संशय पैदा करो और कभी भी अपने सारे पत्ते मेज़ पर न रखो।”
बेनज़ीर की करण थापर से दोस्ती
भारत के मशहूर पत्रकार करण थापर बेनज़ीर भुट्टो को उन दिनों से जानते थे जब वो कैंब्रिज विश्वविद्यालय के उपाध्यक्ष और बेनज़ीर ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय की कोषाध्यक्ष हुआ करती थीं।
एक बार करण थापर ने मुझे बताया था, “एक बार बेनज़ीर कैंब्रिज आई थीं और उन्होंने इस विषय पर वाद-विवाद कराने का प्रस्ताव रखा था कि शादी से पहले सेक्स करने में कोई बुराई नहीं है। किसी भी महिला के लिए जो पाकिस्तान जैसे देश की राजनीति में कुछ कर गुज़रने की मंशा रखती हो, ये एक बोल्ड और बारीक विषय था।”
करण थापर वो समय अभी तक भूले नहीं हैं जब उन्होंने उस बैठक में बेनज़ीर की तफ़रीह लेने के इरादे से सबके सामने उनसे पूछा था, “मैडम जो आप कह रही हैं, क्या आप उसका अपनी निजी ज़िंदगी में पालन करने की हिम्मत रखती हैं?”
“ये सुनते ही वहाँ मौजूद लोगों ने ज़ोर का ठहाका लगाया और तालियाँ बजानी शुरू कर दीं। बेनज़ीर ने तालियों के रुकने का इंतज़ार किया। अपने चेहरे से चश्मा उतारा और मेरी आँखों में आँखें डालकर बोलीं, ज़रूर, लेकिन आपके साथ नहीं।”
चुंबन के लिए किया मना
इसके बाद करण थापर पत्रकार बन गए। बेनज़ीर पाकिस्तान से निकाले जाने के बाद लंदन में ही रहने लगीं। एक दिन करण थापर और उनकी पत्नी निशा ने उन्हें अपने यहाँ रात के खाने पर बुलाया। बातें करते-करते भोर हो आई। बेनज़ीर ने कहा हम लोग इतनी वाइन पी चुके हैं कि तुम्हारा अपनी कार से मुझे मेरे घर छोड़ना सुरक्षित नहीं होगा।
करण ने याद किया, “बेनज़ीर बोली कि अब वो कैब से ही अपने घर जाएंगी। क्योंकि अगर कोई पुलिसवाला हमें नशे की हालत में पकड़ लेता तो अगले दिन समाचारपत्रों में अच्छी हेडलाइन बन जाती। जब कैब ड्राइवर हमारे घर पहुंचा तो वो भारतीय उप महाद्वीप का ही निकला।
बेनज़ीर ने विदा लेते हुए मेरी पत्नी के गाल तो चूमे, लेकिन मेरी तरफ़ उन्होंने अपने हाथ बढ़ा दिए। मुझे ये थोड़ा अजीब सा लगा क्योंकि इससे पहले बेनज़ीर चलते समय हमेशा अपने गाल मेरी तरफ़ बढ़ा देती थीं। उन्होंने फुसफुसा कर कहा कि ये कैब ड्राइवर अपने इलाक़े का है। उसको ये नहीं दिखना चाहिए कि तुम मेरा चुंबन ले रहे हो। मैं एक मुस्लिम देश की अविवाहित महिला हूँ।”
बेनज़ीर की गर्भावस्था पर ज़िया की नज़र
जब बेनज़ीर 1988 का चुनाव लड़ रही थीं तो वो गर्भवती थीं। जनरल ज़िया उल हक़ के प्रशासन ने जानबूझ कर इसका फ़ायदा उठाने के लिए ऐसी चुनाव तिथि घोषित की कि बेनज़ीर अधिक चुनाव प्रचार न कर पाएं।
बेनज़ीर की जीवनीकार अन्ना सुवोरोवा अपनी किताब ‘बेनज़ीर भुट्टो अ मल्टीडायमेंशनल पोर्टरेट’ में लिखती हैं, “बेनज़ीर भुट्टो ने बच्चा पैदा होने की तारीख़ गुप्त रखी। हालांकि ज़िया के एजेंटों ने उनका मेडिकल रिकॉर्ड खोजने की पूरी कोशिश की। ये उनका सौभाग्य था कि बिलावल नियत समय से पाँच हफ़्ते पहले पैदा हो गए और बेनज़ीर भुट्टो को चुनाव प्रचार में भाग लेने का मौक़ा मिल गया। ”
सेना ने अटकाए कई रोड़े
राजनीति में बेनज़ीर का रास्ता कभी भी आसान नहीं रहा। क्रिस्टीना लैंब अपनी किताब ‘वेटिंग फ़ॉर अल्लाह: पाकिस्तान्स स्ट्रगल फ़ॉर डेमोक्रेसी’ में लिखती हैं, “जब ज़िया ने चुनाव की घोषणा की तो उस समय आईएसआई के प्रमुख हमीद गुल ने बेनज़ीर और उनकी माँ नुसरत के लिए ‘गैंग्सटर्स इन बैंगिल’ शब्द का प्रयोग किया था।”
“उनके खिलाफ़ दुष्प्रचार की मुहिम में विमान से हज़ारों पर्चे गिराए गए जिसमें बेनज़ीर को पेरिस के एक नाइट क्लब में नाचते हुए दिखाया गया। उनकी माँ नुसरत का राष्ट्रपति गेराल्ड फ़ोर्ड के साथ डांस करते हुए एक चित्र भी उस पैम्फ़्लेट में था।
इसका उद्देश्य था कि पाकिस्तान के लोगों को बताया जाए कि बेटी और माँ दोनों किस हद तक ग़ैर-इस्लामी हो सकते हैं।”जब वो प्रधानमंत्री बन भी गईं तो सेना ने उनके सामने मुश्किलें खड़ी करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी।
मुशाहिद हुसैन और अकमल हुसैन अपनी किताब ‘पाकिस्तान: प्रॉब्लम्स ऑफ़ गवर्नेंस’ में लिखते हैं, “जब बेनज़ीर प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें विदेश और वित्त मंत्री के लिए दो नाम दिए गए, उन्होंने साहबज़ादा याक़ूब ख़ाँ को तो विदेश मंत्री के तौर पर स्वीकार कर लिया लेकिन वित्त मंत्री के तौर पर महबूबुल हक़ के नाम पर इसलिए राज़ी नहीं हुईं क्योंकि वो उनके पिता भुट्टो के विरोधी थे।”
“उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव वीए जाफ़री को जो अर्थशास्त्री भी थे अमरीकी राजदूत रॉबर्ट ओकली ने खाने पर बुलाया। उसी समय उनके पास प्रधानमंत्री कार्यालय से फ़ोन आया कि उन्हें वित्त मंत्रालय में सलाहकार के तौर पर शपथ दिलवाई जानी है।”
“शपथ ग्रहण समारोह के दौरान बेनज़ीर ने सबसे पूछा आप में से जाफ़री साहब कौन हैं? वो उन्हें पहचानती तक नहीं थी। जाफ़री ने खड़े होकर अपना परिचय दिया ताकि कम से कम वो उस शख़्स की शक्ल तो देख लें जिनको उन्होंने अपने आर्थिक सलाहकार के रूप में नामांकित किया है।”
ग़ुलाम इसहाक़ ख़ाँ से छत्तीस का आंकड़ा
प्रधानमंत्री के अपने पहले कार्यकाल के दौरान बेनज़ीर का सेना पर बिल्कुल भी नियंत्रण नहीं था। जब उन्होंने अपने भाई मीर मुर्तज़ा पर आईएसआई की फ़ाइलें देखनी चाहीं तो एजेंसी ने उन्हें दिखाने से इनकार कर दिया।
सेना प्रमुख जनरल असलम बेग उन्हें सैनिक मसलों पर सलाह तो देते थे लेकिन उन्होंने बेनज़ीर के सेना संपर्कों को सिर्फ़ कोर कमांडरों और वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों तक ही संकुचित कर दिया था।
मेरी एन वीवर अपनी किताब ‘पाकिस्तान: इन द शैडो ऑफ़ जिहाद एंड अफ़ग़ानिस्तान’ में लिखती हैं, “शुरू से ही राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ ख़ाँ, सेना प्रमुख असलम बेग और पंजाब के मुख्यमंत्री नवाज़ शरीफ़ का रवैया बेनज़ीर के प्रति असहयोगपूर्ण था। इसहाक़ ख़ाँ और बेनज़ीर के संबंध बहुत अटपटे ढंग से शुरू हुए थे।”
“उनको शपथ दिलाने के बाद उन्होंने बेनज़ीर से ये कहकर इजाज़त माँगी कि उन्हें नमाज़ पढ़नी है। बेनज़ीर ने पूछा क्या वो भी उनके साथ नमाज़ पढ़ सकती हैं? इसहाक़ ख़ाँ ने जवाब दिया मस्जिद सिर्फ़ मर्दों के लिए हैं। हाँ आप मुझे नमाज़ पढ़ते हुए देख ज़रूर सकती हैं।”
नवाज़ शरीफ़ से कटुता
बेनज़ीर भुट्टो के उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री नवाज़ शरीफ़ से भी रिश्ते बहुत ख़राब थे। पाकिस्तानी राजनयिक सैयदा आबिदा हुसैन अपनी किताब ‘पावर फ़ेल्योर द पॉलिटिकल ओडिसी ऑफ़ अ पाकिस्तानी वुमैन’ में लिखती हैं, “बेनज़ीर नवाज़ शरीफ़ की सरकार को ‘गंजों’ की सरकार कहती थीं।”
“उनकी इस सूची में शामिल थे नवाज़ शरीफ़, उनके भाई शहबाज़, मंत्री सरताज अज़ीज़, मुशाहिद हुसैन, सिद्दीक़ कन्जू, मजीद मलिक, शुजात हुसैन और शेख़ रशीद। बेनज़ीर का कहना था कि ये सभी लोग विग लगाते हैं। जिस तरह से वो ‘गंजे’ शब्द का उच्चारण करती थीं, उससे लोगों के हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाते थे।”
“नवाज़ शरीफ़ के साथ उनके रिश्ते इतने ख़राब हो चले थे कि जब एक बार वो प्रधानमंत्री के तौर पर लाहौर गईं थीं तो नवाज़ शरीफ़ ने पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर हवाई अड्डे जाकर उनकी अगवानी करना भी उचित नहीं समझा था। उन्होंने बेनज़ीर के मीनार-ए-पाकिस्तान पर सभा करने तक की अनुमति नहीं दी थी जबकि वो उस समय पाकिस्तान की प्रधानमंत्री थीं।”
फ़ारूख़ लेघारी से भी अनबन
प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो के दूसरे कार्यकाल में जब उनकी पार्टी के ही फ़ारूख़ लेघारी ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद राष्ट्र को संबोधित करने की इच्छा प्रकट की तो बेनज़ीर ने ऐसा करवाने से साफ़ इनकार कर दिया।
रोआदेद ख़ाँ अपनी किताब ‘पाकिस्तान अ ड्रीम गॉन सार’ में लिखते हैं, “बेनज़ीर का कहना था कि राष्ट्रपति का देश को संबोधित करना ज़रूरी नहीं है। ये सुनते ही सब लोग स्तब्ध रह गए। वहाँ मौजूद हर शख़्स बेनज़ीर के इस रुख़ से बहुत शर्मिंदा हुआ। तभी लोगों को आभास हो गया था कि बेनज़ीर के कार्यकाल पूरा करने के संकेत बहुत कम हैं।”
5 नवंबर, 1996 को फ़ारूख़ लेघारी ने बेनज़ीर भुट्टो को क़रीब-क़रीब उन्हीं आरोपों के तहत बर्ख़ास्त किया था जिन पर ग़ुलाम इसहाक़ ख़ाँ ने छह साल पहले उन्हें पद से हटाया था।
परंपरा और आधुनिकता का सम्मिश्रण
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के स्थाई प्रतिनिधि रहे इक़बाल अखुंड अपनी किताब ‘ट्रायल एंड एरर द एडवेंट एंड एकलिप्स ऑफ़ बेनज़ीर भुट्टो में’ लिखते हैं, “बेनज़ीर टाइम पत्रिका के कवर पर आईं। उनके पिता को ये सौभाग्य कभी नहीं मिला। बेनज़ीर ने कभी भी उर्दू और सिंधी की औपचारिक शिक्षा नहीं ली। हाँ अंग्रेज़ी पर उनकी पकड़ अच्छी थी।
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वो बिना तैयारी के अच्छा भाषण दे सकती थीं, लेकिन जब भी वो कुछ लिखा हुआ पढ़ती थीं, ऐसा लगता था कि कोई स्कूल टीचर प्रौढ़ शिक्षा की क्लास ले रही हो। 1986 में जब वो पाकिस्तान वापस आईं तो उनका हर जगह स्वागत किया गया। पेशावर की एक रैली में भीड़ ने उनका साथ देते हुए नारा लगाया जा, जा ज़िया ! ज़िया जा !”
दुनिया में बहुत कम महिलाएं ऐसी हुई हैं जो उसी सलीके और निपुणता से स्पोर्ट्स कार चला सकती थीं और पाकिस्तान के परंपरागत समाज के सामने चादर भी ओढ़ सकती थीं।
रेहान फ़ज़ल
{साभार बीबीसी }