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क्यों 2022-23 का बजट देश की आर्थिक चुनौतियों का समाधान कर पाने में नाकामयाब है

Muslim Today by Muslim Today
फ़रवरी 8, 2022
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क्यों 2022-23 का बजट देश की आर्थिक चुनौतियों का समाधान कर पाने में नाकामयाब है
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वित्तीय वर्ष, 2022 – 23 का बजट लोकसभा में पेश किया जा चुका है और उस पर चर्चा भी सदन में जारी है। हर बजट के समय, सरकार देश की आर्थिकी के संबंध में देश के समक्ष जो चुनौतियां होती हैं, उनका समाधान करने की कोशिश करती है। वित्तमंत्री की पेशेवराना कुशलता इसी बात पर निर्भर करती है कि, उन्होंने इस प्रकार की कितनी चुनौतियों का समाधान करने में सफलता पाई। फिलहाल देश के सामने आर्थिक क्षेत्र में जो चुनौतियां है वे देश मे व्याप्त घोर आर्थिक असमानता, दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई की दर और गांव गांव, शहर शहर फैले बेरोजगार युवाओ की भीड़ है। आज जिस प्रकार के आंकड़े और निष्कर्ष, ऑक्सफैम की रिपोर्ट से सामने आए हैं, उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हम आर्थिक रूप से एक गम्भीर विषमता के काल की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमे देश की सकल पूंजी कुछ मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हांथो में केंद्रित हो रही है और उस समृद्धि के द्वीप के चारों ओर, अभाव और विपन्नता का त्रासद सागर उफान मार रहा है। निश्चित ही यह भयावह स्थिति, देश, समाज और जनता के लिये एक प्रकार का अशनि संकेत है।

किसी भी बजट में दो प्रमुख घटक शामिल होते हैं। एक यह कि चालू वित्त वर्ष के बजट अनुमान की तुलना में खर्च का अनुमान क्या रहा है। यानी, मूल रूप से संशोधित अनुमानों के साथ, चालू वित्त वर्ष के बजट अनुमानों की तुलना। दूसरा अगले वित्तीय वर्ष के लिए बजट का अनुमान। यानी, वित्त वर्ष 2021-22 के बजटीय और संशोधित अनुमानों और वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट अनुमानों की तुलना। किसी भी बजट का एक प्रमुख विंदु, यह होता है कि, चालू वित्त वर्ष में कितनी राशि, किस मद में आवंटित की गई है। चूंकि बजट वित्तीय वर्ष समाप्त होने से पहले प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए हमें एक संशोधित अनुमान ही मिलता है, न कि वास्तविक आय व्यय के वास्तविक आंकड़े।

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आंकड़ो से यह बात स्पष्ट हो रही है कि, वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजटीय आवंटन की तुलना में, सरकार को वित्तीय वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमानों में वृद्धि हो जाने के कारण अधिक धन खर्च करना पड़ा।  इससे यह ज्ञात होता है कि, सरकार के अनियोजित खर्चों में वृद्धि हुई है।  वित्तीय वर्ष 2021-22 के वे अनुमान, जो जनवरी में पहले जारी किए गए थे, यह संकेत देते हैं कि अर्थव्यवस्था मे प्रति व्यक्ति खपत अभी भी महामारी पूर्व स्तर से काफी कम है।  इस कारण, सरकारी खर्च का बढ़ाना लाजिमी हो जाता है और यह, संशोधित अनुमान में 8% की वृद्धि से परिलक्षित हो रहा है।  सरकार ने संशोधित अनुमानों में वृद्धि के संकेत के रूप में और अधिक निवेश की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजटीय अनुमानों को, गत वर्ष के बजटीय आवंटन की तुलना में, 13% तक बढ़ा दिया है।

हाल में सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती की बात करें तो, वह स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में तो है ही, पर इन समस्याओं की जड़ कोरोना महामारी है, जो 2020 से कोविड के नए नए वैरिएंट के रूप में सामने आ रही हैं। हालांकि देश की आर्थिकी में गिरावट का दौर, 2020 के पहले से आ चुका था। सरकार, इसे स्वीकार करे या न करे, पर अर्थव्यवस्था और जीडीपी ग्रोथ के ग्राफ में गिरावट 2016-17 के वित्तीय वर्ष से शुरू हो चुकी थी। 31 मार्च 2020 के आंकड़ों तक जीडीपी विकास दर में 2% की गिरावट आ चुकी थी। कोरोना ने उस टूटती और गिरती अर्थव्यवस्था को और धक्का ही दिया है। यह अपेक्षित भी था कि, महामारी के दुष्प्रभाव को देखते हुए, बजट राशि से स्वास्थ्य और कल्याण में सरकार ने अधिक अनियोजित खर्च किया है। यह खर्च निश्चित ही अनुमान से अधिक था। तब भी कुछ अर्थशास्त्रियों की पिछले बजट के दौरान ही यह राय थी कि स्वास्थ्य के शीर्ष में धन का आवंटन अधिक होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नही किया गया। वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए आवंटित धनराशि वित्तीय वर्ष 2020-21 के वास्तविक खर्च से भी लगभग 7% कम ही रखी गयी। जबकि, वित्तीय वर्ष 2021-22 का संशोधित अनुमान, वास्तव में वित्तीय वर्ष 2020-21 में वास्तविक खर्च से 7% अधिक है। इस प्रकार, स्वास्थ्य बजट में आवंटित धनराशि से अधिक खर्च का कारण, जानबूझकर स्वास्थ्य के मद में कम धन का आवंटन है। जब बजट में, शुरू में ही धन कम आवंटित रखा जाएगा तो, आकस्मिकता में व्यय तो अधिक होगा ही। स्वास्थ्य के निजीकरण की बात सरकार इसीलिए करती है कि, निजी क्षेत्र एक उद्योग की तरह इस सेक्टर को चलाये और लोग स्वास्थ्य बीमा से प्राप्त धन से अपना इलाज कराए। एक प्रकार से यह निजी अस्पताल और स्वास्थ्य बीमा उद्योग के हित मे उठाया जा रहा सरकारी कदम है, जो कॉरपोरेट और पूंजीपतियों को ही लाभ पहुचायेगा। इसका सबसे अधिक नुकसान, गरीबो और ग्रामीण क्षेत्रो पर पड़ेगा।

अब यदि हम कुछ प्रमुख सरकारी योजनाओं पर खर्च को देखें, तो यह पाते हैं कि, महामारी के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार नुकसान या संकुचन और ग्रामीण क्षेत्रों में, लॉक डाउन जन्य कामगारों के रिवर्स माइग्रेशन की समस्या से निपटने के लिये मनरेगा में खर्च बढ़ाना पड़ा। मनरेगा को भले ही कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, यूपीए की विफलता का स्मारक कह कर मज़ाक़ उड़ाया था, पर उस संकट काल मे ग्रामीण इलाकों में अचानक बढते रोजगार और लोगों की ज़रूरतों का समाधान काफी हद तक, मनरेगा से ही सम्भव हो सका। वर्तमान वित्तीय वर्ष में भी उम्मीद थी कि, मनरेगा में बजट बढ़ेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है इस वित्तीय वर्ष में भी, मनरेगा का व्यय गत वित्तीय वर्ष से अधिक होगा। पीएम किसान डायरेक्ट मनी ट्रांसफर एक अहम योजना रही है।  हालांकि इस योजना के अंतर्गत अनुमान और वास्तविक खर्च में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। कहने का आशय यह है कि, अक्सर अनुमानित व्यय और वास्तविक व्यय में अंतर आता ही है। कभी यह अंतर अधिक व्यय के रूप में होता है तो कभी कम खर्च होता है। पर अर्थव्यवस्था में गिरावट, नोटबन्दी से लेकर महामारी तक जिन समस्याओं के दौर से लोग भुगत रहे थे, रोजगार पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ रहा था, या यूं कहिये अब भी पड़ रहा है तो रोजगार से जुड़ी राहत योजनाओं पर अधिक धन व्यय होगा ही।

अब चर्चा करते हैं, वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट आवंटन पर। सरकारी खर्च के दो मुख्य घटक होते है, एक राजस्व व्यय और दूसरा पूँजीगत व्यय। पूंजीगत व्यय यानी इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च, स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों, सड़कों, पुलों, बांधों, रेलवे लाइनों, हवाई अड्डों और बंदरगाहों जैसी संपत्तियों के निर्माण और रखरखाव में जाता है।  इस बार सरकार ने बुनियादी ढांचे के विकास में पूंजी निर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हुए पीएम गति शक्ति योजना की घोषणा की है।  पिछले बजट से, इस बार, पूंजीगत व्यय के हिस्से में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर में आवंटन वृद्धि को, सही दिशा में उठाया गया कदम बता रही है। इसमें कोई संदेह नही कि, एक उच्च पूंजीगत व्यय का अर्थ होगा बुनियादी ढांचे में अधिक खर्च और इससे अधिक रोजगार पैदा होगा। इसके अलावा जैसे-जैसे सरकार पूंजीगत व्यय बढ़ाती है, इससे अर्थव्यवस्था में विश्वास बढ़ता है और निवेश को भी आकर्षित करता है। सकल घरेलू उत्पाद में निजी निवेश की घटती हिस्सेदारी लगभग एक दशक से चिंता का एक बड़ा कारण रही है। पूंजीगत व्यय हिस्सेदारी की यह वृद्धि उसी की ओर एक कदम बताई जा रही है। इंडियन पोलिटिकल डिबेट के अनिंद्य सेनगुप्ता द्वारा बजट समीक्षा पर लिखे एक लेख में बताया गया है कि, “पिछले बजट की तुलना में इस वर्ष पूंजीगत व्यय आवंटन में 35% की वृद्धि हुई है।”

अब वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिये शीर्षवार बजट आवंटन की चर्चा करते हैं।

■ कृषि

यह एक ऐसा क्षेत्र रहा है जिसने महामारी के वर्षों के दौरान उत्पादन के मामले में सकारात्मक वृद्धि दिखाई है। जब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर शून्य से नीचे और अनौपचारिक सेक्टर लगभग तबाह हो चला था, तब कृषि ने न केवल सकारात्मक वृद्धि दर दिखाई बल्कि इसने गोता लगा रही जीडीपी विकास दर को संभालने का भी काम किया। भारत मे कृषि एक काम या रोजगार देने वाला उद्योग ही नहीं है, बल्कि एक संस्कृति है। इस सेक्टर पर, देश की एक बड़ी आबादी निर्भर है। 2018-19 से इस क्षेत्र के लिए सरकार की दो प्रमुख योजनाएं पीएम किसान सम्मान निधि (इन हैंड कैश डिलीवरी) और पीएम आशा (न्यूनतम समर्थन मूल्य) जारी रखी गयी हैं। लेकिन इस महत्वपूर्ण क्षेत्र पर भी कॉरपोरेट की गिद्ध दृष्टि पड़ी और उनके दबाव में तीन कृषि कानून, जो खेती, किसानी और किसानों को कॉरपोरेट के रहमो करम पर ला कर पटक सकते थे, लाये गए। पर एक साल से भी अधिक समय से चले किसान आंदोलन की सफलता और एकजुटता के कारण, सरकार को वे कानून वापस लेने पड़े। सरकार ने कानून तो वापस ले लिए, पर अपनी खीज नहीं छुपा पाई। उसका असर इस बजट में साफ दिख रहा है। पिछले बजट की तुलना में इस वर्ष इस क्षेत्र के लिए आवंटन में केवल 0.7% की वृद्धि देखी गई है।  पिछले तीन वर्षों में इस क्षेत्र के लिए आवंटन के हिस्से में उल्लेखनीय गिरावट आई है।  वित्तीय वर्ष 2020-21 में कुल आवंटन, 4.7% से 3.4% तक गिर गया है।  पीएम किसान सम्मान निधि के लिए आवंटन में भी समय के साथ गिरावट आई है।  पीएम आशा योजना में सिर्फ सांकेतिक आवंटन था।  यह शून्य के सबसे करीब है।  इसलिए कुल मिलाकर कृषि के प्रति सरकार की उपेक्षा साफ दिख रही है।

अखिल भारतीय किसान सभा ने बजट में कृषि की उपेक्षा को निम्न विन्दुओं से रेखांकित किया है, जिसे मैं बादल सरोज जी की फेसबुक टाइमलाइन से लेकर यहां शेयर कर रहा हूँ। इसे पढ़ें,

  • किसानों की फसल के लाभकारी दाम देने और कर्ज मुक्ति की मांग के समक्ष पिछली साल के संशोधित बजट अनुमान 474750.47 करोड़ रुपये के मुकाबले इस बार 370303 करोड़ रुपयों का आवंटन किया है।
  • ग्रामीण विकास के लिए बजट आवंटन पिछले बजट में 5.59 % था इसे घटाकर 5.23% कर दिया गया है।
  • गेंहू और धान की खरीद के लिए पिछली बार 2.48 लाख करोड़ रूपये दिए गए थे जिसे इस बजट में घटाकर 2.37 लाख करोड़ कर दिया गया है। खुद सरकार मानती है कि इसके कारण जिन किसानो को लाभ मिलना है उनकी संख्या पिछली वर्ष की 1 करोड़ 97 लाख से कम होकर 1 करोड़ 63 लाख रह जाएगी।
  • एफसीआई और अन्य खरीदी केंद्रों के लिए आवंटन में 28% की कमी की गयी है।
  • जब खाद की कीमतों में लगातार बढ़त हो रही है तब सब्सिडी में भी 25% की जबरदस्त कटौती की गयी है।
  • प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना की रकम 16 हजार करोड़ रुपयों से घटाकर 15500 करोड़ रुपये कर दी गयी है।
  • पीएम-किसान की राशि में भी 9% की कमी की गयी है। पिछली साल दावा किया गया था कि 14 करोड़ परिवार लाभान्वित होने का था , इस बार 12.5 करोड़ की बात कही गयी है। जबकि इस हिसाब से भी 6000 रु. प्रति परिवार जोड़ें तो 75000 करोड़ रूपये चाहिए थे – दिए हैं सिर्फ 68 हजार करोड़ रूपये।
  • क्रॉप हसबैंड्री में कटौती 18%, खाद्य भंडारण में 28% की कटौती की गयी है।
  • मनरेगा के बजट में पिछली साल संशोधित अनुमान 98000 करोड़ था – इस बार 73000 हजार करोड़ आवंटित किये गए हैं।

■ शिक्षा

यह एक ऐसा क्षेत्र है जो महामारी के वर्षों के दौरान बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।  ग्रामीण और शहरी, दोनों इलाक़ो के छात्रों का एक बड़ा वर्ग ऐसा रहा है जिन्होंने स्कूल छोड़ दिया या लगातार दो वर्षों तक शिक्षा से चूक गए क्योंकि वे वर्चुअल मोड में पढ़ने के लिए तकनीकी सुविधा के अभाव के कारण, सक्षम नहीं थे।  मध्याह्न भोजन योजना लोगों को शिक्षा व्यवस्था से जोड़ने के लिए बनाई गई थी। लगातार स्कूल बंदी से बच्चों पर मनोवैज्ञानिक असर जो पड़ा वह अलग। इसलिए उम्मीद थी कि बजट 2022-23 में सरकार इस क्षेत्र में पर्याप्त ध्यान देगी। लेकिन इस क्षेत्र में आवंटन में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई। इस साल शिक्षा बजट में 12 फीसदी की बढ़ोतरी ज़रूर की गई है, लेकिन कुल आवंटन में शिक्षा का हिस्सा वास्तव में वित्त वर्ष 2020-21 के बजट अनुमानों में 3.3% से घटकर 2.6% रह गया।  स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा दोनों के लिए एक ही प्रकार की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है।

■ स्वास्थ्य

यह एक ऐसा सेक्टर है जिसमें हमने बजट में अनियोजित खर्चों में पिछले दोनों साल बढ़ोतरी देखी है। कोरोना की महामारी, इसका एक बड़ा कारण रहा है। स्वास्थ्य सेक्टर में सरकार को योजनाबद्ध तरीके से, शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म दोनों ही विन्दुओं को ध्यान में रख कर काम करना होगा। शॉर्ट टर्म यानी अल्पावधि योजनाओं में, सरकार ने  देर से ही सही कोविड टीकाकरण पर ध्यान केंद्रित किया है, और टीकाकरण की गति भी बढ़ी है। पर टीका बचाव है, इलाज नहीं। लांग टर्म, यानी दीर्घावधि योजनाओं में एक मजबूत और निरंतर स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर सरकार को ध्यान केंद्रित करना होगा। महामारी की दूसरी लहर के दौरान, बुनियादी ढांचे की कमी के कारण, काफी संख्या में लोग मरे हैं। यहां तक कि, ऑक्सीजन जैसी ज़रूरी आवश्यकता की भी आपूर्ति अस्पताल नहीं कर सके। श्मशान, कब्रिस्तान तो भरे ही रहे, उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ो में गंगा में सैकड़ो शव बहते देखे गए। यह शुध्द रूप से प्रशासनिक विफलता थी। सरकार को स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर को सुनियोजित तरह से बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। बजट आवंटन के संदर्भ में, इस वर्ष स्वास्थ्य बजट में 16% की वृद्धि हुई है जो कि कुल बजट आवंटन में 13% की वृद्धि से अधिक है।  यह एक स्वागत योग्य निर्णय है।  लेकिन फिर भी कुल आवंटन के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य में हमारा आवंटन 2.4% है जो कई विकसित देशों की तुलना में काफी कम है।  इसलिए स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के लिए विशेष रूप से केंद्रित दृष्टि और उसी पर आवंटन के साथ एक दीर्घकालिक योजना की शुरुआत की उम्मीद का, इस बजट में अभाव है।

■ रोजगार सृजन

आज की सबसे ज्वलन्त समस्या है, रोजगार की कमी या बढ़ती हुयी बेरोजगारी। 2016 की आर्थिक त्रासदी नोटबन्दी, के बाद हम बेरोजगारी के मुद्दे पर लगातार पिछड़ते गए और अब हम एक ऐसे पड़ाव पर आ पहुंचे है कि देश अपनी सबसे बड़ी समस्या से रूबरू है। नवीनतम सीएमआईई डेटा के अनुसार, बेरोजगारी 8% से अधिक की स्थिति में, दिसंबर महीने के आंकड़े में दर्ज की गयी। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा 2017-18 में प्रकाशित पीएलएफएस आंकड़ों के साथ बेरोजगारी 2016 से ही, चिंताजनक रूप से बढ़ती रही है और यह अर्थशास्त्रियों के लिये, चिंता का एक विंदु रहा है। आज, बेरोजगारी का आंकड़ा, 45 साल में सबसे अधिक बढ़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त, हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि देश के 84% लोगों की आय, पिछले वर्ष की तुलना में गिरी है।  अनौपचारिक क्षेत्र जो देश के 90% के लिए रोजगार का स्रोत रहा है, उसमे 2016 से जो संकुचन आया, वह अब भी थमा नहीं है, बल्कि बढ़ा ही है बल्कि वह और सिकुड़ गया है। नोटबन्दी का निर्णय लेते समय इस विंदु पर ज़रा सा भी चिंतन, अध्ययन नही किया गया कि, नकदी विहीन या नकदी न्यून आर्थिकी का अनौपचारिक सेक्टर, जो नक़द लेनदेन पर ही निर्भर है, क्या असर पड़ेगा।

ऐसे दौर में, रोजगार सृजन का एजेंडा, सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता पर होना चाहिए। इंफ्रास्ट्रक्चर व्यय में वृद्धि से रोजगार के अधिक अवसर पैदा होंगे, यह कहा जा रहा है, और ऐसा संभव भी है। पर इसके लिये सरकारी और निजी उद्योगों में भी निवेश को बढ़ाया जाना चाहिए। सरकार को रोजगार सृजन को ही केंद्रित रखते  हुए, एक सुनियोजित योजना बनाना और उसे लागू करना होगा। आज नयी योजनाओं की तो बात छोड़ दीजिए, सरकार के अपने ही विभिन्न विभागों में भारी संख्या में रिक्तियां हैं और यह रिक्तियां साल दर साल बढ़ती ही जा रही है। सेवायोजन से जुड़ी परीक्षाओं का समय पर न होना, यदि हों, तो उनका पर्चा लीक हो जाना, तरह तरह की कानूनी मामलों पर, अदालतों में फंस जाना, आदि आदि, इन प्रशासनिक कुप्रबंधन का समाधान किया जा सकता है, बशर्ते सरकार की नीति और नीयत इससे निपटने की हो तब। बजट से उम्मीद थी कि ग्रामीण भारत में रोजगार गारंटी देने वाली मनरेगा की तरह शहरी भारत के लिए भी ऐसी ही रोजगार गारंटी योजना शुरू की जाएगी।  इस संबंध में बजट में ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई है।  इसके अलावा 2021-22 के संशोधित अनुमानों की तुलना में मनरेगा के आवंटन में 25% की कमी की गई थी।  मनरेगा के लिए आवंटन का हिस्सा भी पिछले बजट में 2.1% से घटकर 1.9% रह गया।

सरकार की प्राथमिकता में कॉरपोरेट है, और कुछ निजी पूंजीपति। यह बजट पूंजीवादी तो है ही बल्कि उसके और विकृत स्वरूप, गिरोहबंद पूंजीवाद, क्रोनी कैपिटलिज़्म की ओर ले जाता हुआ दिख रहा है। यह निश्चित रूप में घोर आर्थिक विषमता बढ़ाने वाला बजट है और नियमित रूप से आर्थिक असमानता पर जारी होने वाली ऑक्सफैम की रिपोर्ट, देश मे लगातार बढ़ रही, आर्थिक विषमता को दर्शा भी रही है। इस बजट को कुछ तात्कालिक मुद्दों को हल करने के एक प्रयास के रूप में माना जा सकता है, लेकिन, जनता से जुड़े असल मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।  पूंजीगत व्यय पर निरंतर ध्यान देने से निवेश परिदृश्य को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन असमानता के सबसे कठिन और ज़रूरी मुद्दे के बारे में बजट लगभग दिशाहीन है। विशेष रूप से शॉर्ट टर्म योजनाओं में, भारी संख्या में गरीबो की आय में वृद्धि हो सके, इस विंदु पर, किसी सुगठित योजना का अभाव है। इसके अलावा, बाजार में मांग यानी डिमांड को बढ़ावा देने के लिए धन का कोई प्रत्यक्ष हस्तांतरण या कर में कमी करने जैसी कोई घोषणा नहीं हुई है जो अर्थव्यवस्था में मांग या डिमांड को बढ़ाती। अधिक निवेश का खपत पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, लेकिन यह भी एक दीर्घकालिक उपचार है। तो संक्षेप में कहें तो इस बजट से जो, बहुत कुछ उम्मीद की जा रही थी, वह पूरी नहीं हुयी है। इसमें बेरोजगारी, गरीबी, मांग, औद्योगिक विकास, अनौपचारिक क्षेत्र का विकास, लघु, मध्यम, सूक्ष्म औद्योगिक इकाइयों में वृद्धि आदि मुद्दों को प्राथमिकता देने की नीयत का अभाव है। बस एक चीज साफ और स्पष्ट है कि, सरकार सभी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को एक एक कर के जल्दी से जल्दी बेच देना चाहती है। सरकार ने खुद कहा है कि यह बजट दूरगामी प्रभाव वाला है, और वह ‘दूर’ कब धरातल पर आएगा, शायद सरकार को भी यह पता नहीं है।

(विजय शंकर सिंह)

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