कई साथी सिर्फ लेनिन तथा एंगेल्स के उद्धरण पेश कर रहे हैं। उन्हें आज के किसान आंदोलन के संदर्भ में उसका विश्लेषण भी पेश करना चाहिए। इस लेख में ‘फ्रांस तथा जर्मनी में किसान का सवाल ‘ लेख से दो उद्धरण पेश किए जा रहे हैं जिसका कई साथी संदर्भ से हट कर अलग – अलग अर्थ निकाल रहे हैं ।
जबकि एक ही लेख में किसानों के प्रति संपूर्णता में मजदूर वर्ग और उसकी पार्टी के दृष्टिकोण को पेश करने के लिए एंगेल्स ने ये सारी बातें लिखी हैं। पहले एंगेल्स के उस पक्ष को उद्धृत कर विचार किया जाए जिसमें वह पूंजीवाद में छोटी खेती के पुराने उत्पादन संबंध को अनिवार्य रूप से समाप्त होने की बात करते हैं ।
एंगेल्स लिखते हैं “हमारी पार्टी का यह कर्तव्य है कि किसानों को बारंबार स्पष्टता के साथ जताए कि पूंजीवाद का बोलबाला रहते हुए उनकी स्थिति पूर्णतया निराशापूर्ण है, कि उनकी छोटी जोतों को इस रूप में बरकरार रखना एकदम असंभव है, कि बड़े पैमाने का पूंजीवादी उत्पादन उनके छोटे उत्पादन की अशक्त , जीर्ण-शीर्ण प्रणाली को उसी तरह कुचल देगा, जिस तरह रेलगाड़ी ठेला गाड़ी को कुचल देती है। ऐसा करके हम आर्थिक विकास की अनिवार्य प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य करेंगे और यह विकास एक न एक दिन छोटे किसानों के मन में हमारी बात को बैठाए बिना नहीं रह सकता।”
तो क्या यह बात भारत के आंदोलनकारी किसानों को उनके आंदोलन से दूर रहकर मजदूर वर्ग समझा सकता है? हम किसान आंदोलन में मजदूर वर्ग के कई संगठनों को बड़ी पूंजी और फासीवादी सरकार के खिलाफ किसानों के संघर्ष का समर्थन तथा उसमें भागेदारी करते पा रहे हैं। ऐसे ही मजदूर संगठन के कार्यकर्ताओं को एक ऐसी पुस्तिका बेचते और बताते पाया कि जिसमें बताया गया है कि छोटे किसानों की खेती पूंजीवाद में अनिवार्य रूप से तबाह हो जाएगी।
मजदूरों का यह संगठन पूरी सक्रियता से दिल्ली के आसपास के किसान आंदोलन में भागीदारी कर रहा है। किसान उनकी बात सुन रहे हैं । लेकिन क्या इस आंदोलन से दूर रहकर या बड़े पूंजीपतियों और फासीवादी सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन का उपहास करते हुए उन्हें यह बात समझायी जा सकती है ?
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अपने उसी लेख में एंगेल्स आगे लिखते हैं,” ….मझोला किसान जहां छोटी जोत वाले किसानों के बीच रहता है ,वहां उसके हित और विचार उनके हित और विचारों से बहुत अधिक भिन्न नहीं होते। वह अपने तजुर्बे से जानता है कि उसके जैसे कितने ही लोग छोटे किसानों की हालत में पहुंच चुके हैं । पर जहां मझोले और बड़े किसानों का प्राधान्य होता है और कृषि के संचालन के लिए आम तौर पर नौकर और नौकरानियों की आवश्यकता होती है, वहां बात बिल्कुल दूसरी ही है ।
कहने की जरूरत नहीं कि मजदूरों की पार्टी को प्रथमत: उजरती मजदूरों की ओर से, यानी इन नौकरों- नौकरानियों और दिहाड़ीदार मजदूरों की ओर से ही लड़ना है। किसानों से ऐसा कोई वादा करना निर्विवाद रूप से निषिद्ध है, जिसमें मजदूरों की उजरती गुलामी को जारी रखना सम्मिलित हो। परंतु जब तक बड़े और मझोले किसानों का अस्तित्व है ,वे उजरती मजदूरों के बिना काम नहीं चला सकते।
इसलिए छोटी जोत वाले किसानों को हमारा यह आश्वासन देना कि वह इस रूप में सदा बने रह सकते हैं, जहां मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, वहां बड़े और मझोले किसानों को यह आश्वासन देना गद्दारी की सीमा तक पहुंच जाना होगा। (पृ.385-86)
किसानों के अन्य पूंजीवादी प्रवृत्तियों और कमजोरियों पर प्रकाश डालते हुए एंगेल्स लिखते हैं : –
हमें आर्थिक दृष्टि से यह पक्का यकीन है कि छोटे किसानों की तरह बड़े और मझोले किसान भी अवश्य ही पूँजीवादी उत्पादन और सस्ते विदेशी गल्ले की होड़ के शिकार बन जायेंगे। यह इन किसानों की भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता और सभी जगह दिखाई पड़ रही अवनति से सिद्ध हो जाता है।, .”(पृ.386)
आज के किसान आंदोलन में भागीदारी कर रहे छोटे यहां तक की बड़े किसान भी मजदूर वर्ग की पार्टी या संगठन द्वारा समझाने के पहले ही समझ रहे हैं कि बड़ी पूंजी के हमले के कारण उनकी खेती उजड़ जाएगी। जाहिर सी बात है कि एक वर्ग के रूप में छोटी पूंजी के मालिक यानी टुटपुंजिया वर्ग बड़ी पूंजी के हमले के खिलाफ अपने अस्तित्व के बचाव के लिए लड़ेगा ही। कोई भी मजदूर वर्ग की पार्टी उसे बड़ी पूंजी के सामने आत्मसमर्पण करने की सलाह नहीं दे सकता है। यदि आप उसका उपहास उड़ाएंगे या आप उसे ज्ञान देंगे कि तुम्हारी बर्बादी निश्चित है तो उन किसानों का जवाब होगा कि “बंधु ! बर्बाद होने से तो लड़ते-लड़ते मर जाना अच्छा है ‘। इसलिए पूंजीवाद के सामने निष्क्रिय विरोध या आत्मसमर्पण कर देने की सलाह हम कतई नहीं दे सकते हैं।
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चुपचाप रह जाने की नीति पर चलते हुए जो साथी सिर्फ उद्धरणों को पेश करते हैं उनसे हमारा सवाल है कि आप किसानों को क्या कहना चाहते हैं ? क्या उन्हें लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए? बड़ी पूंजी तथा फासीवादी शक्तियों के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए क्या किसानों को चुपचाप से बड़ी पूंजी के इस हमले को सहते हुए बिखर जाना चाहिए ? एंगेल्स चुप्पी या निष्क्रयता का विरोध करते हैं। वह पूंजीवाद के द्वारा किसानों की तबाही होनेतक इंतजार करने की राजनीति का भी विरोध करते हैं। मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेवारी को बताते हुए और किसानों को मजदूर वर्ग के साथ ला खड़ा करने के लिए स्पष्ट दिशा निर्देशन देते हुए एंगेल्स आगे लिखते हैं, ” सर्वहारा की पांतों में जबरन ढकेले जाने से हम जितने ही अधिक किसानों को बचा सकें, जितने अधिक को किसान रहते हुए ही हम अपनी ओर कर सकें, उतनी ही जल्दी और आसानी से सामाजिक कायापलट संपन्न होगा। इस कायापलट को तब तक टालने से , जब तक कि पूंजीवादी उत्पादन सर्वत्र अपनी चरम परिणति पर ना पहुंच जाए और हर छोटा दस्तकार और हर छोटा किसान बड़े पैमाने के पूंजीवादी उत्पादन का शिकार न बन जाए, हमारा कोई हित साधन नहीं होगा। इसके लिए किसानों के हितार्थ जो माली कुर्बानी करनी होगी, जिसकी पूर्ति सार्वजनिक कोष से की जाएगी, वह पूंजीवादी अर्थतंत्र के दृष्टिकोण से पैसों की बर्बादी मानी जा सकती है , किंतु वस्तुतः धन का अति उत्तम विनियोग है, क्योंकि उससे आम सामाजिक पुनः संगठन के खर्च में संभवत 10 गुनी बचत होगी। अतः इस अर्थ में किसानों के साथ हम अत्यंत उदारता का व्यवहार करने में समर्थ है।”
फ्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल पुस्तिका में एंगेल्स के विचार….. खंड 3 भाग 2 ‘ ।
ये उद्धरण एक ही लेख में लगभग एक ही जगह हैं। इसलिए इन दोनों उद्धरण को संपूर्णता में ही समझा जाना चाहिए और वर्तमान आंदोलन से जोड़कर इसकी व्याख्या की जानी चाहिए । एंगेल्स लिखते हैं कि छोटे किसानों की तबाही के लिए इंतजार करने में मजदूर वर्ग का कोई भला नहीं है। यही वह महत्त्वपूर्ण पंक्ति है जो हमें इस आंदोलन के समर्थन में खड़ा होते हुए पूंजीवाद के हमले में किसानो की खेती के अनिवार्य तौर पर तबाही की बात मजदूरों द्वारा किसानों को समझाने का निर्देश देता है |
भारत के किसान एक दमनकारी फासीवादी राज्य से लड़ रहे हैं। वे वित्त पूंजी और एकाधिकार पूंजी के बड़े हमले के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में साथ देकर ही सामान्य किसानों को समझाया जा सकता है कि पूंजीवाद के अंतर्गत वे अपनी खेती नहीं बचा सकते हैं।
एंगेल्स तथा लेनिन जब इस तरह की बातें कहते हैं तो किसानों के सामने कहीं उन से आगे बढ़कर लड़ने और नेतृत्व देनेवाले संगठित मजदूर वर्ग खड़े होते हैं। आज भारत में मजदूर वर्ग और उनके संगठन की भारी कमजोरी यह है कि श्रम कानूनों में लगातार मजदूर विरोधी होने वाले सुधारों और मजदूर वर्ग के छीने जा रहे अधिकारों के बावजूद पूंजीवाद और उसकी फासीवादी सत्ता के खिलाफ कोई प्रतिरोध संघर्ष खड़ा नहीं कर पाए हैं| ऐसी स्थिति में हम किसानों को मजदूरों के पीछे आने के लिए राजनीतिक तौर पर आवाहन करने का भौतिक आधार भी तैयार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सबसे पहले तो मजदूर वर्ग की जितनी भी ताकत है उसे संगठित करके मजदूर वर्ग को श्रम कानूनों में हुए सुधारों के खिलाफ मजबूत संघर्ष की तैयारी करनी चाहिए। साथ ही जन विरोधी कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्ष को आगे ले जाना चाहिए और किसानों को इस लड़ाई में साथ देने का आवाहन करना चाहिए न कि हमें किसानों की इस लड़ाई को धनी किसानों की लड़ाई कह कर के चुप रहना चाहिए या मजदूर वर्ग को इससे अलग रहने की सलाह देनी चाहिए। वर्तमान में आंदोलनकारी किसान इस बात को –
समझ रहे हैं कि वे तबाह होने वाले हैं इसीलिए वे लड़ रहे हैं । वे इतिहास की गति नहीं समझते हैं लेकिन इतिहास ने किसानों पर समाजवाद के निर्माण की जिम्मेदारी भी नहीं दी है । यह जिम्मेवारी मजदूर वर्ग, उसके संगठन और पार्टी को दी है जिनमें कई ऐसे ऐतिहासिक क्षण में या तो चुप हैं या उद्धरण का खेल खेल रहे हैं और सिर्फ लंबे-लंबे लेख लिख रहे हैं ।
जब छोटे और मझोले किसान बड़े पूंजीपतियों से और राज्य से अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हों तो ये सारी बातें उन्हें समझाते हुए हमें क्या तटस्थ रहना चाहिए या बड़ी पूंजी के खिलाफ और फासीवादी राज्य के खिलाफ उनके संघर्ष का समर्थन करना चाहिए ? एंगेल्स तथा लेनिन अपनी रचनाओं में इस बात पर जोर देते हैं कि समाजवादी यानी मजदूर वर्ग की पार्टी उनकी छोटी जोत को बचाए रखने की गारंटी नहीं दे सकते हैं। यानी पूंजीवाद के रहते हुए बड़ी पूंजी उनकी छोटी पूंजी को अनिवार्य रूप से निगल जाएगा । इसलिए किसानों को बड़ी पूंजी के खिलाफ संघर्ष करते हुए मजदूरों के साथ तथा मजदूरों के नेतृत्व में आना चाहिए और समाजवाद के लिए संघर्ष में साथ देना चाहिए, ताकि उनके उत्पादों का सही मूल्य मिल सके और तर्कपूर्ण ढंग से मुनाफा के बजाए समाज की आवश्यकओं को केंद्र में रखकर उत्पादन किया जा सके और समाज के लिए उसे उपयोग में लाया जा सके। बदले में किसानों को समाजवादी राज्य उत्पादन के तमाम साधनों तथा उत्पादों को पूरी तरह से खरीदने की गारंटी देगी। इस तरह से किसानों को एक बेहतर जीवन दिया जा सकेगा। समाजवादी राज्य ने सोवियत संघ में यही किया था।
हमें लेनिन की यह बात याद रखना चाहिए, “सर्वहारा वर्ग वस्तुतः क्रांतिकारी, वस्तुतः समाजवादी ढंग से काम करने वाला वर्ग केवल उसी सूरत में होता है, जब वह समस्त मेहनतकशों तथा शोषितों के हरावल के रूप में शोषकों का तख्ता पलटने के लिए संघर्ष में उनके नेता के रूप में सामने आता है और काम करता है। परंतु यह काम वर्ग संघर्ष देहात में पहुंचाए बिना, देहात के मेहनतकश जनसाधारण को शहरी सर्वहारा की कम्युनिस्ट पार्टी के इर्द-गिर्द एकबद्ध किए बिना, सर्वहारा वर्ग द्वारा देहाती मेहनतकशों को शिक्षित-दीक्षित किए बिना पूरा नहीं हो सकता।” -कृषि प्रश्न पर थिसिसों का आरंभिक मसविदा, लेनिन नई संकलित रचनाएं, भाग- 4
भारत के आज की स्थिति में यह स्वीकार करना चाहिए कि लेनिन ने सर्वहारा वर्ग के जिस कार्यभार को रेखांकित किया है, उसे भारत के मजदूर वर्ग और उनके संगठन पेश कर में असफल रहे हैं ।अन्य शोषित उत्पीड़ित वर्गों के आंदोलन के समय ऐसी पहलकदमी का सर्वथा अभाव रहा है। अनिवार्य रूप से हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि मजदूर वर्ग मजदूर आंदोलन के साथ-साथ किसान आंदोलन को संगठित करने में ऐतिहासिक तौर पर यदि असफल नहीं रही तो कमजोर अवश्य रही है ।मजदूर आंदोलन ट्रेड यूनियन की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ पाया। आज तो ट्रेड यूनियन की सीमाओं में लड़े जाने वाले श्रम कानूनों में पूंजी के पक्ष में हो रहे संशोधनों के खिलाफ भी युनियन नहीं लड़ पा रही है। साथ ही किसान सहित अन्य जनवादी आंदोलनों में अपनी भागीदारी करने में काफी पीछे रह रही है। ऐसी स्थिति में हमें मजदूर वर्ग के बीच में काम करने वाले राजनीतिक संगठन के तौर पर अपना आत्मअवलोकन करना चाहिए
क्योंकि मजदूरों के मजबूत और राजनीतिक संघर्ष को खड़ा किए बगैर किसान या दूसरे शोषित उत्पीड़ित समाज उसके नेतृत्व में या उसके साथ कैसे और क्यों आएंगे ?
साभार- नरेन्द्र कुमार