आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच नागोर्नो-काराबाख़ इलाक़े में लड़ाई जारी है. इस लड़ाई में हज़ारों जानें जा चुकी हैं. पिछले 30 सालों में इस इलाक़े में ऐसा संघर्ष नहीं देखा गया।
अतीत में झांकते हुए ये जानने की कोशिश की कि नागोर्नो-काराबाख़ के टकराव की जड़ें कहाँ हैं? तनाव के बावजूद दोनों पक्ष इतने समय तक लड़ाई से क्यों बचते रहे और अब ऐसा क्या हुआ कि दोनों पक्ष युद्ध में कूद पड़े।
इस टकराव का आधुनिक इतिहास 1980 में मिखाइल गोर्बाचोफ़ के पेरेस्ट्रॉइका और सोवियत संघ के लोगों में राष्ट्रीय पहचान के लोकप्रिय होते विचार के साथ शुरू हुआ था। पेरेस्ट्रॉइका का मतलब है पुनर्गठन यानी सोवियत संघ की राजनीतिक और आर्थिक प्रणाली का पुनर्गठन।
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दोनों देशों के बीच हुए टकरावों में कई ख़ूनी संघर्ष शामिल हैं। नागोर्नो-काराबाख़ सोवियत संघ के अस्तित्व के दौरान अज़रबैजान के भीतर ही एक स्वायत्त क्षेत्र बन गया था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे अज़रबैजान के हिस्से के तौर पर ही जाना जाता है, लेकिन यहाँ अधिकतर आबादी आर्मीनियाई है।
यहाँ रहने वाली आर्मीनियाई आबादी ने नागोर्नो-काराबाख़ के आर्मीनिया से एकीकरण के लिए आंदोलन की शुरुआत की, जिससे अज़रबैजान में भी भावनाएँ भड़क उठीं। इसके चलते दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों के बीच टकराव शुरू हो गया और आर्मीनिया और काराबाख़ से अज़ेरी लोगों को निकाला जाने लगा।
इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप फ़रवरी 1988 में अज़रबैजान के शहर सुमगईट में बड़ी संख्या में आर्मीनियाई लोगों को मार दिया गया. इसे ‘सुमगईट नरसंहार’ भी कहा जाता है।
सोवियंत संघ की सरकार ने बल प्रयोग कर मामले को शांत करने की कोशिश की, लेकिन काराबाख़ में इस आंदोलन के प्रतिनिधियों की गिरफ़्तारी से आर्मीनिया और अज़रबैजान में लोगों का उनके लिए समर्थन और बढ़ गया।
साथ ही दोनों के बीच दुश्मनी भी बढ़ती गई। जनवरी 1990 में, अज़रबैजान की राजधानी बाकू में फिर एक नरसंहार हुआ और सैकड़ों आर्मीनियाई मारे गए, घायल हुए या ग़ायब हो गए।
1991 में, सोवियत संघ के विघटन के साथ ही काराबाख़ का संघर्ष एक नए दौर में प्रवेश कर गया. अब दोनों पक्षों के पास सेना के छोड़े गए हथियार भी थे. 1992-1993 के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें दोनों देशों को भारी नुक़सान उठाना पड़ा।
कुछ ऐसे टकराव भी हुए, जो युद्ध अपराध के तहत आते हैं. इनमें ख़ासतौर पर फ़रवरी 1992 में अज़रबैजान के शहर खोजाली के पास अज़ेरी नागरिकों का क़त्लेआम शामिल है।
खोजाली के आसपास के इलाक़ों में आर्मीनियाई सेना ने घुसकर लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। अज़रबैजान के आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक़ इसमें क़रीब 600 बुज़ुर्ग, महिलाओं और बच्चों ने अपनी जान गँवाई थी।
माना जाता है कि कई सालों तक चले इस हिंसक टकराव में दोनों तरफ़ के क़रीब 30 हज़ार लोग मारे गए और 10 लाख से ज़्यादा शरणार्थी बन गए। अब ये संघर्ष आर्मीनिया और अज़रबैजान के लोगों की पहचान का अहम हिस्सा बन चुके हैं। इस मसले पर कही गई किसी भी बात से दोनों देशों में भावनाएँ उफ़ान पर आ जाती हैं।
नागोर्नो-काराबाख़ में संघर्ष का मसला बार-बार संयुक्त राष्ट्र में उठता रहा है. 1993 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इसे लेकर चार प्रस्ताव भी पास किए थे। हालाँकि, उनमें से कोई लागू नहीं किया जा सका।
विभिन्न स्तरों पर दोनों पक्षों के बीच बातचीत की कोशिश की जाती रही है। लेकिन, कभी आर्मीनिया तो कभी अज़रबैजान में नेतृत्व बदलने के कारण बातचीत को बार-बार नए सिरे से शुरू करना पड़ता है।
रूस, अमरीका और फ़्रांस की अध्यक्षता वाले ओएससीई मिंस्क समूह दोनों देशों के बीच बातचीत कराने की कोशिश करता रहा है। इसकी स्थापना मार्च 1992 में बेलारूस की राजधानी मिंस्क में ‘यूरोप में सुरक्षा और सहयोग के लिए संगठन’ (ओएससीई) के सम्मेलन के दौरान हुई थी।
मई 1994 में मध्यस्थता के प्रयासों को एक बड़ी सफलता मिली और दोनों देश काराबाख़ में युद्धविराम के लिए तैयार हो गए। उस समय तक काराबाख़ और उसके आसपास के सात क्षेत्रों पर आर्मीनिया का क़ब्ज़ा हो चुका था। उसके बाद से बैठकों और बातचीत के बावजूद दोनों देश किसी नतीजे पर नहीं पहुँचे।
लेकिन, 2001 में इनके रिश्तों पर ज़मी बर्फ़ पिघलने के आसार बन रहे थे. दोनों देशों के राष्ट्रपति शांति समझौते के लिए एक अमरीकी रिज़ॉर्ट में मिले थे। लेकिन, आख़िरी वक़्त पर ये शांति समझौता नहीं हो सका।
आर्मिनीया ने 1991 में नागोर्नो-काराबाख़ गणराज्य (एनकेआर- आर्मीनिया के लोग इसे अर्तसैक भी कहते हैं.) की घोषणा की। लेकिन, इसे दुनिया में मान्यता प्राप्त नहीं है। अज़रबैजान इसे क़ब्ज़े वाला इलाक़ा मानता है।
आर्मीनिया इसे आधिकारिक तौर पर स्वतंत्र गणराज्य की मान्यता दे चुका है, लेकिन वो ख़ुद को उसकी सुरक्षा का गारंटर कहता है। एनकेआर का बजट भी आर्मीनिया से जुड़ा है और सेना भी।
एनकेआर में नियमित तौर पर चुनाव होते हैं, लेकिन इसके नतीजों को दुनिया में कोई भी मान्यता नहीं देता. इस स्वघोषित गणराज्य के निवासी आर्मीनिया का पासपोर्ट इस्तेमाल करते हैं। यहाँ पर आर्मीनिया के कोड से ही फ़ोन किए जाते हैं।
स्थानीय स्तर पर इलाक़े की सीमा पर दोनों पक्षों के बीच लगातार झड़पें होती रही हैं. लेकिन, अप्रैल 2016 में हुई झड़प सबसे गंभीर थी। इसमें दोनों तरफ़ के कई सैनिक मारे गए थे। ये झड़प चार दिनों तक चली और रूस में दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच हुई मुलाक़ात के बाद ही युद्धविराम पर सहमति बनी।
जुलाई 2020 में, आर्मीनिया और अज़रबैजान की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर झड़पें हुईं. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के चलतें ये झड़पें गंभीर रूप नहीं ले सकीं।
तुर्की और अज़रबैजान के लोगों के बीच गहरे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं. तुर्क और अज़ेरी लोगों की ज़ुबान एक ही भाषाई परिवार का हिस्सा हैं, राजनीतिक रूप से तुर्की ने हमेशा ही अज़रबैजान का समर्थन किया. ख़ासकर सोवियत संघ के विघटन के बाद दोनों देशों के राजनीतिक रिश्ते और मज़बूत हुए हैं।
दूसरी तरफ़, तुर्की और आर्मीनिया के रिश्तों का इतिहास कड़वाहट भरा रहा है. ऑटोमन साम्राज्य के दौर में साल 1915 में आर्मीनियाई लोगों का नरसंहार अतीत का वो ज़ख़्म है, जो आज तक भरा नहीं है। इस घटना को दुनिया के कई देशों ने नरसंहार क़रार दिया था. हालाँकि, तुर्की इतिहास के इस मूल्यांकन का विरोध करता है।
लेकिन चाहे जो कुछ भी हो, 100 साल से ज़्यादा समय गुज़र गया है, लेकिन आर्मीनियाई लोगों के नरसंहार की वो घटना आज भी दोनों मुल्कों के रिश्तों को तय करती है। तुर्की ने आर्मीनिया के साथ लगने वाली अपनी सीमा सील कर रखी है. दोनों देशों के कूटनीतिक रिश्ते उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं।
साल 2008-09 में दोनों देशों की तरफ़ से हालात को सामान्य बनाने की दिशा में कोशिशें हुई थीं, लेकिन अज़रबैजान ने इसका विरोध किया और आर्मीनिया में व्यापक स्तर पर विरोध-प्रदर्शन होने लगे थे। नतीजा ये हुआ कि तुर्की-आर्मीनिया के संबंधों को पटरी पर लाने की कोशिशें परवान चढ़ने से पहले ही पटरी से उतर गईं।
हालाँकि, नागोर्नो-काराबाख़ को लेकर चल रहे आर्मीनिया-अज़रबैजान संघर्ष में ऐसा पहली बार हुआ है कि तुर्की न केवल राजनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभा रहा है, बल्कि वो सैनिक दृष्टि से भी इस युद्ध का हिस्सा है।
आर्मीनिया और अज़रबैजान के साथ ईरान भी अपने संबंधों में संतुलन साधकर रखना चाहता है। अज़ेरी लोगों के अलावा आर्मीनिया मूल के लोगों का एक तबक़ा ईरान में रहता है। इनमें से ज़्यादातर ईरान के उत्तरी इलाक़े में रहते हैं और यहीं पर अज़रबैजान और आर्मीनिया की सीमा ईरान से लगती है।
ईरान की सरकार को इस बात की चिंता है कि अगर अज़रबैजान और आर्मीनिया का संघर्ष नहीं रुका, तो उसके अपने इलाक़ों में भी अलगाववादी भावनाएँ भड़क सकती हैं। नागोर्नो काराबाख़ के लिए जारी संघर्ष की वजह से आर्मीनिया की ओर जाने वाले रास्ते अज़रबैजान और तुर्की ने बंद कर रखे हैं।
जॉर्जिया के रास्ते आर्मीनिया के ट्रांसपोर्ट लिंक्स बेहद सीमित पैमाने पर हैं। आर्मीनिया को इस समय जिन आर्थिक पांबदियों से गुज़रना पड़ रहा है, ऐसे में ईरान की सीमा उसके लिए जीवन रेखा बन गई है।
आर्मीनिया और अज़रबैजान से रूस के सदियों पुराने रिश्ते रहे हैं. लेकिन अब ये सबकुछ पहले जैसा नहीं रहा है. इसमें कहीं ज़्यादा जटिलताएँ हैं। ओएससीई मिंस्क ग्रुप के अहम सदस्य और आर्मीनिया-अज़रबैजान के बीच विवाद में मध्यस्थ होने की वजह से रूस को दोनों पक्षों की बात सुननी पड़ती है।
रूस दोनों ही मुल्कों को अरबों डॉलर के हथियार बेचता है. आर्मीनिया में रूसी कंपनियों ने बड़ा निवेश कर रखा है। यहाँ तक कि आर्मीनिया में रूस का महत्वपूर्ण सैनिक ठिकाना भी है।
आर्मीनिया के नागरिक बड़ी संख्या में रूस में काम करते हैं. अज़रबैजान के भी बहुत से लोग रूस में काम करते हैं. रूस के उद्योगों ने अज़रबैजान के तेल उद्योग में निवेश कर रखा है।
अज़रबैजान के अपने नागरिकों में कुछ तो रूसी मूल के लोग भी हैं। इन वजहों से ये माना जा रहा है कि रूस अज़रबैजान और आर्मीनिया के संघर्ष में कोई स्पष्ट स्टैंड नहीं ले पा रहा है. वो ये तय नहीं कर पा रहा है कि उसे अज़रबैजान का समर्थन करना चाहिए या फिर आर्मीनिया क।
अज़रबैजान-आर्मीनिया संघर्ष नई ताक़त के साथ क्यों भड़का? साउथ कॉकसस (ब्लैक सी और कैस्पियन सागर के बीच का इलाक़ा जिसमें आर्मीनिया, अज़रबैजान, जॉर्जिया और दक्षिणी रूस के हिस्से आते हैं) के जानकारों का कहना है कि इस संघर्ष के कई पहलू हैं।
अज़रबैजान की सैन्य ताक़त आर्मीनिया से ज़्यादा है. 21वीं सदी के पहले दशक में तेल की बिक्री से अज़रबैजान को ज़बरदस्त कमाई हुई, जिसका इस्तेमाल उसने अपनी सेना के प्रशिक्षण और उसकी ताक़त बढ़ाने में किया।
शायद अज़रबैजान ने ये तय कर लिया था कि नागोर्नो-काराबाख़ के इलाक़े में हालात बदलने के लिए उसे अपनी स्थिति मज़बूत करनी थी. साल 1994 में वो आर्मीनिया से एक जंग कर चुका था।
सीरिया और लीबिया के संघर्ष में तुर्की को अपनी दख़लंदाज़ी में कामयाबी मिली थी और इलाक़े में उसका रसूख़ तेज़ी से बढ़ा था. तुर्की के समर्थन ने अज़ेरी नेतृत्व में कामयाबी का भरोसा पैदा कर दिया है।
दुनिया की बड़ी ताक़तें कोरोना संकट से जूझ रही हैं. अमरीका चुनाव की तैयारियों में लगा हुआ है. दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दीर्घकालीन संकट के रास्ते पर बढ़ रही है।
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वहीं, अज़रबैजान को तेल से होने वाली कमाई हमेशा इसी स्तर पर बने रहने वाली नहीं दिख रही है। इसका मतलब ये हुआ है कि सैनिक ताक़त को मज़बूत करने के लिए जो आर्थिक अवसर चाहिए था, वो अब अपनी आख़िरी हद तक पहुँच चुका थ।
आख़िर में कई विशेषज्ञों का कहना है कि काराबाख़ एक पहाड़ी इलाक़ा है. सर्दियों के आने के साथ इस इलाक़े से सैनिक साज़ोसामान को लाना-ले जाना ज़्यादा मुश्किल हो जाता। इससे पहले कि रास्ते बर्फ़ की चादर से ढँक जाते, एक सैनिक कार्रवाई को अंजाम देना ज़रूरी हो गया था।