11 सितम्बर, 1893 को शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानन्द कालजयी सांस्कृतिक विश्व हीरो के रूप में इतिहास में उभरे। सुबह 10 बजे ‘आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो‘ के ‘हाॅल आफ कोलम्बस‘ में आयोजन शुरू हुआ। दूर कहीं दस बार घंटे बजाए गए। घंटों की आवाज ने यहूदी, इस्लाम, हिन्दू,, ताओ, कन्फ्यूशियस, शिन्टो, जरथ्रुस्त, कैथोलिक, यूनानी चर्च और प्रोटेस्टेन्ट संप्रदायों का प्रतिनिधित्व किया। सभा भवन शांत था।
एक चिडि़या उड़ती हुई आई और सभा भवन की शांति को पंखों की फड़फड़ाहट से चीरती बाहर निकल गई। मंच पर सिसेरो और डेमोस्थनीज़ की लगभग पच्चीस फुट ऊंची मूर्तियां थीं। सिंहासननुमा एक कुर्सी दोनों मूर्तियों के बीच उद्घाटन के दिन अमेरिकी कैथोलिक चर्च के सबसे बड़े पादरी ‘कार्डिनल गिब्सन‘ के लिए रखी गई। करीब तीस कुर्सियां तीन कतारों में वक्ताओं तथा विशिष्ट अतिथियों के लिए थीं।
सम्मेलन का विचार ‘चार्ल्स कैरोल बोनी‘ नामक मशहूर वकील के दिमाग में 1893 में आया था। बोनी संवैधानिक और आर्थिक सुधारों की कई किताबें लिख चुके थे। आयोजन समिति ने लगभग दस हजार पत्र लिखे। लगभग चालीस हजार दस्तावेजों का आदान प्रदान किया। शिकागो के पोस्ट आफिस के कर्मचारी थैले भर भर समिति के दफ्तर में डाक पटकते रहे। मद्रास, बम्बई और टोकियो जैसे महत्वपूर्ण शहर सक्रिय रहे।
दुनिया के करीब तीन हजार लोगों से समिति ने सलाह ली। मद्रास स्थित ‘हिन्दू‘ अखबार के संपादक ‘जी. एस. अय्यर‘, बंबई के ‘बी.बी. नगरकर‘ और कलकत्ता के ‘पी.सी. मजूमदार‘ विशेष सलाहकार थे। ‘नगरकर‘ और ‘मजूमदार‘ ने धर्म सम्मेलन में ‘ब्रम्ह समाज‘ का प्रतिनिधित्व भी किया। कलकत्ता स्थित ‘महाबोधि सोसायटी‘ के महासचिव ‘धर्मपाल‘ और बंबई स्थित ‘जैन मुनि आत्माराम जी‘ से सक्रिय संपर्क रहा।
भारत में सूचनाओं और जानकारियों का मुख्य प्रचार ‘हिन्दू‘ अखबार ने ही किया। उसे पढ़कर ही विवेकानन्द को अमेरिका जाने की उत्कंठा हुई। हैरत की बात है अमेरिका रवाना होने के पहले विवेकानन्द ने साथी ‘स्वामी तुरीयानन्द‘ से कह दिया था ‘यह धर्म संसद उनके लिए ही आयोजित हो रही है। ऐसा उनका मन कहता है। देखना बहुत जल्दी यह सिद्ध भी हो जाएगा।‘
हाॅल में विवेकानन्द नारंगी पगड़ी और शेरवानीनुमा लंबा लबादा पहने सबको दिख रहे थे। विवेकानन्द ने बाद में लिखा कि ‘शुरुआत में यह देखकर मेरा दिल धड़क रहा था और जुबान सूख रही थी।‘ ध्यानमग्न विवेकानन्द देवी सरस्वती की प्रार्थना करते रहे।
घटना के अधिकृत ब्यौरेकार ‘बैरोज़‘ और ‘हाउटन‘ ने लिखा जब विवेकानन्द ने पहले दो शब्द ‘अमेरिकी बहनों और भाइयों‘ कहा तो कई मिनटों तक चार हजार श्रोता खड़े होकर तालियां बजाते रहे। श्रोता एक दूसरे को धकियाते उन्हें ठीक से सुनने आगे बढ़ने लगे। पहली बार अमीर अमेरिका के लोगों को लगा कि उनके संसार के बाहर भी कोई दुनिया है, जहां उनके भाई बहन रहते हैं।
कोलम्बस द्वारा अमेरिका को खोजे जाने की चार सौ सालाना जयन्ती के अवसर पर आयोजित समारोह में इस संन्यासी ने इतिहास की पर्तों को चीरकर इस तरह फेंक दिया, जैसे वे प्याज के छिलके हों। यह साबित भी किया कि दुनिया के सभी धर्मों का केवल एक उद्देश्य है ‘सत्य की स्थापना‘। यही भारत के वेदान्ती विचारकों का अन्तिम हासिल रहा है। इस घटना के बाद अमेरिका की धरती पर उस संन्यासी के भाषणों का सिलसिला शुरू हुआ।
ये भी पढ़ें: सिद्धार्थ शुक्ला के निधन पर फिल्म इंडस्ट्री में शोक की लहर…
यह बोली केवल विवेकानन्द की बोली नहीं थी। यह बोली उनके गुरु परमसिद्ध श्रीरामकृष्णदेव की शिक्षाओं का सार थी। यह बोली भारत की बोली थी। यह बोली भारत के इतिहास, उसकी समन्यवयवादी संस्कृति और उसकी एक विश्ववाद की पैरवी की बोली थी। धर्म-संसद में अपनी ऐतिहासिक सफलता के बाद शिकागो के लगभग सबसे बड़े अमीर व्यक्ति के घर पांच सितारा संस्कृति की तामझाम से लैस कमरे में नर्म गुदगुदे बिस्तर पर लेटे युवा संन्यासी के मन में भारी उथल पुथल जारी रही। यह युवा विचारक रात भर सो नहीं पाया। आंसुओं से उसका तकिया भीग गया।
मर्मांन्तक पीड़ा से बेचैन वह धरती पर यानी अपनी मां की गोद में लेटकर चीखने लगता है…‘ओह मां! नाम और प्रसिद्धि लेकर मैं क्या करूंगा जब मेरी मातृभूमि अत्यंत गरीब है। कौन भारत के गरीबों को उठाएगा? कौन उन्हें रोटी देगा? हे मां! मुझे रास्ता दिखाओ, मैं कैसे उनकी सहायता करूं? (आपकी हौसला अफजाई के कारण जारी रहेगा।)।