दिसंबर 2015 को साबरमती आश्रम में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा था, कि गंदगी सड़कों पर नहीं, हमारे दिमाग में है। गंदगी उन विचारों में है, जो समाज को ‘उनके’ और ‘हमारे’, ‘शुद्ध’ और ‘अशुद्ध’, के बीच बांट देते हैं। महात्मा गांधी ने एक समावेशी राष्ट्र की कल्पना की थी। जहां हर वर्ग समानता के साथ रह सके। उसे समान अधिकार हों। हम रोज अपने चारों ओर अभूतपूर्व हिंसा होते देखते हैं।
इस हिंसा के मूल में अंधेरा, डर और अविश्वास है। प्रणव दा के शब्द छह साल बाद साकार रूप से सामने हैं। हिंसा ही हमें तालिबानी और जेहादी संस्कृति में बदल देती है। इंदौर में चूड़ी बेचने वाले युवक के साथ जो हुआ, वह सभ्य समाज की संस्कृति नहीं है। कानपुर में रिक्शा वाले के साथ जो अमानवीयता हुई, वह भी किसी हालत में जायज नहीं ठहराई जा सकती है। हम उस देश के वासी हैं, जिसमें तमाम संस्कृतियों और धर्मों का आगमन हुआ। हमने सभी को गले लगाया मगर किसी पर धर्म संस्कृति के नाम पर हमला नहीं किया। तभी हम विश्व की प्राचीनतम संस्कृति हैं। हम प्रकृति पूजक समाज का हिस्से रहे हैं। प्रकृति की संरचना को बरबाद करने वाले कभी नहीं रहे। यह बात हमारे वेदों से समझी जा सकती है।
हमारा देश न सिर्फ धार्मिक बल्कि प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधताओं से भरा है। जहां सहिष्णुता उसकी शक्ति रहा है, जिसने देश को समृद्ध किया है। यही कारण है कि जब देश आजादी के जोश-जश्न में डूबा था, हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दिल्ली से दूर, उन सांप्रदायिक दंगों को रोकने में लगे थे, जिन्होंने लाखों जिंदगियां बरबाद कर दी थीं। प्राचीन भारत से स्वतंत्रता आंदोलन तक के इतिहास से भी यही सिद्ध होता है कि हमारा राष्ट्रवाद ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन, सर्वे निरामया’ जैसे विचारों पर आधारित है। असहिष्णुता और नफरत से हमारी राष्ट्रीयता कमजोर होती है। राष्ट्र की अवधारणा को समझने के लिए बालगंगाधर तिलक और पंडित जवाहर लाल नेहरु के विचारों को पढ़ना और समझाना चाहिए। हमारा राष्ट्रवाद किसी क्षेत्र, भाषा या धर्म से बंधा नहीं है। विश्व में धर्म भी दो तरह के हैं, कर्म प्रधान और विश्वास प्रधान। सनातन धर्म, कर्म प्रधान है, तो गैर सनातनी विश्वास प्रधान। यही कारण है कि सनातनी लोगों को निज विश्वास के आधार पर ईश्वर, देवी-देवताओं को मानने या न मानने का पूर्ण अधिकार है, जबकि असनातनी धर्मों में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। बावजूद इसके अगर कोई आपको किसी देवी देवता की पूजा- जयकारे लगाने के लिए बाध्य करता है, तो वह न तो स्वयं सनातनी है और न उसका संरक्षक। यह आचरण हमारे धर्म के मूल सिद्धांत के ही विरुद्ध है।
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इस सप्ताह भाजपा की महिला शाखा ने देश के विभिन्न हिस्सों में अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ हो रही ज्यादतियों के लिए प्रदर्शन किया। उसी दौरान 20 अगस्त को एक अफगानी महिला सांसद रंगीना करगर को नई दिल्ली से इस्तांबुल भेज दिया गया। उनके पास राजनयिक पासपोर्ट था, जो उन्हें बिना वीजा के यात्रा करने की अनुमति देता है। इस कठिन समय में साथ न देने पर उनके मन में नाराजगी थी। उन्होंने टिप्पणी की, कि महात्मा गांधी के देश से ऐसी उम्मीद नहीं थी। वह इस बात पर अचंभित थीं, कि इस बार भारत ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया।
उन्होंने अगले दिन मैक्स अस्पताल में इलाज के लिए अपॉइंटमेंट लिया था। हम देख रहे हैं कि समाज में वैचारिक शून्यता बढ़ रही है। उच्च शैक्षिक संस्थानों में अब वैचारिक चर्चाएं ठप सी हो गई हैं। उन चर्चाओं को कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, तो कभी देशद्रोह के नाम पर दबाया जाता है। गीतांजलि में रविंद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, “हो चित्त जहां भय शून्य, माथ हो उन्नत, हो ज्ञान जहां पर मुक्त, खुला यह जग हो घर की दीवारें बने न कोई कारा”। निश्चित रूप से उच्च शैक्षिक संस्थानों और घरों में निष्छल मुक्त विचार मंथन होने चाहिये। जब उन स्वच्छंद चर्चाओं पर विराम लगता है, तो ज्ञान बाधित होता है। यह विचारधारा ही फांसीवाद कहलाती है, जो हमें असहिष्णुता की ओर ले जाती है। वैचारिक रूप से समृद्ध होने के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं को भय, अविश्वास और अज्ञानता से दूर, खुली चर्चाओं विचारों-आलोचनाओं के लिए स्वतंत्र रखना चाहिए।
हम पिछले कुछ सालों से देख रहे हैं कि एक धर्म विशेष के लोगों पर हमले आम बात हो गई है। अब जातिगत हमले भी बढ़ने लगे हैं। महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में दलित जाति के एक व्यक्ति के शव को पिछड़ी जाति के लोगों ने श्मशान में अंतिम संस्कार करने से रोक दिया। जातिगत भेदभाव के नाम पर जब पिछड़ी जातियां आरक्षण लेती हैं, तब भी अगर वह दलितों के साथ ऐसा करें, तो उसे असहिष्णुता के सिवाय और क्या संज्ञा दी जाये। इन सब पर चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हम तालिबान और दूसरे जिहादी संगठनों को कटघरे में खड़ा करने में देरी नहीं करते मगर जब हमारे देश में इसी तरह की संस्कृति अपनाई जाती है, तब मौन साध लेते हैं। यूपी के मुजफ्फरनगर में क्षत्रिय पंचायतों ने फरमान जारी किया कि लड़कियां जींस-टॉप नहीं पहन सकेंगी। इस फरमान के बाद भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। देवरिया में 16 साल की लड़की को उसके चाचा और दादा ने पीट-पीटकर मार डाला क्योंकि लड़की मना करने के बाद भी, जींस पहनने की गलती कर बैठी।
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दिल्ली में दो अलग अलग घटनाओं में दलित बच्चियां बलात्कार का शिकार हुईं। पुलिस ने सबूत मिटाने के लिए मनमानी अंतिम संस्कार करवा दिया। क्या ऐसी ही घटनायें किसी कुलीन परिवार की बच्ची से होती, तब भी पुलिस यूं ही करती? शायद कभी नहीं। ऐसा करते वक्त न तो पुलिसकर्मियों में सहिष्णुता दिखी और न सरकार में अपराधबोध। सरकार घटनाओं की निंदा करने के बजाय सच बोलने वाले विपक्षी नेताओं को निशाने पर लेने में लगी रही।
अफगानिस्तान या ईरान-ईराक की ज्यादतियों पर चर्चा करने के पहले जरूरी है कि हम आत्मावलोकन करें। हमें देखना चाहिए कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। कहीं हम हिंदू कट्टरपंथी तो पैदा नहीं कर रहे? धर्मांतरण कानून के जरिए सरकार उस कट्टरपंथ को प्राश्रय दे रही है, जो हमें असहिष्णु बनाता है। दिल्ली में एक कर्तव्यनिष्ठ एसएचओ को सिर्फ इसलिए सजा दे दी गई, क्योंकि वह कट्टरपंथी हिंदूवादियों की गैरकानूनी हरकतों का विरोध कर रहा था। हम गांधी-नेहरू के बनाये देश में रहते हैं। उनके आदर्शों पर चलकर ही, हम आज विश्व में एक सम्मानजनक स्थान पा सके हैं।
अगर हम उनकी नीतियों से किनारा करके असहिष्णुता और हिंसा की राह अपनाएंगे, तो तय है कि हम भी तालिबानियों की तरह हो जाएंगे। जरूरत इस विषय पर चिंतन और चर्चा की है। कोई धर्म किसी दूसरे धर्म को खत्म नहीं कर सकता, जब तक कि उसको मानने वाले अपने मूल सिद्धांतों से न भटकें। आज हम दूसरे असहिष्णुता वाले कट्टरपंथियों के प्रभाव में अपनी वैदिक रीति-नीति से भटक रहे हैं, जो हमारी धर्म-संस्कृति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जरूरी है कि हम मानवता और नैतिकता के धर्म को अपनायें, हिंसा को नहीं।
अजय शुक्ल