आंगेला एगलर इस्लामाबाद स्थित अमेरिकी दूतावास में कार्यवाहक राजदूत हैं। कूटनीतिक मिशन में काम करने का लंबा अनुभव है उनके पास। 2013 से 2015 के बीच वह इस्लामाबाद स्थित यूएस एंबेसी में काउंसलर फॉर पब्लिक अफेयर्स के पद पर रह चुकी हैं। दूसरी पाली में आंगेला एगलर कार्यवाहक राजदूत की भूमिका में हैं। चेन्नई में वो वाणिज्य दूत थीं, नई दिल्ली में उन्होंने कुछ समय ‘डेप्युटी प्रेस अताशे’ की ज़िम्मेदारी भी संभाली थी। आंगेला एगलर को हिंदी ठीक-ठाक आती है, पेरिस और फ़िर दिल्ली में दो-तीन बार की मुलाक़ातों में मुझे इसका अंदाज़ा हुआ था। इमरान ख़ान सरकार को गिराने में क्या आंगेला एगलर की कोई भूमिका है?
23 मार्च 2022 को आंगेला एगलर ने एक वक्तव्य जारी किया था- ‘यह पाकिस्तान के अभ्युदय का 75वां साल है, और अमेरिका-पाकिस्तान कूटनीतिक संबंधों का 75वां साल भी। दोनों अवसरों के वास्ते हमारी बधाई। हमारे सहकार मज़बूत रहे हैं। दोनों देशों की जनता के आपसी संपर्कों का नतीज़ा है कि आज अमेरिका में पांच लाख से अधिक पाकिस्तानी रह रहे हैं। 37 हज़ार से अधिक पाक एलुमनाई यूएस गवर्नमेंट एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत पूरी दुनिया में पसरे हुए हैं, जो विश्व में सबसे बड़ा समूह है।’ कार्यवाहक राजदूत आंगेला एगलर ने ढेरों शुभकामनाएं व्यक्त की थीं, कुछ समारोह भी आयोजित किये थे। बावजूद इसके, कई मंचों पर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान जब ये कहते हैं कि अमेरिका उनकी सरकार अस्थिर करने के पीछे है, तो यह कई सारे सवाल भी खड़े करता है।
आरोपों का स्कोर ही जब खड़ा करना है, तो यह पूछा जा सकता है कि इमरान ख़ान भारत का नाम क्यों नहीं ले रहे? इमरान ख़ान आखिरी पाली तक बॉलिंग करेंगे, ऐसा अहद किया है। इस गेंदबाज़ी में वो उन चेहरों को बेनकाब करेंगे, जो ‘देशद्रोही’ हैं, दीन के खि़लाफ़ हैं। इमरान के हर भाषण में दीन का तड़का अवश्य होता है। राष्ट्र को संबोधित करते हुए बार-बार धर्म का हवाला देने और राष्ट्रवाद को प्रज्जवलित करने का अर्थ है कि दीये में तेल की मात्रा कमतर होती जा रही है।
सबसे मुश्किल में पाक डिप्लोमेट हैं, जिनके हवाले से राजनीतिक माहौल को गरमाया जा रहा है। पाक राजदूत मसूद ख़ान और साउथ सेंट्रल एशिया के उप विदेश मंत्री डोनाल्ड लू के बीच जो तल्ख संवाद हुए थे, उसके हवाले से यह बुना जा रहा है कि अमेरिका इमरान सरकार गिराने के वास्ते अपने पैसे और संपर्कों का इस्तेमाल कर रहा है। ‘डिप्लोमेटिक केबल’ के ज़रिये डोनाल्ड लू ने पाकिस्तान द्वारा यूक्रेन मामले पर रूस का साथ देने को लेकर नाराज़गी व्यक्त की थी। उन्होंने धमकाया था कि पाकिस्तान को यह महंगा पड़ेगा। मसूद ख़ान ने 25 मार्च, 2022 से राजदूत का कार्यभार संभाला था। उनसे पहले इस पद पर थे असद मज़ीद ख़ान, जो इस समय इमरान सरकार के रवैये से दुखी हैं। उनका कहना है कि राजनीतिक मंचों पर कूटनीतिक बातचीत का बेजा इस्तेमाल इमरान सरकार कर रही है।
यों, धमकियां तो दिल्ली से भी दी जाती रही हैं, मगर इमरान ख़ान अपनी सरकार गिरने की वजह दिल्ली को मान लेते हैं, तो प्रधानमंत्री मोदी का क़द और बड़ा हो जाता है। इस कारण इमरान ख़ान बहुत सोच-समझकर संपूर्ण ठीकरा दिल्ली पर फोड़ने से बच रहे हैं। उन्होंने यह ज़रूर कहा कि नवाज़ शरीफ पीएम मोदी से कई बार गुपचुप मिलते रहे हैं। दूसरा, शरीफ परिवार ने अपना मोटा पैसा भारतीय बैंकों में डाल रखा है। इन दोनों आरोपों पर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान की चुप्पी नहीं होनी चाहिए थी। कुछ स्पष्टीकरण ज़रूरी था।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि सत्ता पर काबिज़ कोई पाकिस्तानी प्रधानमंत्री कुर्सी हिलाने का कसूरवार अमेरिका को मान रहा हो। 5 जुलाई, 1977 को पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने भी ऐसा ही बयान दिया था। उस कालखंड में ज़ुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। तब 5 जनवरी, 1977 को नौ राजनीतिक दलों के गठबंधन ने ‘पाकिस्तान नेशनल अलायंस’ का गठन किया था। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो मानकर चल रहे थे कि विरोधियों को अमेरिका से पैसा मिल रहा है। बावज़ूद इसके, आम चुनाव में ‘पाकिस्तान नेशनल अलायंस‘ को कामयाबी नहीं मिली। 5 जुलाई, 1977 को जनरल ज़ियाउल हक़ ने सैन्य शासन लगा दिया। 17 अगस्त, 1988 को विमान दुर्घटना में मौत के बाद जनरल ज़ियाउल हक से पाकिस्तान को मुक्ति मिली।
ज़ुल्फिकार अली भुट्टो से जो गठबंधन छुटकारा चाहता था, उसके नेता सालभर भी एक नहीं रह पाये। 24 जनवरी, 1978 को इस गठबंधन का अंतिम दिन था। इनमें से कुछ लोगों ने मिलकर ‘एमआरडी अलायंस’ बनाया, जिनमें वाम विचारधारा वाले थे। दूसरा घटक पाकिस्तान मुस्लिम लीग की देखरेख में इस्लामी जम्हूरी अलायंस (जिसका दूसरा नाम इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद भी था) बना। पाकिस्तान में अलायंस की राजनीति समय-समय पर होती रही है।
अक्तूबर, 1989 में ‘इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद’ के बैनर तले मियां नवाज़ शरीफ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो के विरुद्ध संसद में अविश्वास प्रस्ताव रखा था, जो सफल नहीं हो पाया था। मगर, अगस्त 1990 में तत्कालीन राष्ट्रपति ग़ुलाम इशाक ख़ान ने अनुच्छेद 58-2 (बी) का इस्तेमाल करते हुए बेनज़ीर सरकार को बर्खास्त कर दिया। यह कुख्यात अनुच्छेद जनरल ज़िया का इज़ाद किया हुआ था। इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल नवाज़ शरीफ के विरुद्ध हुआ था, तब वे केवल तीन साल शासन कर पाये थे। जुलाई 1993 में नवाज़ शरीफ और तब के राष्ट्रपति इशाक ख़ान को सेना प्रमुख जनरल अब्दुल वहीद ककर ने इस्तीफा देने को बाध्य कर दिया था। यह ब्रùह्मास्त्र अब भी पाकिस्तान में सुरक्षित है, जो डेमोक्रेसी के लिए डरावना और भयावह है।
इमरान ख़ान ने अनुच्छेद पांच का भी दुरुपयोग किया है। इसके तहत राष्ट्र के प्रति निष्ठावान रहना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। अर्थात, जो शाहे वक्त से असहमत हैं, वो राष्ट्रद्रोही। डेप्युटी स्पीकर कासिम सूरी ने अनुच्छेद 58-1 का बेज़ा इस्तेमाल करते हुए विश्वासमत पर रोक लगाई थी। फैसले से पहले इमरान ख़ान बोल चुके थे कि हम पूरे एहतराम से निर्णय को स्वीकार करेंगे। मगर, इमरान की पार्टी की सीनियर नेता शीरीन मज़ारी ने इसे ‘ज्यूडिशिल तख्तापलट’ नाम दे दिया है। सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने लोकतंत्र की लाज रखी।
आज की तारीख़ में अल्लाह, आर्मी, अदालत और अमेरिका -कोई भी इमरान ख़ान के साथ खड़ा नहीं दिखता। शनिवार को इमरान की अंतिम बॉल को भी देख लेते हैं। सब कुछ दुरुस्त रहा, तो शहबाज़ शरीफ पीएम पद की शपथ लेंगे। मगर, उससे अधिक चुनौती गठबंधन को साथ लेकर चलने और पाकिस्तान को पटरी पर लाने की रहेगी। अफसोस, इमरान ख़ान आज़ादी का ‘अमृत महोत्सव’ नहीं मना सके!