महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बने रह पाने के लिए उनका विधान परिषद में राज्यपाल की ओर से मनोनयन बेहद जरूरी है। राज्य कैबिनेट की ओर से दो बार राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को प्रस्ताव भेजा जा चुका है।
राजभवन की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने के बाद उद्धव ठाकरे ने बुधवार को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी से भी बात की। महाराष्ट्र में संभावित राजनीतिक संकट को लेकर विशेषज्ञों की राज्य बंटी हुई है।
क्या राज्यपाल के लिए राज्य कैबिनेट के प्रस्ताव के मुताबिक उद्धव ठाकरे को मनोनीत करना आवश्यक है या यह उनके विवेक पर निर्भर है? आइए जानते हैं विशेषज्ञ इस पर क्या कहते हैं।
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मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे इस समय विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य नहीं हैं। वह बिना चुनाव लड़े ही राज्य के मुख्यमंत्री बने थे।
लेकिन संविधान के अनुच्छेद 164 (4) के मुताबिक, यदि सदन से बाहर का कोई व्यक्ति मंत्री या मुख्यमंत्री बनता है तो शपथ ग्रहण से छह महीने के भीतर विधानसभा या विधान परिषद (जिन राज्यों में है) का सदस्य बनना अनिवार्य है।
यदि उद्धव ठाकरे को राज्यपाल विधान परिषद के लिए मनोनीत नहीं करते हैं तो वह इस्तीफा देकर दोबारा शपथ ले सकते हैं या शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन को एक केयर टेकर मुख्यमंत्री चुनना होगा।
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि यह राज्यपाल का फैसला होगा। उन्होंने कहा, ”संविधान राज्यपाल को किसी मुद्दे पर विवेक से फैसला लेने की इजाजत देता है।
यदि राज्यपाल यह फैसला करते हैं कि वह अपने विवेक से किसी मुद्दे को निपटाएंगे तो इस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करने को बाध्य हैं, लेकिन तब नहीं जब वह अपने विवेक से फैसला लें।”
कश्यप ने कहा कि राज्यपाल किसी मुद्दे को राष्ट्रपति के सामने भी रख सकते हैं, जो दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट से सलाह ले सकते हैं। कश्यप आगे कहते हैं, ”दूसरा मुद्दा यह है कि क्या मनोनीत सदस्य मंत्री या मुख्यमंत्री हो सकते हैं? केंद्रीय स्तर पर तो पिछले 70 साल में ऐसी कोई नियुक्ति नहीं हुई।
लेकिन राज्य के स्तर पर बिहार और महाराष्ट्र में पहले ऐसा हुआ है। मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूं कि मनोनीत सदस्य का मंत्री या मुख्यमंत्री होना लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है, हालांकि यह अवैध नहीं है।”
संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य की राय अलग है। उनका कहना है कि राज्यपाल किसी फैसले को अनिश्चित समय तक लटका कर नहीं रख सकते हैं और उन्हें कैबिनेट के परामर्श के मुताबिक ही काम करना होता है।
आचार्य ने आगे कहा, ”हमारे संवैधानिक ढांचे में राज्यपाल स्वतंत्र रूप से फैसले नहीं कर सकते हैं और इस मामले में कोई विवेकाधिकार नहीं है, क्योंकि यह कार्यपालिका से जुड़ा मुद्दा है।
किसी सदस्य को विधान परिषद या राज्यसभा के लिए मनोनीत करना कार्यपालिका से जुड़ा है और राज्यपाल मंत्री समूह की सलाह पर ही काम कर सकते हैं।”
राज्यपाल कार्यालय ने 1951 के जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 151A का हवाला दिया है जिसके मुताबिक किसी रिक्तता के संबंध में चुनाव या मनोनयन तब नहीं हो सकता है जबकि उसका कार्यकाल एक साल से कम बचा हो। जिन दो सीटों से मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को मनोनीत किया जा सकता है उनका कार्यकाल 6 जून को पूरा हो रहा है।
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सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े कहते हैं कि प्रावधान केवल सीटों खाली रखने के लिए है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सीट को रिक्त ही रखा जाएगा। उन्होंने कहा, ”प्रावधान कहता है उन्हें चुनाव कराने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन कैबिनेट का फैसला यदि उन सीटों को भरने का है तो राज्यपाल कैबिनेट के परामर्श को मानने के लिए बाध्य हैं।”
उन्होंने कहा, ”इसके बावजूद मैं कहूंगा कि राज्यपाल को मंत्री परिषद की सलाह के मुताबिक ही काम करना है, भले ही सदस्य का कार्यकाल जितना भी हो। इसका प्रभाव नहीं होना चाहिए। फैसले को रोके रहने की बजाय राज्यपाल को मंत्री परिषद से स्पष्टीकरण मांगना चाहिए और फैसला लें।”