आजादी के बाद से अब तक बहुत कुछ बदला पर गरीब आज भी सड़क पर भीख मांग रहा और जब तक देश में एक भी जान भूख और लानत से जाती हो उस देश को विकसित नहीं कहा जा सकता। यह मेरा मौलिक विचार है। जब तक जाति पात दीन धर्म की लड़ाई होती रहेगी तब तक हमें बुद्धिमान नहीं माना जा सकता और जब तक पत्रकार सच को सच न लिखे व दिखाये उसे पत्रकार नहीं माना जा सकता।
चूंकि मैं इण्डियन रिपोर्टर्स एसोसिएशन का महासचिव हूँ तो मेरी चिंता जायज है कि मैं कैसे मेरे पत्रकार भाई बहनों को संगठन का मेहनत का सत्यता कर्मठता ईमानदारी व समाज और सरकारी सिस्टम से भयहीन होने का इरादा मजबूत करा सकूं। आज कुछ संपादक हमारे पत्रकारों को विज्ञापन के लिए बहुत परेशान करते हैं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मर्डर स्टोरी पर, हिंदू मुस्लिम झगड़े की ज्वलंत स्टोरी को मुद्दा बनाकर पत्रकारों की छवि खराब करने का धंधा आम हो गया है।
मैं यह नहीं कहता कि विज्ञापन और टीआरपी गलत चीज है पर किसी पत्रकार पर जब आफत आती है तब उसकी मदद को कोई नहीं आता। मेरा लेख लिखने का मकसद यही है कि बुरे हालातों में पत्रकारों की हर सम्भव मदद हो सके, हम सब मिलकर रहें एक दूसरे का सहारा बने और सरकार व न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए।
जो पत्रकार आपकी विदेश यात्रा, फीता काटना दिखाता है लिखता है उसके लिये भी सरकार के कुछ कर्तव्य होने चाहिए। हाल ही में पत्रकारों को स्वास्थ्य सेवाओं का भरोसा सरकारी सिस्टम ने दिलाया है पर यह कितना कामयाब होगा हम सब देखेगें कि यह चुनावी कसीदा है या जमीनी स्तर पर सबके लिए फायदेमंद साबित होगा।
विदित हो कि हमारा भारत एक सार्वभौम संवैधानिक लोकतंत्र है और भारतीय लोकतंत्र के तीन संवैधानिक स्तम्भ है यथा विधायिका, कार्यपालिका एवं न्याय पालिका जिनके संगठन ,कार्य ,कार्य पद्धति संविधान में निहित है।
विधायिका सर्व विदित है जन निर्वाचित सुनियोजित व्यक्ति समूह है जो जन सेवा भावना से प्रोत है तथा लोकतान्त्रिक पद्धती में जनप्रतिनिधित शासक होती है| दूसरी कार्य पालिका जो शासनाधीन ,शासन द्वारा योग्यतानुसार नियुक्त तथा शासन के प्रति उत्तरदायी होती है। इसका कार्य विधयिका की नीति, योजनाओं का क्रियान्वन करना तथा नए पुराने नियम कानूनों का पालन तथा नियमनुसार द्वारा प्रशासन चलाना।
इसके भी दो प्रमुख भाग होते हैं प्रशासन एवं विधि व्यवस्था यानि पुलिसिंग। तीसरा किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण स्तंभ है न्यायपालिका जो संवैधानिक रूप से इन दोनों स्तंभों से ऊपर होती है और इसका कार्य लगभग मोनिटर जैसा होता है अर्थात विधायिका द्वारा बनाये गए कानूनों की व्याख्या करना , उनके यथावत पालन पर नज़र रखना , उनपर व्यवस्था देना , सर्वोपरि है दण्ड प्रावधानों को सुनिश्चित करना तथा दंडात्मक कार्यवाही करना , दोष तथा दण्ड निर्धारण करना।
ये भी पढ़ें : लेख : देश के हर नागरिक को किसानों के समर्थन में उतरना चाहिए : जितेंद्र चौधरी
एक है चौथा स्वयम्भू स्तंभ जिसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं है पर आज के समाज में यह स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ निरुपित करता है ; यह है “ पत्रकारिता“।
पत्रकारिता का प्रादुर्भाव तो अनादी काल से है तथा हर काल, हर क्रांति में यह प्रतिभागी भी रहा है। विश्व स्तरीय चर्चा के लिए यह उपयुक्त स्थान नहीं है परन्तु देश की पराधीनता काल में भी पत्रकारिता का विशेष योगदान रहा है।
स्वतंत्रता संग्राम में अमृतबाज़ार पत्रिका(सिसिर कुमार–मोतीलाल),संवाद कौमुदी ( राजा राममोहन राय),रास्त गोफ्तार (दादा भाई नोरोजी), सोम प्रकाश ( इश्वर चंद्र विद्या सागर),केसरी(बालगंगाधर तिलक) ,प्रबुद्ध भारत एवं उद्बोध(स्वामी विवेकानंद )इंडियन ओपीनियन ( महात्मा गाँधी )वंदे मातरम(अरोबिन्दो घोष )आदि उस समय के मुखर पत्र पत्रिका थे जिनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को ना कोई नकार सकता है न कोई भूल सकता है।
स्वतंत्रता के बाद जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों ने सत्ता की राजनीती से मुँह मोड़ लिया वैसे ही पत्रकारिता में भी स्वतंत्रता ध्वज धारियों ने सन्यास लेलिया , जो बचे थे उनमें भी एक अघोषित आचार संहिता का आधार था , सत्य को सत्य कहने का साहस था अतः वे राजनीती एवं प्रशासन के अच्छे दिग्दर्शक रहे।
कहना पता नहीं उचित है या नहीं पर मुँह कैसे मोड़ा जा सकता है , जहां राजनेताओं के देश हित से आत्महित का प्रदूषण हुआ एवं सब बदल गया, उसी प्रकार पत्रकारिता मैं भी चाटुकारिता का पुट आया और फिर स्वार्थ सिद्धि ,पीत पत्रकारिता आदि का दौर शुरू हो गया। सत्तर का दशक आते आते तक तो पत्रकारिता सरकार शरणागत जैसी हो गयी। धीरे धीरे सड़कों से महलों तक बेधड़क समाचारग्राही खुद पेडल मशीन से अखबार छाप कर स्वयं सड़कों पर अखबार बेंचने वाले पत्रकार इतिहास हो गए।
उनके स्थान पर आ गए भवनों अट्टालिकाओं से चलने वाले पूंजीवादी , राजनेता या समर्थक समाचार पत्र, समाचार पत्र समूह और अंततः समाचार क्रांति- राजनीतिक भ्रान्ति, पैसा, पूंजी,पेपर कोटा और विज्ञापनों के बोझ तले दब गयी या कहें तो बिक गई।
ये भी पढ़ें : वीरेंद्र सहवाग टीम इंडिया के बचाव में उतरे, कनकशन को लेकर बताई बहुत ही महत्वपूर्ण बात
इस तथा कथित स्वयंभू चतुर्थ स्तंभ पर अभी तक नमी अवश्य बैठ गई थी पर ज़ंग नहीं लगी थी। रेडियो को यहाँ घसीटना उपयुक्त ना होगा इस लिए कि यह लगभग पूरी तरह शासनाधीन ही रहा अतः इसे आकाशवाणी या घोषणा वाणी कह कर छोड़ा जा सकता है।
परन्तु १९५९ में इसके ही अंतर्गत दृश्य श्रव्य माध्यम ( इलेक्ट्रोनिक मीडिया ) का प्रादुर्भाव हुआ जिसने १९७६ तक स्वयं को आकाश वाणी से स्वतंत्र कर लिया नाम मिला “ दूरदर्शन “। प्रारंभ में तो यह शासनाधीन सूचना तंत्र रहा फिर मनोरंजन भी जुड गया।
पत्रकारिता का आयाम भी शासनाधीन जुड गया तथा इसका प्रयोग एवं प्रसारण दूरदर्शन केन्द्रों द्वारा होता रहा। यह एक प्रकार का सरकारी भोंपू तो अवश्य था पर एक अचार संहिता थी , समाचारों एवं मनोरंजन कार्यक्रमों की एक शुचिता थी शालीनता थी। संयोगवश कहा जा सकता है कोरोना त्रासदी में दूरदर्शन के वे कार्यक्रम पुनरावृत्ति में आज भी नयी पीढ़ी में रुचिपूर्वक देखे जा रहे है।
१९९४ में इस इलेक्ट्रोनिक मीडिया का ज़ी टी वी की स्थापना के साथ व्यवसायीकरण हुआ, फिर स्टार टी वी और उसके बाद ….।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बढ़ती पत्रकारिता की होड़ ने तो शायद पत्रकारिता का चीर हरण ही कर डाला , पराकाष्टा तब आयी जब ये चेनल बिकाऊ हो गए प्रिंट मीडिया की जैसी पीत पत्रकारिता ने यहाँ भी घर कर लिया।
हरेक को दूकान चाहिए बस एक एक पत्रकार एक एक चेनल ले कर बैठ गया और खुले आम यह तथा कथित चौथा स्तंभ सार्वभौम ,सर्वज्ञ ,सर्वशक्तिमान बन बैठा , हर चेनल के अपने लिंक होते , क्या पता आपको ,कब किसकी हवा निकाल दी जाये।
इस स्तंभ की सर्वज्ञ सर्वभौमता के प्रमाण , आप घर में बैठे महसूस कीजिये , संसद में सत्र चल रहा है संसद के बाहर एक व्यक्ति अपने संजय चक्षु से सैकड़ों मील दूर स्ट्यूडियो में बैठे धृतराष्ट्र उद्घोषक को बताता है ,संसद में क्या हो रहा है , रक्षा मंत्री , वित्तमंत्री या प्रधान मंत्री क्या बोल रहे हैं।
स्ट्यूडियो में बैठा उद्घोषक यकायक आपको अपनी सर्वज्ञता का आभास देता है जब वह देश की रक्षा नीतियों ,रक्षा शस्त्रास्त्रों ,रक्षा सौदों रक्षा बजट का ज्ञान देते देते बोलने लगता है रक्षा मंत्री को क्या करना चाहिए , सेनाध्यक्ष को क्या करना चाहिये आदि।
यह स्थिति यहाँ ही नहीं थम जाती अगले ही पल यह सर्वज्ञ आपको आर्थिक , शिक्षा , चिकित्सा किसी भी विषय पर आधिकारिक ज्ञान , सूचना या भाषण देते हुए पाया जा सकता है , दर्शक जैसे कुछ जानता हि नहीं। उद्देश्य होता है भोली जनता में पैठ बनाना और टी आर पी बढ़ाना ताकि अधिक से अधिक विज्ञापन पाए जा सकें साथ ही एक्स्पोज़ के डर से शासन प्रशासन में अपनी दहशत बनायी जा सके।
इस इलेक्ट्रोनिक मीडिया का एक और आयाम है – वागयुद्ध यानि डिबेट। यह आम हो गया है वही घिसे पिटे चेहरे ,पक्ष विपक्ष और सर्वगुण संपन्न हर विषय पर सुविज्ञ एंकर या उद्घोषक। कोई विषय-समाचार लेकर एंकर जज साहब बन कर बैठ जायेंगे और शुरू हो जायगा वागयुद्ध। वाद विवाद विद्वानों के मध्य विचारों का आदान प्रदान है |
विचारों का युद्ध विद्वदता की पहचान है परन्तु टी वी डिबेट में अक्सर अर्थहीन बहस के अतिरिक्त कुछ नहीं होता , शालीनता के मामले में सड़क पर होने वाले श्वान युद्ध में शायद कुछ अधिक शालीनता होती हो। पक्ष विपक्ष के मध्य मीडिएटर महोदय अतिथियों को बोलने का मौका तक नहीं देते , अपने विचार जोर जोर से चिल्ला कर अतिथियों तथा दर्शकों पर थोपते नज़र आते है। अतिथियों में भी अक्सर शालीनता , शिष्टाचार एवं अनुशासन का अभाव होता है। चिल्ल पों जिसमे वादी प्रतिवादी एंकर सभी चीख़ रहे होते है , सुननेवाले को कुछ समझ नहीं आता मसला क्या है ?
कौन क्या कहना चाह रहा है , इसी के मध्य होता है विज्ञापन अंतराल का अबाध सिलसिला। तीस चालीस मिनिट की मारामारी के बाद वाद विवाद निष्कर्षहीन समाप्त हो जाता है। ध्येय कुछ मनीषी मंथन नहीं होता मात्र दर्शकों को अपनी छद्म रूचि दिखाना और टी आर पी कमाना। अक्सर टी वी पर धुर विरोधी युद्ध वीर डिबेट के पहले, बाद में स्टूडियो में हंस कर कॉफी पीते , गलबहियाँ किये स्टूडियो से बहार निकलते-बाई सी यु अगेन, करते मिलेंगे।
जटदत एक और आयाम है , कम्प्यूटर ग्राफिक्स के चरम दुरूपयोग का जिसके द्वारा ये देश की जनता को भ्रमित करते रहते है। बड़ी बड़ी रिपोर्ट्स दिखाई जाती है – थर्राता हुआ पकिस्तान , अब पाकिस्तान के छक्के छूटेंगे , कांपता चीन , किम जोन उन ने ट्रम्प को सीधे धमकी दी,कौन जहाज कैसे उड़ कर पाकिस्तान को बर्बाद कर देगा। ये कहीं ग्राफिक्स से डराते हैं कहीं लुभाते है सत्यता से परे जन मानस को भरमाते है |
तनाव पैदा करने और हाय तौबा मचने में भी ये अपनी सानी नहीं रखते। स्वयम्भू न्यायाधीश् एक और पक्ष है इस चौथे स्तंभ के इलेक्ट्रोनिक तंत्र का। आधे घंटे बीस मिनिट के विशेष रिपोर्टिंग् या न्यूज़ बुलेटिन में जब ये किसी की भी बखिया उधेड़ कर रख देंगे। इनके विशेष निशाने होते है जो जनता की दुखती नस होते है
पाज़ीटीविटी का अभाव इलेक्ट्रिक मीडिया का सबसे बड़ा दोष है। कभी भी कोई भी समाचार चेनल खोला जाय एहसास होता है दुनिया में कहीं कुछ अच्छा नहीं हो रहा है। सारे समाचारों में बलात्कार हत्या भयंकरतम दुर्घटनाएं अपराध, प्राकृतिक आपदा राजनैतिक उठापटक ही प्राथमिकता से होंगे। पूरी न्यूज़ बुलेटिन में आँख कान तरस जाते है कुछ अच्छा सुनने को , बुरे से बुरा घूम घूम कर परोसा जाता है। देश दुनिया में निश्चित सकारात्मक भी होता है,वह क्यूँ घूम घूम कर कर्णप्रिय ध्वनि प्रभाव के साथ नहीं दिखाया जा सकता.
सहमी भयभीत है पर जब टी वी खोलो सिर्फ नकारात्मक ही खुलता है। कोरोना आपदा प्रकृतिक है या मानव आमंत्रित , है तो त्रासदी। हर तरफ अफरा तफरी मौत का तांडव , फिर पलायन की नकारात्मकता मारा मारी पत्थरबाजी।
माना सब सच है तो भी क्या , शासन के प्रयत्न क्षमता से अधिक नहीं हो रहे हैं। फिर सीमा के तनाव भी आतंकी हमले भी। दुनिया की दुर्दशा से इंकार नहीं सब दिखाओ पर कुछ तो संतुलन रखो। मानव मन कोमल होता है कितना अवसाद परोसोगे कुछ तो तरस खाओ। सूचना का अधिकार है सूचना दो डराओ मत। कभी कभी लगता है देश में यदि गृह युद्ध हुआ तो उसका दोषी नकारात्मक इलेक्ट्रोनिक मीडिया ही होगा।
हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को यदि सदाबहार जीवित व दृृढ़ रखना है तो आवश्यक है स्वयं भाव से ऊपर उठ कर पत्रकारिता के गुण दोषों को पहचाने , इंगित करें , आवाज़ उठायें और मीडिया को भी शास्वत सूचना तंत्र बन कर उभारना होगा, टी. आर. पी. ज्यादा मोह से निकलना होगा.
अभी किसानों के धरने में पूछता भारत की लालफीतााशाही में लिपटी गलत रिपोर्टिंग की वजह से हरियाणा व पंजाब के किसानों ने उनके रिपोर्टस से बात तक नहीं की और सही रिपोर्ट्टिंग पंजाब व हरियाणा की मीडिया ने करके सबको चौंकाने वाला काम किया क्योंकि मीडिया को सरकारों का नहीं बल्कि जनता के दुख के साथ खड़ा होना चाहिए। मीडिया को प्रबुद्ध कहा जा सकता है वरना तो वह आज के युग की त्रासदी है ही है।
लेखक- मो. जहांगीर, महासचिव इंडियन रिपोर्टर्स एसोसिएशन