सभी बेघर गरीबों को पक्की छत मुहैया कराने के घोषित लक्ष्य को पूरा करने में अब महज एक साल का समय शेष है। लोकसभा की एक विशेष समिति ने अपनी रिपोर्ट में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बन रहे घरों की धीमी रफ्तार पर चिंता जताई है।
यह तब है जबकि योजना के तीव्र गति से क्रियान्वयन के लिए पैसा कोई बाधा नहीं है। इस योजना के लिए बजट में साल दर साल इजाफा हुआ है। इस बार भी इसमें तैंतीस फीसद यानी उन्यासी हजार करोड़ का इजाफा हुआ है।
ऐसा नहीं है कि गरीबों और बेघरों को पक्की छत मुहैया कराने वाली इस योजना की सुस्त चाल पर पहली बार चिंता जताई गई है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 2020 में ही इस योजना के क्रियान्वयन में आई नाटकीय सुस्ती का संज्ञान लेते हुए कहा था कि योजना के तहत स्वीकृत और बन कर तैयार हो चुके घरों के बीच का फासला इकतीस लाख बीस हजार तक पहुंच चुका है। मंत्रालय ने नाराजगी जताते हुए राज्यों से इस योजना के अमल में तेजी लाने को कहा था। हालांकि तब कई राज्यों ने कहा कि यह सुस्ती कोराना महामारी के दौरान लगाई गई पूर्णबंदी, अन्य पाबंदियों, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण आई।
सभी बेघर गरीबों को पक्की छत मुहैया कराने के घोषित लक्ष्य को पूरा करने में अब महज एक साल का समय शेष है। मगर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अब तक जितने पक्के आवास देने का लक्ष्य था, उसके मुकाबले एक करोड़ अड़तीस लाख घर कम बने हैं। भूमि की उपलब्धता, पात्रों के चयन में देरी, पहली व दूसरी किस्त जारी करने में देरी और समय पर कोष उपलब्ध नहीं हो पाने जैसे तमाम कारण हैं।
इस मसले पर समिति ने अपनी एक सिफारिश में कहा है कि मंत्रालय तय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समय-समय पर आवास निर्माण की परियोजनाओं की समीक्षा करे और उन कारणों की पहचान की जाए, जो परियोजनाओं में देरी की वजह बन रहे हैं। यह सुझाव दरअसल देश में तमाम योजनाओं के संदर्भ में बेहद उपयोगी है, क्योंकि इस समस्या के हल का यही सबसे बेहतर रास्ता है।
यों देश के ज्यादातर राज्यों में तस्वीर बहुत अलग नहीं है। मगर पश्चिम बंगाल को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है, जहां लाभार्थियों के चयन में कथित धांधली और केंद्र व राज्य सरकार के बीच खींचतान के कारण बेघरों को छत मुहैया कराने की योजना लगभग ठप है। भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच योजना का नाम बदलने के कारण केंद्र ने पश्चिम बंगाल को इस योजना के तहत भेजी जाने वाली रकम अप्रैल, 2022 से ही रोक रखी है। किसी योजना के जमीन पर उतरने की रफ्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।
निश्चित तौर पर योजनाओं पर अमल को लेकर सुस्ती के लिए प्राथमिक स्तर पर प्रशासनिक शिथिलता, अड़चनें और भ्रष्टाचार जिम्मेदार है। लेकिन कई बार किसी योजना को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच विभिन्न मसलों पर खींचतान भी एक कारण है। देश भर में किसी योजना की घोषणा, उसके लिए राशि का आबंटन और उस पर अमल की जमीनी हकीकत में आमतौर पर काफी फर्क होता है।
यह बेवजह नहीं है कि ज्यादातर मामलों में केंद्र या राज्यों की सरकारें किसी जनउपयोगी योजना या कार्यक्रम की घोषणा तो करती है, लेकिन उसके लिए राशि जारी करने से लेकर उसे पूरा करने में इतना वक्त लग जाता है कि कई बार उसके अपेक्षित नतीजे सामने नहीं आ पाते। अब देश महामारी से लगभग उबर चुका है तो सुस्ती के लिए कोई बहाना नहीं बनाया जाना चाहिए। चाहे केंद्र या राज्य सरकारें या फिर प्रशासनिक मशीनरी, सभी को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और जवाबदेही तय करनी होगी।