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भूली दास्तान फिर याद आ गई : मुगल इमारतों का बदलता रहा इस्तेमाल

मुस्लिम टुडे by मुस्लिम टुडे
जुलाई 13, 2021
in देश, भारतीय, राजनीति
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भूली दास्तान फिर याद आ गई : मुगल इमारतों का बदलता रहा इस्तेमाल
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आज टाइम पास कीजिए जान कर कि मुगलकाल के दौरान दिल्ली की कई इमारतें बनीं। अंग्रेज आए, तो उन्होंने भी अपनी जरूरतों के मुताबिक इन इमारतों का बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल किया।

फिर आजाद भारत की सरकार ने भी अपने अंदाज में इन इमारतों को अपनाया और आज तक इस्तेमाल कर रहे हैं। अलग-अलग दौर में विभिन्न प्रकार से इस्तेमाल चंद हेरिटेज इमारतों का हाल-चाल..

दारा शिकोह की लाइब्रेरी, कभी घर, आज दफ्तर

​कश्मीरी गेट की लोथियान रोड पर जी पी ओ और सेंट जेम्स चर्च के बीच अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के परिसर में दारा शिकोह लाइब्रेरी की इमारत सदियों से खड़ी है। सन् 1637 में मुगल बादशाह शाहजहां के सबसे बड़े बेटे दारा शिकोह के लिए पुस्तकालय के रूप में इस्तेमाल के लिए बनाई गई थी। उल्लेखनीय है कि मुगल बादशाही के प्रबल दावेदार दारा शिकोह पढ़े- लिखे बुद्धिजीवी थे।

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उनकी किताबी दुनिया में खासी दिलचस्पी थी। मुगलकाल के बाद यही इमारत अलग-अलग तौर-तरीकों से इस्तेमाल होती रही। सन् 1659 में, औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह का कत्ल कर दिया, तो इमारत कई हाथों से गुजरती हुई 1803 में मराठों से अंगे्रजों को मिली। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में इमारत को खासा नुक्सान हुआ। कई बेशकीमती किताबें भी लूट ली गईं।

​इसी बीच पंजाब के मुगल वायसराय अली मर्दन खान का आवास बना। कुछ अर्से बाद, यहीं पहले ब्रिटिश रेजिडेंट सर डेविड ओखटर्लोनी रहने आए। उन्होंने ही इमारत के मत्थे पर खडे़ सफेद खम्भे बनवाए। तभी से इमारत में मुगलिया और अंग्रेजी स्पर्श आ गया। इतिहास बताता है कि डेविड ओखटर्लोनी की इसी घर से रोज शाम 13 हाथियों पर सवार उनकी 13 बीवियों की सवारी निकलती थी। असल में, उनकी 13 पत्नियां थीं और वह हर शाम अपनी सभी 13 की 13 बीवियों के संग लाल किले तक सैर करने जाते थे।

​आजादी के बाद इमारत किसी नामी शरव्स का निवास तो नहीं बना, लेकिन अलग-अलग ढंग से इस्तेमाल ज़ारी रहा। समय-समय पर, इसमें जिला स्कूल, सरकारी काॅलेज और नगर निगम बोर्ड का स्कूल चलता रहा है। फिलहाल, इसमें दिल्ली एन सी आर के पुरातत्व विभाग का दफ्तर है।

मुगल जेल, आज रेलवे दफ्तर

​कश्मीरी गेट में ही सेंट जेम्स चर्च के पिछली तरफ एक सफेद रंग की इमारत अलग-सी लगती है। इसकी बनावट में मुगल और ब्रिटिश आर्किटेक्ट दोनों का समावेश है। इमारत 1650 के आसपास बनी बताई जाती है। मुगल बादशाह शाहजहां के शासनकाल में यह अली मर्दन खान का महल था। इमारत के नीचे तहखाना है, जो मुगलकाल का जेल था। बाहर लगे पत्थर पर दर्ज है कि इमारत, खासतौर से मुगल तहखाना लाकौरी ईटों से बना है। यमुना से तहखाने तक पानी लाने के लिए चैनल बनाए गए हैं, ताकि गर्मियों में इमारत ठंडी-ठार रहे।

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​तहखाने से तीन सुरंगें निकलती हैं- एक यमुना, दूसरी सेंट जेम्स चर्च और तीसरी लाल किले की ओर जाती है। सुरंगें आज भी मौजूद हैं, लेकिन उनके दरवाजे सील कर दिए गए हैं। फिर सन् 1803 से, यह ब्रिटिश डिप्टी रेजिडेंट विलियम फ्रेजर के निवास में तब्दील हो गया। फरवरी 1969 से, इसमें नाॅर्थ रेलवे का आॅफिस हैै। हैरिटेज प्रेमी पूर्व अनुमति से तहखाने तक जा सकते हैं। अंदाजा लगाना दिलचस्प होगा कि कभी मुगल जेल, फिर ब्रिटिश निवास, आज सरकारी दफ्तर और आगे क्या बनेगा?

जीनत महल की हवेली, बना स्कूल

​चांदनी चैक से सटे लाल कुआं बाजार के बीचोंबीच बेगम जीनत महल की हवेली के दो झरोखे सड़क की तरफ झांकते हैं। लाल कोटा पत्थर की हवेली आज भी खड़ी तो है, लेकिन खस्ता हाल में है। हवेली का निर्माण आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपनी सबसे छोटी और प्रिय महारानी बेगम जीनत महल के लिए सन् 1846 में करवाया था। बशीरूद्दीन अहमद की उर्दू में लिखी किताब ‘वाक्यात-ए-दारूल हुकूमत-ए-दिल्ली’ बताती है कि शुरूआती दौर में, जीनत महल की हवेली की शानोशौकत क्या खूब थी। खासी बड़ी थी- करीब 4 एकड़ में फैली। दरवाजा मेहराबनुमा था और बीच में संगमरमर का फव्वारा था। एक ‘नगीना महल’ था, जिसका रास्ता फराशखाना की तरफ से था।

​हालांकि वह लाल किले में बादशाह के साथ ही रहती थी। बताते हैं कि इसी बेगम की मुहब्बत  में बादशाह शायरी मिजाज के हुए थे। बेगम के लिए ही उन्होंने मशहूर शेर फरमाया,

‘ले गया लूट के कौन मेरा सब्र- ओ-करार,

बेकरारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी।’ ​

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इतिहास बताता है कि बेगम जीनत महल ने ही 11 मई 1857 को मेरठ से आए आजादी के परवानों को बचाने के लिए लाल किले के दरवाजे खोले थे। तिलमिलाए अंग्रेजों ने मौका मिलते ही बादशाह बहादुर शाह जफर को लाल किले से बेदखल कर दिया था। तब बादशाह ने इसी हवेली में अपनी बेगम के साथ कुछ अर्सा गुजारा। फिर जब बादशाह  को हिन्दुस्तान से भाग कर रंगून जाना पड़ा, तो बेगम जीनत महल उनके साथ थी।

​फिर अंग्रेजी राज का दबदबा फैलने लगा। करीब 115 साल पहले अंग्रेजों ने हवेली को स्कूल में तब्दील कर दिया। तब ‘जीनत महल गल्र्स सीनियर सैकेंडरी स्कूल’ शुरू किया गया, जिसके नाम के साथ अंग्रेजों ने बाकायदा जीनत महल का नाम जोड़े रखा। आजादी के बाद भी स्कूल बरकरार रहा, बस नाम बदल कर ‘सर्वोदय कन्या विघालय, लाल कुआं’ कहलाने लगा। हवेली के आधे हिस्से में आज स्कूल है, बाकी हिस्से में लोग रहते हैं और मसाले वगैरह के छोटे-मोटे कारखाने चलते हैं।

लाल किला महल से फौजी अड्डा और…

​यमुना किनारे बने लाल पत्थरों के लाल किले की कहानी भी जुदा नहीं है। मुगल बादशाह शाहजहां ने जब 1638 में हिन्दुस्तान की राजधानी आगरा से दिल्ली या कहें, शाहजहांनाबाद शिफ्ट की, तो अपने रहने के लिए लाल किले के रूप में बादशाही ठाठ से लेस भव्य महल बनवाया। सन् 1648 में किला बन कर तैयार हुआ। किले के भीतर ‘दीवान-ए-आम’ है, जहां बादशाह का आम दरबार लगता। यहीं बादशाह लोगों की दिक्कतों और परेशानियों से रू- ब- रू होते और समाधान निकालते। और यहीं ‘दीवान- ए-खास’ भी है, जो खास लोगों के दरबार के तौर पर जाना जाता है। किले के भीतर देखने लायक अन्य हिस्सों में खास महल, मुमताज महल और तुर्की हमाम हैं। बाद में, मुगल बादशाह औरंगजेब ने लाल किले के भीतर मोती मस्जिद का निर्माण करवाया।

​बताते हैं कि शुरू-शुरू में, लाल किले का नाम ‘किला- ए- मुबारक’ था। सन् 1648 से 1857 के बीच लगातार 200 से ज्यादा सालों के लिए लाल किला बादशाही महल रहा है। बीच-बीच में लूटा भी गया। आज यह यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट में शुमार है। सन् 1858 में लाल किला पूरी तरह से अंग्रेजी कब्जेे में आ गया। सारा फर्नीचर हटाया या नष्ट कर दिया गया। बाग-बगीचे और नौकर-चाकरों के फ्लेटों को भी तोड़-फोड़ दिया गया। उनकी जगह कतार में नए सिरे से फौजियों के रहने के लिए बैरक बनाए गए। कुल मिला कर, किले परिसर के दो-तिहाई अंदरूनी हिस्सों में व्यापक तब्दीलियां की गईं।

​आजादी के रोज 15 अगस्त 1947 से आज तक हर स्वतन्त्रता दिवस की सुबह भारतीय प्रघानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहराते हैं और देश के नाम संदेश देते हैं। आजादी के बाद भी दशकों तक लाल किले का परिसर फौजी छावनी के तौर पर इस्तेमाल होता रहा। दिसम्बर 19़45 से इंडियन नेशनल आर्मी के फौजी अभ्यास भी यहां होते रहे हैं। लेकिन दिसम्बर 2003 से फौज ने परिसर को पुरातत्व विभाग को सौंप दिया। परिसर में अर्से से आज तक हर शाम मुगल इतिहास की झांकी दिखाता साउंड एंड लाइट शो आयोजित हो रहा है।

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