झांसी (यूपी) : देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम 1857 के दौरान नारी शक्ति तथा वीरता को नयी ऊचाईंयो तक पहुंचाने वाली झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य और साहस से कौन परिचित नहीं है लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ रानी के संघर्ष में उस दौरान सहायक बने लोगों के अदम्य साहस की गाथाएं भी कुछ कम नहीं हैं।
झांसी जिले के समथर कस्बे से कुछ दूरी पर स्थित लोहागढ़ के लोगों की वीरगाथा भी एक ऐसे ही अदम्य साहस की द्योतक है।
“मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी” की गर्जना से अंग्रेजी हुकूमत के कानों को छलनी करने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अद्वितीय साहस का असर कुछ ऐसा था कि जिसने लोहागढ़ के साधारण ग्रामीणों के भीतर भी वीरता की ऐसी अलख जगायी कि उनके साधारण हथियारों से अंग्रेजों की आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित सेना का मनोबल भी तार तार हो गया और उनके पांव उखड गये।
ये भी पढ़ें : पाकिस्तान में उठी काली आँधी के ख़तरे!
रानी झांसी की मदद के लिए आगे आने वाले इन ग्रामीणों के वंशज आज भी अपने पूर्वजों के इस अदम्य साहस को बड़े गौरव के साथ बताते हैं और उन वीर बलिदानियों की समाधियों पर आज भी पूजा अर्चना की जाती है।
इतिहासकार चित्रगुप्त ने बताया कि पहाडीनुमा ऊंचाई पर मौजूद लोहागढ की गढी आज भी अपने गौरवशाली इतिहास की गाथा बडे गर्व से बयां करती नजर आती हैं। जहां गांव के किसान-मजदूरों ने भी अपनी रानी के लिए अंग्रेजों से टक्कर ली थी।
उस दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी की बढती ताकत का कारण देशभक्त रियासतों पर अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार चरम पर था, अपने खिलाफ सिर उठाने वाले किसी भी सिर को काटकर गिराने के मकसद से कंपनी की सेना हमला कर देती थी, ऐसा ही कुछ कंपनी की शर्तें मानने से इंकार कर आजादी का झंडा बुलंद करने वाली झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई के साथ भी हुआ।
रानी झांसी की बगावत तो कंपनी के लिए और असहय थीं क्योंकि देश में एक महिला ,अंग्रेजी हुकूमत से नज़रे मिलाते हुए अपनी जमीन किसी कीमत पर भी उनके हवाले नहीं करने का संकल्प ले विद्रोह का झंडा बुलंद कर रही थी।
महारानी को साहस को तुच्छ समझते हुए उन्हें सबक सिखाने के मकसद से अंग्रेजी सेना लाव लश्कर के साथ झांसी पहुंच गयी। महारानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना सहित इनका कङा मुकाबला किया। ईस्ट इंडिया कंपनी के पास अत्याधुनिक हथियार थे। अंग्रेजों की भारी सेना के हमले और अपनों के विश्वासघात के चलते रानी को झांसी का किला छोड़ना पड़ा।
रानी को झांसी छोङकर कालपी पहुंचना था, जहां उन्हें दूसरी मराठी सेना का सहयोग मिलता। रानी झांसी किले से निकलकर कालपी के लिए रवाना हुई लेकिन अंग्रेजी सेना उनके पीछे लग गयी। रानी लक्ष्मीबाई समथर के पास लोहागढ से होकर निकली तो लोहागढ के ग्रामवासियों को पता चला कि अंग्रेजी सेना रानी साहिबा के पीछे है।
रानी के इस साहस ने ग्रामीणों में वीरता की ऐसी अलख जगायी कि सभी ग्रामीण एकजुट हो गये। गांव के किसान, मजदूर सहित सभी वर्ग के स्त्री, पुरुष अपने परंपरागत हथियार तीर,तलवार, गढासे, कुल्हाड़ी आदि से अंग्रेजी सेना से मुकाबला करने को तैयार हो गये। सभी ने मिलकर रानी को गांव से सुरक्षित निकाल दिया और बड़ी सूझबूझ का परिचय देते हुए अफवाह उङा दी गयी कि रानी लोहागढ गढी में सुरक्षित ठहरी हैं।
ये भी पढ़ें : लेख : न्यूयार्क टाइम्स के झूठे हैं तो क्या मोदी सरकार के आँकड़े सही हैं? : रवीश कुमार
जब अंग्रेजी सेना तक ये खबर पहुंची तो लोहागढ पर हमला बोल दिया। गांव वासियों ने जमकर मुकाबला किया, और अपने परंपरागत हथियारों से ही अंग्रेजी आधुनिक रायफलों वाले सैनिकों को पीठ दिखाकर उल्टे पांव भागने पर मजबूर कर दिया। हालांकि इस संघर्ष में अनेक ग्रामवासी शहीद हो गये। गांव में कोई परिवार ऐसा न था कि जिसने अपने प्रियों को न खोया हो।
लोहागढ की एक वीरगाथा में जनश्रुति में दूल्हा साहब की गाथा भी बड़ी प्रसिद्ध है। जिस दिन अंग्रेजी सेना ने लोहागढ़ पर हमला किया उसी दिन दूल्हा साहब नाम के एक वीर योद्धा की दुल्हन विदा हुई थी, लेकिन अंग्रेजों के हमले की खबर सुन दूल्हा साहब सीना तानकर उनके आगे खडे हो गये।
आमने सामने की लड़ाई में उन्होंने कई सैनिकों को ढ़ेर किया। अंग्रेजी सैनिक दूल्हे के वेश में इस वीर को लड़ते देख बेहद आश्चर्यचकित थे। लंबी लड़ाई के बाद वह पीछे से मारी गयी एक गोली का शिकार बने।
जनश्रुति के अनुसार किसी दुश्मन सैनिक ने घायल दुल्हासाब का सिर काट लिया लेकिन फिर भी वे काफी देर तक लङते हुऐ शहीद हो गये।महारानी की रक्षा करने में पाई थी सफलताइस युद्ध में अनेक ग्रामवासी शहीद हो गये लेकिन उन्होने रानी की रक्षा करने में सफलता प्राप्त की थी। इसी लोहागढ़ वासियों के बलिदान की खातिर वीरांगना महारानी को कालपी तक सुरक्षित पहुंचाने का श्रेय जाता है।
आज भी इन शहीदों की समाधियां गांव में बनी हुई हैं। जहां लोग अपने पूर्वजों के अदम्य साहस को याद करते हुए उन्हें श्रद्धा से पूजते हैं। किसी लोककवि ने सच ही कहा – लोहागढ कठिन मवास फिरंगी झांसी भरोसैं ना रहयो। जहां तोप चलैं गोला चलैं भाला की हूये मार।