चौधरी साहब से मेरी पहली मुलाकात साठ के दशक में हुई थी। वह देश के उन गिने-चुने नेताओं में थे जोकि भारतीय ग्रामीण जगत और अर्थव्यवस्था को भलीभांति समझते थे। उनमें खरी बात कहने का अद्भुल साहस था।
अवाॅर्डी कांग्रेस अधिवेश में जब पंडित नेहरु ने देश में काॅपरेटिव फाॅर्मिंग के पक्ष में प्रस्ताव पारित करवाना चाहा था तो चौधरी साहब ने उसका डटकर विरोध किया था और उसे भारतीय किसानों के विपरीत बताया था। उन दिनों नेहरु जी की चारों ओर तुती बोल रही थी।
ये भी पढ़ें : लेख : न्यूयार्क टाइम्स के झूठे हैं तो क्या मोदी सरकार के आँकड़े सही हैं? : रवीश कुमार
उन्हें इस बात की आशा नहीं थी कि उत्तर प्रदेश का एक नेता उन्हें खुलेआम चुनौती देगा इसलिए उन्होंने आपा खो दिया और चिल्लाकर कहा ‘तुम्हारी यह हिम्मत कि तुम मेरा विरोध कर रहे हो’। इस घटना के बाद मेरे मन में चौधरी साहब से मुलाकात की ललक जागी।
चौधरी साहब गांधीवादी आर्य समाजी थे मगर वह धार्मिक कट्टरता से कोसों दूर थे। उनके भक्तों में सभी धर्मों के अनुयायी शामिल थे। उनका एक निश्चित वोटबैंक था। हालांकि उन्होंने 6 बार नए दलों का गठन किया मगर उनका वोट बैंक उनके साथ निरंतर जुड़ा रहा। निजी जीवन में चौधरी साहब बेहद ईमानदार थे।
इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख करना काफी दिलचस्प होगा। बताया जाता है कि उनके इकलौते बेटे अजीत सिंह का विवाह उत्तर प्रदेश के एक सिंचाई विभाग के अभियंता के परिवार में हुआ था। उन दिनों चौधरी साहब उत्तर प्रदेश के सिंचाई मंत्री थे। उनके समधी ने देहरादून में एक कोठी बनवाई थी। जब सरकारी दौरे के सिलसिले में चौधरी साहब देहरादून गए तो उनके समधी ने उन्हें भोजन पर निमंत्रित किया।
भोजन करने के बाद समधी ने उन्हें अपना बंगला दिखाया। उसे आशा थी कि चौधरी साहब उसकी प्रशंसा करेंगे मगर चौधरी साहब ने उससे पूछा ‘अरे भाई तेरा वेतन कितना है?’। वेतन सुनकर चौधरी साहब को कुछ हैरानी हुई और पलटकर पूछा ‘अरे भाई इस वेतन में शानदार बंगला कैसे बना?’ ‘तू तो रिश्वत लेता है’।
इसके बाद चौधरी साहब लखनऊ वापस लौट गए और पहुंचते ही सबसे पहला काम यह किया कि अपने समधी को नौकरी से निलंबित करने के बाद उसके आय के सूत्रों की जांच शुरू करवा दी।
चौधरी साहब अपने इकलौते पुत्र अजीत सिंह को राजनीति में लाने के सख्त खिलाफ थे इसलिए उन्होंने उसे कम्प्यूटर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उस समय अमेरिका भेजा था। बाद में जब चौधरी साहब पर पक्षघात का हमला हुआ तो अजीत सिंह को अमेरिका से वापस बुलाया गया और उनकी माता श्रीमती गायत्री देवी ने उन्हें चौधरी साहब का राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। अजीत सिंह ने बागपत से लखनऊ तक जो पदयात्रा की थी उनमें मैं भी कुछ दिन उनके साथ था।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चौधरी साहब उनकी पत्नी गायत्री देवी का काफी असर था। गायत्री देवी मेरे रोहतक जिला की थी। इसलिए उनसे मेरे काफी अच्छे संबंध थे। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि चौधरी साहब का परिवार निर्धन था जबकि गायत्री देवी का परिवार उनकी तुलना में काफी समृद्ध था।
वकालत पास करने के बाद जब चौधरी साहब ने गाजियाबाद में वकालत शुरू की थी तो उन्होंने गायत्री देवी के जेवर बेचकर उनसे अपना दफ्तर खरीदा था। जब मियां-बीवी में तकरार होती थी तो गायत्री देवी अक्सर यह ताना दिया करती थी ‘चौधरी तूने मेरे से जो टूमें (जेवर) लिए थे वो आज तक वापस नहीं किए’। ‘चौधरी साहब हंसकर बात को टाल देते थे’।
लोग भले ही चौधरी साहब को जाट नेता के रूप में पेश करें मगर निजी जीवन में वह जात-पात के बहुत खिलाफ थे। शायद यही कारण है कि उन्होंने अपनी दोनों पुत्रियों को विवाह गैर-जाट परिवार में किया था।
ये भी पढ़ें : पाकिस्तान में उठी काली आँधी के ख़तरे!
चौधरी साहब मूलतः एक भोले-भाले व्यक्ति थे इसलिए वह खुशामदियों की चिकनी-चुपड़ी बातों में फंस जाते थे। उनकी इस कमजोरी का लोगों ने खूब फायदा उठाया। इसी कमजोरी के कारण इंदिरा गांधी ने उनका इस्तेमाल जनता पार्टी को विभाजित करवाने में किया। चौधरी साहब एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अपने सत्ताकाल में संसद का सामना नहीं किया।
उनकी याददाशत गजब की थी वह पर्याय अपने कार्यकर्ताओं को उनके नाम से जानते थे। इंदिरा गांधी के साथ उनका गठजोड़ उनके वोट बैंक को नहीं भाया और धीरे-धीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका वोट बैंक बिखरता चला गया।
साभार: Manmohan Sharma जी, वरिष्ठ राष्ट्रीय पत्रकार