कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक की एक यात्रा पूरी हो चुकी है। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की लगभग पांच माह की इस यात्रा को भारत जोड़ो यात्रा नाम दिया गया था। अपने इस उद्देश्य में यात्रा कितनी सफल हुई है, यह आकलन तो आने वाला समय ही करेगा, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वयं राहुल गांधी की छवि में इस यात्रा से निखार के कई आयाम जुड़ गये हैं। पिछले आठ- दस साल में राहुल गांधी को एक अनिच्छुक और अपरिपक्व राजनेता के रूप में देखने दिखाने की कोशिशों को कई-कई रूपों में देखा गया है।
लेकिन इस यात्रा ने निश्चित रूप से उन्हें एक सक्षम और अपने उद्देश्य के प्रति उत्साह- भाव वाले व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया है। इस यात्रा का क्या राजनीतिक लाभ हो सकता है, यह भी अभी सिर्फ अनुमान का विषय ही है, पर अपने आप में यह कोई छोटी सफलता नहीं है कि देश को जोड़ने की अपनी कल्पना को राहुल गांधी जन-मानस तक पहुंचाने में काफी हद तक सफल रहे।
इस यात्रा से भी पहले जब राहुल गांधी ने अपनी राजनीति की यात्रा शुरू की थी, तबसे उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें उपहास की दृष्टि से देखने – दिखाने का प्रयास करते रहे हैं, पर अब कांग्रेस के इस ‘अनिच्छुक’ माने जाने वाले राजनेता के अभियान को देखते हुए देश की एक बहुत बड़ी आबादी यह मानने लगी है कि ‘पप्पू पास हो गया।
यह सही है कि इस यात्रा की शुरुआत से ही कांग्रेस पार्टी यह कहती रही है कि यात्रा किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं आयोजित की गयी। यात्रा का घोषित उद्देश्य भारत जोड़ना रहा है।
हालांकि जोड़ने वाली इस बात को लेकर कांग्रेस पार्टी के विरोधी अक्सर उपहास के स्वर में यह कहते रहे हैं कि भारत टूटा ही कहां है जिसे जोड़ने की बात कही जा रही है। कहा तो यह भी जा रहा था कि यदि कुछ जोड़ना ही है तो राहुल गांधी को यात्रा की शुरुआत पाकिस्तान से करनी चाहिए थी! भारत को जोड़ने की इस परिकल्पना में यात्रा की गंभीरता को कम करने की आकांक्षा ही नज़र आती है।
बहरहाल, राहुल अपनी इस यात्रा में ‘जोड़ने’ की अपनी परिकल्पना को स्पष्ट करने की लगातार कोशिश करते दिखे हैं। बहुत हद तक सफल भी हुए हैं अपने इस प्रयास में। यह सही है कि देश को जोड़ने का सीधा सा मतलब देश की सीमाओं को सुरक्षित रखना ही होता है।
इस दृष्टि से देखें तो हमारी सेनाएं पूर्णतया सक्षम हैं। लेकिन समझने की बात यह है कि देश भीतर से भी दरक सकता है। स्वाधीन भारत का 75 साल का इतिहास हमारी उपलब्धियों का लेखा-जोखा तो है ही, इसमें ढेरों ऐसे संकेत भी छिपे हैं जो यह बता रहे हैं कि भीतर ही भीतर हम कहां-कहां दरक रहे हैं।
हम विभिन्नता में एकता की बात करते हैं, इसे अपनी ताकत बताते हैं। गलत नहीं है यह बात, पर पूरी सच भी नहीं है। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, आर्थिक और सामाजिक विषमता के रूप में, न जाने कितना बंटे हुए हैं हम ऐसा नहीं है कि अलग-अलग रंगों वाले हमारे नेता इस टूटन और बंटने को जानते समझते नहीं हैं।
लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के चलते वे इसे देखकर भी अनदेखा करने के लिए मजबूर हैं। चोट इस मजबूरी पर होनी चाहिए, पर नहीं हो रही। राजनीति को सत्ता हथियाने और सत्ता में बने रहने का माध्यम मात्र मान लिया है हमारे राजनेताओं ने।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले हमारे लिए राजनीति का मतलब स्वतंत्रता के लिए लड़ाई था। स्वतंत्र होने के बाद राजनीति का मतलब इस स्वतंत्रता की रक्षा करना होना चाहिए था। लेकिन सवाल स्वतंत्रता के मतलब को समझने का भी है। हमारे लिए स्वतंत्रता का मतलब विदेशी आधिपत्य को समाप्त करना ही नहीं था। स्वतंत्रता का मतलब होता है देश के हर नागरिक को सम्मान के साथ सिर ऊंचा करके जीने का अवसर और अधिकार।
इस स्वतंत्रता में समता, न्याय और बंधुता के आदर्श जब जुड़ते हैं तब उसका सही अर्थ और औचित्य स्पष्ट होता है। राहुल गांधी की इस यात्रा का अथवा किसी ” अन्य की भी ऐसी यात्रा का उद्देश्य यही होना चाहिए कि वह देश में इस भावना को जाग्रत कर सके कि हम हिंदू या मुस्लिम या ईसाई या पारसी नहीं, हम सब भारतीय हैं। मेरे लिए ‘भारत जोड़ो’ का यही अर्थ है। यही बात इस यात्रा का विरोध करने वाले या उपहास उड़ाने वाले समझना नहीं चाहते। अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थो के लिए वे कभी धर्म के नाम पर समाज को बांटते हैं, कभी जाति के नाम पर।
कभी भाषा के नाम पर वे हमारी पहचान को संकुचित बना देते हैं और कभी हमारी वेशभूषा के आधार पर हमें बांट देते हैं। आज आवश्यकता इन बंटवारों के खिलाफ चेतना जगाने की है। जहां तक राहुल गांधी की पांच महीनों और बारह राज्यों की इस यात्रा का सवाल है, वे भले ही यह कहते रहें कि इसका कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है, पर इससे इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी को इसका कुछ राजनीतिक लाभ मिल सकता है। इस दृष्टि से इसे सन 2024 तक की यात्रा कहा जा सकता है। कांग्रेस की आवश्यकता भी इससे कुछ हद तक पूरी हो सकती है, पर देश की आवश्यकता कुछ और है।
राहुल गांधी ने अपनी इस कोशिश को ‘नफरत के बाज़ार में प्यार की दुकान लगाने वाली बताया है। देश की दुखती रग पर उंगली रखी है। उन्होंने आवश्यकता नफरत की एक आंधी को विफल बनाने की है। बड़ा काम है यह । इस लक्ष्य तक पहुंचने की यात्रा लम्बी है। राहुल गांधी भी संकेत दे चुके हैं, और कांग्रेस पार्टी भी कह चुकी है कि वे शीघ्र ही ऐसी ही एक और राजनीतिक यात्रा शुरू कर सकते हैं।
निश्चित रूप से यह पार्टी और पार्टी के नेताओं की एक राजनीतिक ज़रूरत है, यह जरूरत पूरी होनी ही चाहिए। पर आज जरूरत राजनीति को एक ऊंचे धरातल पर खड़ा करने की भी है। जिस हाथ मिलाने की बात राहुल गांधी कर रहे हैं, उसका उद्देश्य मात्र वोट जुटाना नहीं होना चाहिए। कांग्रेस पार्टी का उद्देश्य हो सकता है। यह पर देश को आज इससे कहीं बृहत्तर उद्देश्य की आवश्यकता है।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक की अपनी यात्रा को राहुल ने भले ही राजनीतिक दृष्टि से गैर-राजनीतिक यात्रा कहा हो, पर हकीकत यह है कि आज देश को ऐसी राजनीति की आवश्यकता है जो सिर्फ सत्ता के लिए न हो। महात्मा गांधी ने सेवा के लिए सत्ता की शिक्षा दी थी। आज उस शिक्षा के महत्व को समझने की आवश्यकता है। सत्ता की राजनीति देश को बांट रही है। इस बंटवारे को जोड़ना है तभी भारत जुड़ेगा।