यह तथ्य परेशान करता है कि देश के दस लाख सरकारी स्कूलों में से सिर्फ 2.47 लाख स्कूलों के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। यह संख्या महज 24 फीसदी बैठती है। दिल्ली और चंडीगढ़ अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि वहां स्कूलों में सौ फीसदी इंटरनेट की उपलब्धता है। वैसे देश की राजधानी दिल्ली व दो प्रदेशों की राजधानी चंडीगढ़ में ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं कही जानी चाहिए, क्योंकि ये शहर देश के नीति- नियंताओं के केंद्र हैं और यहां संरचनात्मक ढांचा सबल है। लेकिन बाकी राज्यों में पंजाब का बेहतर प्रदर्शन सुखद ही है।
पंजाब में करीब 47 फीसदी सरकारी स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हो सकी है। निस्संदेह, इसका श्रेय शिक्षा विभाग की सक्रियता और शिक्षकों की जागरूकता को दिया जाना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से तीन तरफ से जुड़े हरियाणा के सरकारी स्कूलों में इंटरनेट की उपलब्धता का 29 फीसदी रहना चौकाता है। सरकार की तरफ से स्कूलों में लाखों टैब व लेपटॉप बांटने व कई अभियानों बावजूद प्रतिशत कम रहना एक यक्ष प्रश्न है। दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश में 27 फीसदी व जम्मू कश्मीर में महज 22 फीसदी स्कूलों में इंटरनेट कनेक्टिविटी हो पायी है।
दरअसल, हाल ही में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने सोमवार को लोकसभा में बताया था कि देश के महज 24 फीसदी सरकारी स्कूलों में ही इंटरनेट की उपलब्धता है। जिसमें बिहार की स्थिति सबसे खराब है जहां महज 5.8 फीसदी स्कूलों में ही इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। कमोबेश मिजोरम में 5.9 फीसदी सरकारी स्कूलों में इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। उत्तर प्रदेश में 8.8 फीसदी की उपलब्धता भी चिंताजनक स्थिति को दर्शाती है। इसी तरह ओडिशा में भी महज आठ फीसदी सरकारी स्कूलों में इंटरनेट सेवा की उपलब्धता है।
बड़े राज्यों में सबसे सुखद स्थिति केरल की बतायी जाती है जहां 94.5 फीसदी सरकारी स्कूल इंटरनेट कनेक्टिविटी से युक्त हैं। इसी तरह गुजरात में भी 94.1 फीसदी स्कूलों में इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि कोरोना संकट के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन और अन्य संचार प्रतिबंधों के बीच सरकारी स्कूलों में शिक्षा का क्या हाल रहा होगा? छात्र-छात्राओं की पढ़ाई इन दो बाधित सालों में कितनी हो पायी होगी? वैसे भी इन सरकारी आंकड़ों को यदि सही मान भी लिया जाये तो सवाल उठता है कि इन सरकारी स्कूलों में कितने फीसदी शिक्षक इंटरनेट से शिक्षण के लिये दक्ष हैं?
यह भी कि क्या कोविड महामारी जैसी आपातकालीन स्थितियों को एक नया अवसर बनाने में हम चूके हैं? यह मौका था कि हम सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का भरपूर लाभ उठाकर सरकारी स्कूलों को इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराने में जुट जाते। कहने को तो शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने दावा किया था कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी यानी आईसीटी प्रयोगशालाओं के लिये एक हजार करोड़ रुपये व राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में स्मार्ट कक्षाओं के लिये 909.6 करोड़ रुपये स्वीकृत किये गये हैं। लेकिन देखने वाली बात यह है कि कितने स्कूलों को इसका लाभ मिला और वहां इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हो पायी है। साथ ही शिक्षा मंत्री का यह भी कहना था कि दूरसंचार सुविधाओं में सुधार की जिम्मेदारी बीएसएनएल को दी गई है।
यह बात पड़ताल की मांग करती है कि ये सरकारी प्रयास जमीनी स्तर पर कितने प्रभावी नजर आए हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि देश में शिक्षा जगत में विभाजन कितना गहरा हो चला है। एक तरफ पांच सितारा निजी स्कूल हैं, जहां धनाढ्य वर्ग, नीति-नियंताओं व संभ्रांत वर्ग के बच्चे पढ़ रहे हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में इंटरनेट जैसी मूलभूत जरूरत उपलब्ध ही नहीं है ।
निस्संदेह, सभी समस्याओं के मूल में गरीबी बड़ा कारण है। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों का नैतिक दायित्व बनता है कि सरकारी स्कूलों को वैश्विक धारा के अनुकूल बनाने के लिये अविलंब इंटरनेट जैसी मूलभूत सुविधा उपलब्ध करायें। अन्यथा हम देश में पढ़े-लिखे निरक्षरों की फौज ही तैयार करेंगे। यही वजह है कि देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले बेरोजगार छात्र चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरियों के लिये आवेदन करते नजर आते हैं। देश में स्वयंसेवी संगठनों, उद्योगपतियों तथा जिम्मेदार नागरिकों को सरकारी स्कूलों को मुख्यधारा में लाने के लिये अपना योगदान देना चाहिए।