तीसरी किस्त: श्रमिक आन्दोलन का लौह पुरुषः शंकर गुहा नियोगी
नियोगी ने अपने बच्चों तक के नाम अपने सपनों की कड़ी के रूप में रखे थे। क्रान्ति और फिर जीत और फिर मुक्ति यही तो कालजयी नेताओं के सपनों का अर्थ होता है। उन्होंने औसत ट्रेड यूनियन नेताओं की तरह कभी भी अपने अनुयायियों को उत्पादन ठप्प कर देने या कम कर देने की समझाइश नहीं दी। उत्पादन और उत्पादकता के पैरों पर चलकर ही श्रमिकों के हाथों में समाज परिवर्तन की मशाल वे थामना चाहते थे। यही कारण है कि अनेक मौकों पर जब परम्परावादी यूनियनों के काम के बहिष्कार का ऐलान किया। शंकर गुहा नियोगी ने सबसे अलग हटकर सैद्धांतिक और अनोखे फैसले किये कि काम बंदी करने का कोई प्रश्न ही नहीं है।
हमने अब तक तो किसी ऐसे श्रमिक , नेता को नहीं देखा जो संबंधित उद्योग की गतिविधियों की जानकारी रखने के अलावा सांख्यिकी की सूक्ष्म से सूक्ष्म की गणना से लैस हो। यही कारण है कि राजनेता, शासकीय अधिकारी और उद्योगों के जनप्रतिनिधि नियोगी से बातचीत की मेज पर जीत नहीं पाते थे। तथ्यों और आंकड़ों की ताकत के बल पर श्रमिकों के प्रतिनिधि खुद अपना भविष्य गढ़ सकें , यह भी शंकर गुहा नियोगी के देखे गये सपने का एक नया आयाम था। कितने ऐसे उद्योग समूह हैं जिनके नेता मजदूर आन्दोलन के इतिहास और उद्योगों से संबंधित जानकारियों की पुस्तकों को गीता , कुरान शरीफ या बाइबिल की तरह पढ़ते हैं , जो जाहिर है शंकर गुहा नियोगी करते थे।
कहने में अटपटा तो लगता है लेकिन अपने जीवन काल में नियोगी ने मजदूरों , किसानों और अपने समर्थकों के दिमागों के रसायन शास्त्र को जितना नहीं बदला उतना उसकी मौत की एक घटना ने कर दिखाया। लाखों मजदूरों के चहेते इस नेता की कायर तरीके से निर्मम हत्या कर दी जाए लेकिन उसके बाद भी बिना किसी पुलिस इंतजाम के उनके समर्थक हिंसा की वारदात तक नहीं करें , ऐसा कहीं नहीं हुआ। नियोगी के शव के पीछे मीलों चलकर मैंने यह महसूस किया कि जीवन का सपना देखने का अधिकार केवल उसको है जो अपनी मृत्यु तक को इस सपने की बलि वेदी पर कुर्बान कर दे। इसीलिए नियोगी व्यक्ति नहीं विचार है। पहले मुझे ऐसा लगा जैसे नियोगी के शव के रूप में एक मशाल पुरुष जीवित होकर चल रहा है और उसके पीछे चलते हजारों व्यक्तियों की भीड़ जिन्दा लाशों की शव यात्रा है। फिर ऐसा लगा कि यह तो केवल भावुकता है। शंकर गुहा नियोगी का शव फिर मुझे एक जीवित किताब के पन्नों की तरह फड़फड़ाता दिखाई दिया और उसके पीछे चलने वाली हर आँख में वह सपना तैरता दिखाई दिया। प्रसिद्ध विचारक रेजिस देब्रे ने कहा है कि क्रान्ति की यात्रा में कभी पूर्ण विराम नहीं होता। क्रान्ति की यात्रा समतल सरल रेखा की तरह नहीं होती। क्रान्ति की गति वर्तुल होती है और शांत पड़े पानी पर फेंके गये पत्थर से उत्पन्न उठती लहरों के बाद लहरें और फिर लहरें , यही क्रान्ति का बीजगणित है। शंकर गुहा नियोगी ने इस कठिन परन्तु नियामक गणित को पढ़ा था। बाकी लोग तो अभी जोड़ घटाने की गणित के आगे बढ़ ही नहीं पाए।
भारतीय राजनीति और श्रमिक यूनियनों में सर्वोच्च पदों पर पहुंचे जन नायकों की छवि आमतौर पर फिल्म अभिनेताओं की तरह रूमानी , कृत्रिम और कुलीन होती है। इतने नेताओं के रहन-सहन जीवन और बौद्धिक रिश्तों में गहरी खाई दिखाई पड़ती है। इसलिए शीर्ष नेता अपनी आलोचना सुनकर ही घबराते हैं। वे विरोध बर्दाष्त नहीं करते। वे समर्थन के नाम पर जय जयकार को पसंद करते हैं। नियोगी का यह भी सपना था कि नेता-अनुयायी के रिश्ते के समीकरण में दूरी खत्म कर दी जाए। वे महानता को एक तरह का अभिशाप समझते थे। नियोगी पहले नेता थे जिन्होंने साथीपन की भावना से श्रमिक आन्दोलन का संचालन किया। हुआ है कोई श्रमिक नेता इस देश में जो सात , आठ सौ रुपये महीने की तनख्वाह पर अपने परिवार का लालन-पालन करे? सोच सकता है कोई राष्ट्रीय ख्याति का नेता कि वह अपने आदर्शो को यथार्थ की धरती पर चलाने के उद्देष्य से एक साधारण आदिवासी महिला से ब्याह कर और वह भी दया या असहाय की भावना से नहीं बल्कि उसकी मानसिकता के साथ सम्पृक्त होकर? सोच सकता है कोई कि अपनी एक आवाज से लाखों श्रमिकों को उद्वेलित कर देने वाले इस राष्ट्रीय ख्याति के नेता के खून में शक्कर की मात्रा कभी नहीं बढ़ पाई जबकि गरीबों के प्रति हमदर्दी के पसीने का नमक कायम रहा। सरकारी संरक्षण का मोहताज हुए बिना नियोगी के नेतृत्व में राजहरा के मजदूरों ने स्कूल और अस्पताल जैसी खर्चीली संस्थाओं को इतने आदर्श ढंग से संचालित किया है जिसकी कल्पना तक लोग नहीं करते हैं।
शंकर गुहा नियोगी ने लाल हरे झंडे के माध्यम से किसानों और मजदूरों को एक जुटकर एक ऐसे वर्गविहीन राज्य का सपना देखा था जो केवल राजनीतिज्ञों के बस की बात नहीं है। नियोगी पहले स्वप्नदर्षी जननेता थे जो मजदूर आन्दोलन के पीछे किसानों की एकजुट ताकत की पृष्ठभूमि खड़ी करने के पक्षधर थे। वे राजनीति की पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक आन्दोलन की आग को सुलगाने के काम में जीवन भर मशगूल रहे। वे पुरुष प्रधान समाज में हर दूसरे कदम या हाथ पर महिलाओं की बराबर की भागीदारी के फार्मूले पर अटल रहे। यह केवल नियोगी थे जो शराबखोरी , जुआखोरी और सट्टेबाजी जैसी सामाजिक व्याधियों की गिरफ्त में आये पुरुष वर्ग को षासकीय कानूनों या उपदेशों के सहारे दूर करने के बदले महिला वर्ग की संगठित ताकत के जरिए खत्म कराने का ऐलान कर सकते थे। पुरुष वर्ग से कहीं बढ़कर राजहरा जैसी श्रमिक बस्तियों की एक-एक महिला की आँख में शंकर गुहा नियोगी का सपना सदैव जीवित रहेगा।