यह तो पहले से तय था, कि फैसला तो किसी ना किसी एक फरीक (पक्ष) के हक़ मे आयेगा है और बाकी लोगो को सिर्फ सब्र ही करना होगा, फिर भी यह छुपाए नही छुपता है, कि बाबरी मस्जिद केस का फैसला मुसलमानो को प्रताड़ित (दिले-अजारी / दिल दुखाने) करने वाला है।
6 दिसंबर 1992 को हुई बाबरी मस्जिद की शहादत ने मुसलमानो के दिल को तोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया था, मुसलमानो को उम्मीद थी कि कोर्ट का फैसला उनके दिल के टुकड़ो को जोड़ देगा और हिंदुस्तान के सेकुलरिज्म को जिंदा रखेगा, लेकिन आज के फैसले ने साबित कर दिया है कि यह दिल अब कभी दोबारा नही जुड़ पायेगा।
फैसला जमीन के मालिकाना हक का होना था, जिसको साबित करने के लिये सुबूत के तौर पर बहुत से दस्तावेज मुसलमानो के पास थे।
अफसोस!
फैसला भावनाओ के आधार पर (जज़्बात की बुनियाद) दिया गया।
पुरातत्व विभाग (असारे कदीमा) की रिपोर्ट का फैसले मे ज़िक्र एक खतरनाक परंपरा (रिवायत) को पैदा करेगा, क्योकि अब हर विवादास्पद (मुतानाज़ा) इमारत की नींवे खोद कर देखी जायेगी, कि इसके नीचे किसी दूसरी इमारत का ढांचा तो नही है?इसलिये अब वह दिन दूर नही, जब जामा मस्जिद और ताजमहल जैसी इमारतो की नीवे (बुनियादे) जांचने (तहकीक) के लिय पूरे ढांचे को ध्वस्त (मिसमार) कर दिया जायेगा।
अब हर वक्त मुसलमानो को यह डर बना रहेगा, कि कब हमारा घर 33 करोड़ देवी-देवताओ मे से किसी की जन्मभूमि बन जाये या हमारी मस्जिद के नीचे किसी मंदिर का ढांचा निकल आये?
5 एकड़ जमीन के तोहफे पर दिल हंसता भी है और रोता भी है, समझ नही आता है,
कि हमारा पूरा लिबास उतरवाकर, हमे नंगा करने के बाद खैरात मे, जिस्म ढकने के लिये, एक रुमाल का टुकड़ा देने की रिवायत हमारे समाज को कहां ले जायेगी?
क्या कल इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुआ हमारा वोट देने का लोकतांत्रिक अधिकार छीन कर कही हमे चंद लोकसभा और विधानसभा सीटो तक सीमित तो नही कर दिया जायेगा? कि जिस तरह अंग्रेजो के ज़माने मे चुनाव होता था।
क्या कल हमारी बहु-दलीय व्यवस्था को छीनकर अमेरिका जैसी दो-दलीय व्यवस्था तो हमारे मुंह पर नही मार दी जायेगी? कही हमारी फर्स्ट पास्ट द पोस्ट (FPTP) वोटिंग प्रणाली छीनकर अनुपातिक (Proportionate) प्रणाली तो नही पकड़ा दी जायेगी?
कही हमे श्रीलंका के तमिलो की तरह दूसरे दर्जे का नागरिक (शहरी) तो नही बना दिया जायेगा? कही वर्मा के रोहिंग्या जैसा बिना नागरिकता वाला लावारिस तो नही बना दिया जायेगा?
क्योकि अभी भी आसाम मे 19 लाख भारतीय अपने दुर्भाग्य (बदनसीबी) पर रो रहे है, तो पता नही आगे क्या होगा? मशहूर हिंदी के कवि बिहारीलाल ने कहा था
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास, यहि काल।
अली कली मे ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।1।
मोदी सरकार का कोई भरोसा नही होता है, क्योकि उसकी कथनी और करनी मे अंतर होता है। नोटबंदी के दौरान नोट बदलने की तारीख समय से पहले खत्म कर दी थी, 370 पर सरकार पूरी दुनिया को गुमराह करती रही।
जनता को बाबरी मस्जिद कोर्ट केस का फैसला 17 तारीख को आने की उम्मीद थी,
लेकिन एक हफ्ते पहले ही फैसला देकर अदालत ने हैरान कर दिया।
ऐसे हालात मे अब कुछ अंदाजा नही लगाया जा सकता है, कि कब सरकार क्या फैसला कर ले? लेकिन एक बात दावे के साथ कही जा सकती है, कि सरकार अब हिंदूराष्ट्र का निर्माण करने की तरफ बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है।
पहले हिंदूराष्ट्र की आहट मुसलमानो को डरा देती थी, लेकिन आज भारत के हिंदूराष्ट्र बनने की दहलीज पहुँच जाने के बावजूद भी मुसलमान अपनी गहरी नींद से नही जाग रहे है।
सरकार ने गोश्त का कारोबार मे रुकावटे डाली, तलाक पर टांग अड़ाई, 370 हटा कर कश्मीरियो की औकात बदल दी और अब बाबरी मस्जिद का जनाजा भी मुसलमानो को नही जगा सका है।
भविष्य मे सिविल कोर्ट, एनआरसी और हिंदू राष्ट्र का मंसूबा भी नही जगा सकेगा।
अब इसे निडरता कहे या खुदकुशी? लापरवाही कहे या धर्मनिरपेक्षता का नशा?
हिंदुस्तान का मुसलमान जागे या नही?
मानवाधिकार (इंसानी हुकूक) के नाम पर बनी बड़ी-बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बोले या मुंह पर पट्टी बांधे रहे? लेकिन बाबरी मस्जिद के साथ-साथ हिंदुस्तान मे धर्मनिरपेक्षता का भी जनाजा उठ गया है। ना हिंदू जीता और ना मुसलमान जीता, जीता तो सिर्फ दो-कौमी नजरिया (द्वि-राष्ट्र सिद्धांत) है।
आज मौलाना मोहम्मद अली जौहर की रूह तड़प-तड़प कर कहती होगी,
कि क्यो मैने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की मुखालफत करी और जामिया मिलिया की तामीर करी?
खान अब्दुल गफ्फार खान की रूह तड़प-तड़प कर कहती होगी,
कि क्यो मैने मुस्लिम लीग की मुखालफत करी और अहिंसा की वकालत करी?
मौलाना अबुल कलाम आजाद की रूह तड़प-तड़प कर कहती होगी, कि क्यो मैने जिन्नाह की मुखालफत और काग्रेस की सदारत करी?
डॉ जाकिर हुसैन की रूह तड़प-तड़प कर कहती होगी, कि क्यो मैने फिरका-वारियत (संप्रदायिकता) की मुखालफत करी और कांग्रेस की खिदमत करी। अब जब हिंदुस्तान के ज्यादातर मुसलमान अंदर से दुखी है, तब मेरी खुशी छुपाए नही छुप रही है, क्योकि आज मुसलमानो को सच्चाई समझ आ गई है।
हिंदुस्तान मे कभी भी व्यवहारिक धर्मनिरपेक्षता नही थी, क्योकि किसी सरकारी इमारत की नींव रखी जाती तो भूमि पूजन होता है, किसी सरकारी कार्यक्रम की शुरुआत होती तो सरस्वती वंदना या अन्य भजन गाये जाते है और दीपक जलाए जाते है।
क्या कभी किसी सरकारी प्रोग्राम की शुरुआत अगरबत्ती जलाने या ईथर लगाने से होती थी? क्या नात या कुरान पढ़ने से कार्यक्रम की शुरुआत होती थी? जवाब है नही। बहुत लंबी सूची है, लेकिन सार (खुलासा) यही है, कि “हिंदुस्तान अघोषित हिंदूराष्ट्र” था और है।
जिस धर्मनिरपेक्षता की मौत पर हम मातम कर रहे है, उसने मुसलमानो को 72 सालो मे क्या दिया? मजहब के नाम पर बने मुल्क पाकिस्तान मे अल्पसंख्यको को संसद मे आरक्षण है,
लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बने देश भारत मे अल्पसंख्यको को आरक्षण देने के नाम से हिंदुओ को आग लग जाती है। हिंदुस्तान की सबसे बड़ी समस्या संप्रदायिक दंगा था, इसलिए संविधान लागू होने के बाद सबसे पहले दंगा विरोधी कानून बनाकर लागू करना चाहिए था।
क्योकि दंगा विरोधी कानून के नाम से ही हिंदुओ को डर लगने लगता है, इसलिए अभी तक कानून नही बनाया जा सका है और ना कभी बनेगा। 1969 से लेकर 2014 तक 40000 से ज्यादा ग़ैरकश्मीरी मुसलमानो को संप्रदायिक दंगो मे कत्ल कर दिया गया है, किसी कातिल को अभी तक फासी नही हुई है और ना कभी होगी।
आतंकवाद के नाम पर बहुत से मुसलमानो को फांसी की सज़ा दे दी गई है और आगे भी फांसी की सजा दी जाती रहेगी, अगर किसी दबाव मे हिंदू दंगाइयो को फांसी नही दी जा सकती थी, तो फिर दूसरे धर्मो के लोगो को फांसी की सजा देना बंद क्यो नही की गई?
जबकि अधिकतर सभ्य देशो मे फांसी की सजा बंद कर दी गई है, तब बौद्ध, महावीर और गांधी के देश मे “फासी रोकने” की कोशिश क्यो नही करी गई? भारत सरकार की गुप्तचर संस्था आई०बी० (IB) मे मुसलमानो का प्रतिनिधित्व 2% से भी कम है और आर०ए०डब्लू० (RAW) मे तो नाम मात्र मुसलमान है।
क्या यह इस बात का सूचक नही है, कि सरकार मुसलमानो पर कभी विश्वास नही करती थी और उन्हे संवेदनशील और महत्वपूर्ण पदो से दूर रखा जाता था? साड़े तीन दशक के वामपंथी शासन के बाद पश्चिम बंगाल मे मुसलमानो का सरकारी सेवाओ मे प्रतिनिधित्व मात्र 4% था, जबकि उनकी आबादी उस समय 24% थी।
अगर मुसलमान पढ़े-लिखे नही थे और वह अफसर नही बन सकते थे, तो कम से कम चपरासियो मे भर्ती करके मुसलमानो का प्रतिशत तो बढ़ाया जा सकता था। हिंदू नेता मुसलमानो को ताने मार का जलील करते है, कि मुसलमान अपने बच्चो को शिक्षा क्यो नही देते? जब की असलियत यह है, कि यह मुसलमानो को पड़ने देना नही चाहते है।
अभी तक मुसलमानो के लिये कम से कम 20 यूनिवर्सिटी बनाना चाहिए थी, लेकिन इन लोगो ने एक भी नही बनाई, जो दो (जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) आज़ादी के पहले से बनी हुई है, उसमे भी यह गैर-मुस्लिमो को मक्कारी से घुसेढ़ कर मुसलमानो के पढ़ने का रास्ता रोकना चाहते है।
जुल्म, ज्यादती और भेदभाव की एक लंबी लिस्ट है, लेकिन संक्षेप (मुख़्तसर) बात यह है, कि मुसलमानो को “धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उल्लू” बना दिया गया है, अब आप कुछ कर भी नही सकते है।
जब चिड़िया चुग गई खेत, तो पछताए क्या होत? लेकिन धर्मनिरपेक्षता का जनाज़ा निकलने से उन हिंदुस्तानी नेताओ की असलियत दुनिया के सामने आएगी, जो विदेश मे जाकर धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का महिमामंडन करते है और महात्मा बुध और महात्मा गांधी के नाम की माला जपते है, वह अपना मुंह दिखाने के काबिल नही रहेगे।
बाबरी मस्जिद के छिन जाने से पहले भी मुस्लमान “सोमनाथ की मस्जिद” खोने का सदमा सह चुके है, इसलिए अब उनकी सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नही है। लेकिन इतना तय है, कि बाबरी मस्जिद केस मे कोर्ट का फैसला हिंदुस्तानी सेकुलरिज्म के ताबूत मे आखिरी कील साबित होगा।
चिंतक, स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजसेवी एज़ाज़ क़मर की डायरी से मुक्तक