मुल्क मूवी रिव्यू: हम उन्हें अपना बनायें किस तरह, वो हमें अपना समझते ही नहीं
कहते हैं सुबह का भूला शाम को वापस आ जाये तो उसे भूला नहीं कहते। अनुभव सिन्हा द्वारा लिखी गयी और उनके निर्देशन में बनी “मुल्क” इस कहावत पर कई बार सटीक बैठती है।
कुछ लोग तो वक़्त पर ग़लती का एहसास होने या किसी दोस्त का सहारा मिलने पर संभल जाते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें कुछ नहीं मिलता। ना अच्छी सोच, ना अच्छी राह और ना ही उस रास्ते का भला बुरा बताने वाला कोई।
फ़िल्म की कहानी शुरू होती है मुराद अली मोहम्मद(ऋषि कपूर) की बर्थडे पार्टी से। मुराद की बहू आर्ती (तापसी पन्नू) इस जश्न के लिए खास तौर पर आती है। मुराद अपनी पत्नी (नीना गुप्ता), अपने छोटे भाई बिलाल मोहम्मद (संजय पाहवा), उसकी पत्नी(प्राची शाह), बेटे शाहिद(प्रतीक बब्बर) और बेटी आयत के साथ एक ही घर में रहता है। मुराद के जन्मदिन के एक दिन बाद ही कानपुर में इंडिया का मैच होता है। शाहिद इस मैच में जाने के लिये निकलता है और उसके अब्बू बिलाल ख़ुद उसे छोड़ कर आते हैं। लेकिन अगले दिन इलाहाबाद में एक बम ब्लास्ट हो जाता है जिसमें 16 लोगों की जान चली जाती है। इस बम ब्लास्ट के तीन मुख्य आरोपियों में शाहिद का नाम सामने आता है। इस तरह की किसी घटना में शाहिद का नाम आने से और उनके बेटे को आतंकवादी कहे जाने से पूरा घर सदमे में आ जाता है। ज़ाहिर है किसी ने भी ऐसा कुछ नहीं सोचा था। लेकिन जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती जाती है शाहिद के अब्बू को गिरफ्तार कर लिया जाता है और कोर्ट केस शुरू होता है। इस कोर्ट केस में आर्ती उनकी वकील बनती है और उनकी पैरवी करती है। हालांकि मुराद ख़ुद पेशे से वकील होते हुए भी लंबे समय तक इस केस की पैरवी नहीं कर पाते। लेकिन ये कोर्ट केस मुराद और उनके घरवालों की ज़िंदगी का तख़्ता पलट कर देता है।
फ़िल्म के ट्रीटमेंट की बात करें तो अनुभव सिन्हा इसे और बेहतर कर सकते थे। फ़िल्म का फर्स्ट हाफ देखकर मुझे हाल ही में रिलीज़ हुई ‘सूरमा’ का ख़याल आ गया। दोनों फिल्मों में एक समानता है कि दोनों ही फिल्मों के फर्स्ट हाफ की ज़रूरत नहीं थी। इंटरवल से पहले की कहानी को बेवजह खींचा गया है। हर चीज़ इधर उधर है। कुछ भी कसा हुआ नहीं है। हर सीन बेवजह का लगता है। फ़िल्म के जिस हिस्से को 10 मिनट में पूरा किया जा सकता था उसपर एक घंटे का वक़्त ज़ाया किया गया। लेकिन इंटरवल के बाद फ़िल्म रफ्तार पकड़ना शुरू करती है। इंटरवल के बाद हमे फ़िल्म का वो पहलू देखने के लिए मिलता है जिसका हमसे वादा किया गया था, जो हमने ट्रेलर्स में देखा था। फ़िल्म के इस सेकंड के हाफ के लिए ही आपको सिनेमा हॉल तक जाने की ज़रूरत है। अनुभव सिन्हा ने बहुत बारीकी से इतने विवादित मुद्दे को उठाया है। इस तरह के विषय पर फ़िल्म बनाते वक्त खास ध्यान देना पड़ता है। क्योंकि ज़रा सी ऊंच नीच किसी की भी भावना को आहत कर सकती है। अनुभव ने किसी भी समुदाय का पाठ लिये बिना वर्तमान भारत की सच्ची तस्वीर रखी है। सबसे ख़ास बात ये है कि वो शायद पहले ऐसे निर्देशक हैं जिन्होनें सचमुच “आतंकवाद” पर काम करने की कोशिश की। उन्होंने बताया कि संविधान के मुताबिक़ आतंकवाद की परिभाषा क्या है और क्यों हर मुसलमान आतंकवादी नहीं हो सकता, क्यों पत्थरबाज़ी करने वाला हिन्दू भी आतंकवादी की श्रेणी में आता है।
फ़िल्म एक और ख़ास मुद्दे पर ध्यान खींचती है, आजके वक़्त में अपने बच्चों से बात करते रहना उनकी एक्टिविटीज़ पर नज़र रखना कितना ज़रूरी हो गया है। ये मुमकिन नहीं है कि आप अपने बच्चे के साथ 24 घंटे रह सकें, लेकिन जब वो पहली बार किसी को थप्पड़ मार कर घर आता है तभी उसको इतनी ज़ोर से डांटा जाए कि वो अगली बार इसे ग़लती नहीं गुनाह समझे। चोट कभी भी पहाड़ों से टकराने पर नहीं लगती है, चोट हमेशा छोटे पत्थर से टकराने पर ही लगती है। इसलिये अपने बच्चों की ज़िंदगी के पत्थरों पर, रास्तों पर खास नज़र रखें। छोटे पत्थर ही गहरी चोट देते हैं। आपके बच्चे देश का ही नहीं आपका भी भविष्य हैं, वो किसी दूसरे को मारना सीखेंगे तो जाने अनजाने में आप पर भी हाथ उठा सकते हैं। आपको बताना होगा कि एक बिंदी ऊपर लग जाए तो ख़ुदा बन जाता है और नीचे लगा दी जाये तो जुदा बन जाता है।(अरबी भाषा में लिखने पर) दिन और दीन में मात्रा की जगह ही ज़मीन आसमान का अंतर पैदा कर देती है।
फ़िल्म में मुस्लिम समुदाय की बात करें तो बॉलीवुड निर्देशकों से मुझे एक ज़ाती शिकायत है कि अगर वो किसी खास समुदाय पर फ़िल्म बना रहे हैं तो कम से कम उसके एक जानकार लेखक से मदद ले लें। जैसे हमारे यहां आम बोलचाल में निकाह शब्द का इस्तेमाल ही नहीं होता, सब शादी ही कहते हैं। निकाह तो शादी की रस्मों का एक हिस्सा है। फ़िल्म में मुस्लिम समुदाय को लेकर और भी छोटी-छोटी खामियां दिखायी गयी हैं जिन्हें थोड़ी सी मदद से ठीक किया जा सकता था। वहीं तापसी पन्नू और उनके पति के बीच की अनबन की वजह को भी अधर में छोड़ दिया गया। तापसी के सवालों का छोटा ही सही मगर जवाब दिया जाना ज़रूरी था।
जहां तक अभिनय की बात की जाये तो ऋषि कपूर के लिये ये बहुत आसान रोल था। संजय पाहवा एक डरे हुए छोटे भाई और बाप के किरदार में रुला ही देते हैं। तापसी पन्नू पहले भी कोर्ट ड्रामा का हिस्सा रह चुकी हैं भले वो पहले विक्टिम थीं और अब एक वकील। उन्होंने अपने किरदार के साथ इंसाफ करने की पूरी कोशिश की है मगर अभी थोड़ी कसर बाक़ी है। वहीं आशुतोष राणा ने एक निघरघट्ट वकील का किरदार बहुत मज़े से किया है। उनके संवाद हमें सिर्फ हंसाते नहीं हैं बल्कि ये सोचने पर भी मजबूर करते हैं कि देश आख़िर क्या सोच रहा है। आशुतोष के किरदार के ज़रिये एक बहुत बड़े तबके की भावनाओं को दर्शाया गया है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि इससे पहले वो खुले समाज में एक विलेन का रोल करते दिखे हैं और इस फ़िल्म में एक पढ़े-लिखे सभ्य वकील के रूप में कोर्ट में वही किरदार निभा रहे हैं। सच्चाई भी यही है कि आज के समय में पढ़ा लिखा तबक़ा सबसे ज़्यादा भटका हुआ है।
कुमुद मिश्रा जज के किरदार में शुरू में जॉली एलएलबी के संजय शुक्ला की याद दिलाते हैं लेकिन फ़िल्म के क्लाइमेक्स में वो अपने चिर परिचित अंदाज़ में नज़र आते हैं। छोटे संवाद मगर गहरी चोट देते हुए। सोचने और समझने पर मजबूर करती हुई बातें।
कुलमिलाकर इस फ़िल्म को एक हिन्दू या मुसलमान नहीं बल्कि एक भारतीय होने के नाते, एक बेहतर कल की उम्मीद रखने वाले और उसे बनाने वाले इंसान के रूप में देखने जाइये। “मुल्क” हम और वो से नहीं बनता। मुल्क “हम” से बनता है जिसे मैं और आप मिलकर बनाते हैं।
खासतौर पर फ़िल्म के सेकंड हाफ के लिये मैं इसे 3 स्टार्स दूँगी। जाइये और ज़रूर देखिये इस फ़िल्म को क्योंकि इतनी ईमानदार फिल्में बहुत कम बनती है। शायद बनती ही नहीं हैं।
महविश रज़वी
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