असम में नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के फ़ाइनल ड्राफ्ट के प्रकाशन से बीजेपी में ख़ुशी की लहर है. ये बात बहुत से लोगों को पता है.
लेकिन, एनआरसी के फ़ाइनल ड्राफ़्ट के प्रकाशन से अरबिंदा राजखोवा की अगुवाई वाले पूर्व चरमपंथी संगठन, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम यानी उल्फ़ा में भी ख़ुशी की लहर है. यही नहीं, एनआरसी के फ़ाइनल ड्राफ़्ट के सार्वजनिक होने से उग्र राष्ट्रवादी और नस्लीय संगठन ऑल असम स्टूडेंट यूनियन यानी आसू भी बहुत ख़ुश है.
मौजूदा मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल भी आसू के पूर्व अध्यक्ष हैं. सोनोवाल उस वक़्त आसू के अध्यक्ष थे जब ये संगठन बेहद सक्रिय था. वहीं, उल्फ़ा बहुत से गैर-असमिया भारतीय नागरिकों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार है.
तो, इससे पहले कि हम एनआरसी पर चर्चा करें, हमें उन किरदारों को समझना होगा, जो एनआरसी के ड्राफ्ट के प्रकाशन से बहुत ख़ुश हैं.
दिल्ली, असम और बंगाल से बहुत दूर है. इसीलिए दिल्ली के मीडिया ने एनआरसी के विरोध को हिंदू-मुसलमान का सवाल बना दिया. ऐसा ख़ास तौर से इसके बंगाली मूल के अनुवादकों की वजह से हुआ, जिन्हें ज़मीनी सच्चाई की कोई समझ नहीं है.
नतीजा ये कि आज एनआरसी का विरोध हिंदू-मुसलमान का झगड़ा बताया जा रहा है. हालात की ये ग़लत तस्वीर बीजेपी के लिए मुफ़ीद है. वो बड़ी आसानी से ये कह सकती है कि- देखो टीएमसी और कांग्रेस मुसलमानों के साथ खड़े हैं.
और, इस कहानी का गैर-बीजेपी पहलू जो बताया जाता है, उसमें मुद्दे की जानकारी, उसकी समझ, सच्चाई की पड़ताल के लिए ज़रूरी मेहनत और कल्पनाशीलता की भारी कमी है. आसान सा तरीक़ा ये है कि मुस्लिम को पीड़ित बता दिया जाए, क्योंकि मुस्लिम समाज भी पीड़ित के तमगे के साथ दोयम दर्जे का नागरिक बनने का आदी है.
जब हिंदू-मुसलमान का झगड़ा बताने की आदत पड़ गई हो, तो सच्ची जानकारियों की तलाश की ज़हमत कौन उठाए.
मगर, अब वक़्त बदल रहा है. इसका ये मतलब है कि ज़मीन से जुड़ी आवाज़ें पूरी ताक़त और साफ़गोई से अपनी बात रख सकती हैं. अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्हें दिल्ली दरबार के किसी भी तरह के दरबान की ज़रूरत नहीं है.
तो ये ज़मीन से जुड़े लोग क्या हक़ीक़त बयां कर रहे हैं?
वो इस झूठ का पर्दाफ़ाश कर रहे हैं कि एनआरसी मुस्लिम विरोधी है. एनआरसी, बुनियादी तौर पर बंगाली विरोधी है. फिर वो हिंदू बंगाली हो या मुस्लिम बंगाली. और चूंकि ये प्रक्रिया इतनी बड़ी और पेचीदा है कि बंगाली विरोधी इस मुहिम की चपेट में गोरखा समुदाय जैसे छोटे-मोटे समूह भी आ गए हैं.
बंगाल में पिछले कई दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है कि सत्ताधारी टीएमसी और प्रमुख विपक्षी दल सीपीएम किसी मुद्दे पर एकजुट हो गए हैं. तृणमूल कांग्रेस ने अपने सांसदों की एक टीम असम भेजी थी, जो वहां के नागरिकों की एक बैठक में शामिल होने गई थी.
लेकिन, असम पुलिस ने टीएमसी सांसदों की टीम को सिलचर हवाई अड्डे पर बलपूर्वक रोक लिया. उन्हें हवाई अड्डे से बाहर ही नहीं निकलने दिया. वहीं बंगाल में दलितों के सबसे बड़े समुदाय माटुआ ने पूरे राज्य में रेलवे का चक्का जाम किया.
माटुआ समुदाय ने रेल रोको आंदोलन, उन लाखों दलित हिंदू बंगालियों के समर्थन में किया, जिनके नाम असम के नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न के फ़ाइनल ड्राफ़्ट में नहीं हैं.
ममता की पकड़ नहीं पर उनसे उम्मीद क्यों?
यही नहीं, तल्ख़ बयानों के लिए मशहूर बीजेपी के विधायक शिलादित्य देब ने माना कि एनआरसी से बाहर रह गए ज़्यादातर लोग हिंदू बंगाली हैं. शिलादित्य देब जो मुस्लिम विरोधी बयानों के लिए मशहूर हैं, वो ख़ुद भी एक हिंदू बंगाली हैं.
चूंकि शिलादित्य का असली वोट बैंक होजाई और आस-पास के हिंदू बंगाली ही हैं, तो, उन्हें पता है कि किस तरह से हिंदू बंगालियों में ख़ुद को निशाना बनाए जाने पर नाराज़गी है. और इन लोगों को इसलिए नहीं निशाना बनाया जा रहा कि वो हिंदू हैं. वो इसलिए निशाने पर हैं, क्योंकि वो बंगाली हैं.
मुस्लिम बंगाली तो और भी डरे हुए हैं. क्योंकि, कोई भी बंगाली अगर मुसलमान है, तो बीजेपी तुरंत ही उसे बांग्लादेशी करार दे देती है. असम के बंगाली बहुल बक्सा ज़िले में हिंदू बंगालियों ने एनआरसी के ख़िलाफ़ सड़कें जाम कर दीं और ममता बनर्जी के समर्थन में नारेबाज़ी की. जबकि ममता बनर्जी की पार्टी की असम में ज़रा भी ज़मीनी पकड़ नहीं है.
मुश्किल हालात से गुज़र रहे लोगों को ममता बनर्जी में इसलिए उम्मीद दिखती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि कम से कम वो उनके हक़ में खड़ी तो हुईं. आज लाखों भारतीय अपने ही वतन में बेमुल्क के नागरिक घोषित किए जाने के डर से इसलिए घिरे हैं, क्योंकि वो बंगाली हैं.
असम में आसू और उल्फा जैसे संगठनों में बंगाली विरोधी सोच पहले से ही थी. जब इसका मेल बीजेपी की मुस्लिम विरोधी विचारधारा से हुआ, तो उसका नतीजा एनआरसी की प्रक्रिया के दौरान सामने आया.
हिंदू बंगालियों को सब्ज़बाग़ दिखाए गए, ताकि आसू के पूर्व अध्यक्ष सर्बानंद सोनोवाल असम के मुख्यमंत्री बन जाएं. उन्हें हिंदू बंगालियों के वोट इसलिए मिले, क्योंकि बीजेपी ने उन्हें ये भरोसा दिया था कि वो हिंदू बंगालियों को मुस्लिम बंगालियों से अलग करके देखेगी.
लेकिन, एनआरसी का फ़ाइनल ड्राफ़्ट ये साबित करता है कि बीजेपी ने हिंदू बंगालियों को ठग लिया. ख़ुद पार्टी के विधायक शिलादित्य देब ने माना कि जिनके नाम एनआरसी के फ़ाइनल ड्राफ्ट में नहीं हैं, उनमें से ज़्यादातर हिंदू हैं और बंगाली हैं.
अलग-अलग राज्यों में बांग्लादेशी होने की परिभाषा
अब इन दोनों बयानों को मिलाकर देखिए. हिंदू बंगालियों ने ये भी देखा कि जिस नागरिकता बिल मे संशोधन से उन्हें नागरिकता का सब्ज़बाग़ दिखाया गया था, उसे बीजेपी की असम इकाई के उग्र नस्लवादी बंगाली-विरोधी नेताओं ने रोक दिया. बीजेपी असल में असमिया और बंगालियों के बीच फंस गई थी. तो, पार्टी ने पहले बंगालियों के वोट हासिल किए, फिर उन्हें उठाकर फेंक दिया.
भारत में बांग्लादेशी का मतलब बांग्लादेश के वो नागरिक होने चाहिए, जो ग़ैरक़ानूनी रूप से भारत में हैं. लेकिन बीजेपी की सांप्रदायिक सियासत में बांग्लादेशी का मतलब सारे मुस्लिम बंगाली हैं. बीजेपी के शासन वाले राज्यों जैसे महाराष्ट्र और हरियाणा में अक्सर मुस्लिम बंगालियों को बांग्लादेशी बता कर जेल में डाल दिया जाता है.
जब बात असम और आस-पड़ोस के बीजेपी प्रशासित राज्यों की आती है, तो बांग्लादेशी का दायरा और बढ़ जाता है. तब बांग्लादेशी का मतलब सारे बंगाली हो जाते हैं. फिर वो हिंदू हों या मुसलमान, भारतीय हों या ग़ैर-भारतीय.
हमने इसकी मिसाल मेघालय में देखी. वहां पर एनआरसी के फ़ाइनल ड्राफ़्ट के छपने के बाद उग्रवादी संगठनों ने अवैध चेक-पोस्ट बना लीं. वहां पर बंगाली दिखने वाले हर शख़्स से नागरिकता से जुड़े दस्तावेज़ मांगे जाने लगे.
अरुणाचल प्रदेश में भी ऐसा ही सफ़ाई अभियान चलाए जाने का एलान किया गया है, जिसकी मियाद 14 दिन तय की गई है. मणिपुर में भी नागरिकता के रजिस्टर की योजना बन रही है, जिसमें कट-ऑफ़ का साल 1951 रखने की बात की जा रही है. मणिपुर के बंगाली बहुल जिरीबाम इलाक़े में पहले ही बंगाली विरोधी माहौल देखने को मिलता रहा है.
सियासत में ‘बांग्लादेशी’ शब्द का इस्तेमाल जातीय उग्रवाद की राजनीति करने वालों के बीच शुरू हुआ था. बीजेपी ने इसको बढ़ावा ही दिया है. लेकिन, इसका इतिहास बड़ा पेचीदा और मुश्किल रहा है.
असम में लंबे समय से ‘असम केवल असमियों का’ जैसे नारे दिए जाते रहे हैं. इस तरह के नारों का नतीजा 1961 में सिल्चर के बंगाली विरोधी हत्याकांड के तौर पर सामने आया. असम की नस्लवादी राजनीति के चलते वहां की बराक घाटी में रहने वाले बंगाली भाषी मूल निवासियों की हत्याएं हुईं.
उन पर अपनी मातृभाषा बांग्ला छोड़ने का दबाव पड़ा. असम में उग्र जातीयता के निशाने पर नेल्ली और सिलापाथोर के गैर-असमिया निवासी भी आए. बाद में गैर-असमिया लोगों के ख़िलाफ़ मुहिम उल्फ़ा के उग्र हिंसक अलगाववादी आंदोलन के तौर पर सामने आई.
बुनियादी तौर पर ये सारे आंदोलन उग्र राष्ट्रवादी मिज़ाज के हैं. जो विशुद्ध जातीयता वाले राज्य की मांग करते हैं. लेकिन ये विविधता में एकता के सिद्धांत के बिल्कुल ख़िलाफ़ है. उल्फ़ा की सैन्य पराजय और असम गण परिषद (ये चरमपंथी संगठन आसू का सियासी मुखौटा थी) के हाशिए पर जाने से गैर-असमिया लोगों के खिलाफ विरोध की तुर्शी धीमी हो गई.
अब इसके लिए नई रणनीति तलाशी जाने लगी. बंदूक उठाकर भारत गणराज्य को नहीं हराया जा सकता था. नई रणनीति ये बनी कि जब आप उन्हें हरा नहीं सकते, तो उनके साथ हो जाइए. नतीजा ये कि हर तरह के भारत-विरोधी संगठन, अचानक से बेहद राष्ट्रवादी हो गए.
इससे अक्सर हिंसा का शिकार होने वाले बिहारियों और मारवाड़ियों ने राहत की सांस ली. अब विरोध के निशाने पर असम में मौजूद सबसे बड़े गैर-असमिया समुदाय यानी बंगालियों को लिया गया.
तो, जो संगठन जो गैर-असमिया लोगों का विरोध किया करते थे, यानी एक तरह से गैर-असमिया भारतीय नागरिकों का विरोध करते थे. वो रातों-रात उग्र भारतीय राष्ट्रवादी बन गए और खुद को बांग्लादेशी विरोधी बताने लगे. बांग्लादेशी का मतलब अब असम में मौजूद सारे बंगाली हो चुके थे. अब वो ही बंगाली असमिया माने जाने थे, जिन्हें ये संगठन असमिया मानें.
इसी बांग्लादेशी विरोधी शोर का इस्तेमाल मुस्लिम विरोधी बीजेपी के स्वागत में किया गया, जो असम और आस-पास के राज्यों में पांव पसारने में जुटी थी. और इस तरह से मुस्लिम विरोधी बीजेपी और असम के उग्र जातिवादी संगठनों का मौक़ापरस्त महागठबंधन बन गया.
इनके निशाने पर मुस्लिम बंगाली थे. उनके विरोध के लिए हिंदू बंगालियों का बलिदान ज़रूरी बताया गया. जातीय हिंसा के निशाने पर आए गोरखा जैसे छोटे-मोटे समुदाय को बड़े मिशन के लिए छोटी-मोटी क़ुर्बानी बता दिया गया.
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सांप्रदायिक नफ़रत पैदा करने वाले मीडिया के माहौल में 40 लाख से ज़्यादा इंसानों, जिनमें बहुत से भारतीय नागरिक भी हैं, को बेमुल्क का इंसान घोषित कर दिया गया. जब ये प्रक्रिया चल रही थी, तब बहुत कम लोगों ने इस पर सवाल उठाना मुनासिब समझा था.
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अब तस्वीर तेज़ी से बदल रही है. एनआरसी के नाम पर हुआ घोटाला दिनों-दिन साफ़ हो रहा है. अपने आप में मगन केंद्र सरकार हो, या फिर असम में सरकार चलाने वाले लोगों का समूह, किसी को ये परवाह नहीं है कि एनआरसी की प्रक्रिया से 40 लाख से ज़्यादा लोग नागरिकता के अधिकार से वंचित कर दिए गए.
इतनी बड़ी तादाद में लोगों को बेमुल्क का ठहराने की कोई और हालिया मिसाल नहीं याद पड़ती. सरकार को इस बात की परवाह भी नहीं है कि ये तमाम अंतरराष्ट्रीय परंपराओं और उन घोषणापत्रों के ख़िलाफ़ है, जिन पर भारत ने भी दस्तख़त किए.
उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं कि इतनी बड़ी संख्या में इंसानों की नागरिकता छिन जाने के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर दूसरे और बाहरी संगठनों के दखल से आम भारतीय को शर्मसार होना पड़ेगा. अगर इसे रोका नहीं गया तो ये तय है कि हम बेख़याली में एक बड़ी तबाही की तरफ़ बढ़ रहे हैं
क्या भारत में ऐसे लोग हैं जो नागरिक नहीं हैं और अवैध रूप से देश में दाखिल हो गए हैं? हां, ऐसे लोग हैं. तो, ये पता लगाने के लिए कौन देश का नागरिक नहीं है, पहले हमें ये पता लगाना होगा कि आख़िर नागरिक कौन है? भारत में सक्रिय कोई भी क़ानूनी राजनैतिक दल इसके ख़िलाफ़ नहीं है.
अब सवाल ये पैदा होता है कि ये कैसे तय होगा कि कोई भारत का नागरिक है या नहीं?
आप इस बात को किसी भी तरह से निर्धारित करें, इसके लिए निष्पक्षता और क़ानून के सामने बराबरी जैसी बुनियादी शर्तें पूरी करना ज़रूरी होगा. इसका ये मतलब है कि नागरिकता तय करने के लिए निष्पक्ष सबूतों की ज़रूरत होगी. सबूतों का मतलब है दस्तावेज़ी सबूत, जिनकी प्रतिलिपि, नागरिकता तय करने वाली एजेंसी को सुरक्षित रखनी होगी, जिसकी जनता पड़ताल कर सके.
इसका ये मतलब है कि नागरिकता की पड़ताल के दायरे में वो सभी लोग आएंगे, जो भारत गणराज्य के परिक्षेत्र में रहते हैं. इसका ये मतलब है कि नागरिकता की जांच करने वाली एजेंसी भारत की सरकार या इसके नागरिक के हाथ में नहीं हो सकती. इसका ये भी मतलब है कि नागरिकता की जांच का काम सरकार की निगरानी में नहीं हो सकता.
एनआरसी के रजिस्ट्रेशन के दौरान इनमें से किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया गया. तो, कुल मिलाकर असम में एनआरसी तैयार करने की प्रक्रिया वही बन गई, जिस मक़सद से इसे शुरू किया गया था. यानी बंगालियों और कुछ दूसरे समुदायों को नागरिकता के दायरे से क़ानूनी तरीक़े से बाहर करना. ताकि, दिल्ली, नागपुर और गुवाहाटी में बीजेपी की नस्लवादी प्यास को बुझाया जा सके.
शुरुआत में तो बीजेपी ने एनआरसी ड्राफ्ट प्रकाशित होने पर ख़ूब जश्न मनाया. लेकिन अब पार्टी को लग रहा है कि वो इसके ज़रिए जो सियासी फ़सल काटना चाहती थी, उसके ख़िलाफ़ बंगालियों ने सांप्रदायिक रूप से एकजुट होकर मोर्चा खोल दिया.
बीजेपी के ख़िलाफ़ ये मोर्चेबंदी असम से लेकर बंगाल तक फैल गई है. भारत के दूसरे इलाक़े के नागरिकों को भी एनआरसी के नाम पर किए गए मज़ाक़ की असलियत समझ में आ रही है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)