दिन के 12 बज रहे हैं. हमलोग राजीव नगर के आसरा गृह (शेल्टर होम) पहुंचे हैं. बाहर पुलिस और मीडिया की भीड़ लगी है. आसरा गृह के बाहरी फाटक पर लोहे का ग्रिल लगा है. धूप तेज़ है और दरवाजे बंद पड़े हैं.
खिडकियों के शीशे धूप से चमक रहे हैं. हमने पहरे पर बैठे पुलिस वाले से कहा कि हमलोग जांच टीम से हैं, हमें अंदर जाने दिया जाए. दरवाज़े के दरार से कई आंखें हमें देख रही थीं. कोई बाहर नहीं आया. किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला.
पुलिस वाले ने कहा कि उन्हें किसी को अन्दर जाने देने की अनुमति नहीं है. काफ़ी मशक्कत के बाद आसरा गृह की नई-नई प्रभारी डेजी कुमारी ने हमें अन्दर आने दिया.
भीतर बच्चियां हैं. कुछ बड़ी उम्र की, कुछ बिल्कुल छोटी. मुझे लग रहा था जैसे मैं किसी कब्रगाह में हूँ और वे अभी-अभी कब्र से उठ कर खड़ी हुई हैं. आँखें धंसी हुई, दुबली बाहें, बदन का सारा गोश्त सूख गया है, सिर्फ हड्डियां नज़र आ रही हैं.
पीठ के बल अस्त-व्यस्त बिस्तर पर कई लड़कियां पड़ी हुई हैं. जैसे उन्हें इस दुनिया से कोई मतलब नहीं. फटी-फटी आँखों से निहारती. कुछ नंगे फ़र्श पर ख़ामोश बैठी हैं. उन्हें देखकर लग रहा था कि बच्चियां पहले दौर के आतंक से गुज़र चुकी हैं.
उन्होंने अपनी बीमारी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है. सिर्फ़ एक नन्हीं बच्ची ताक़त से लड़ रही है.
आसरा गृह शहर से काफ़ी दूर है. वहां तक जाने के लिए सवारियां आसानी से नहीं मिलतीं. बरसात के पानी से यह इलाक़ा डूबा रहता है. सड़कों पर जगह-जगह गहरे खड्डे हैं. आसरा गृह में कुल 75 महिलाएं हैं. अलग-अलग उम्र की. दो अस्पताल में मौत से जूझ रही हैं. एक 17 साल की हैं और दूसरी 55 साल की.
दो की संदिग्ध मौत पहले ही हो चुकी है. तीन मंज़िल पर अलग-अलग कमरे हैं. इनमें से अधिकांश मानसिक रोगी हैं. कुछ ज्यादा बीमार हैं, कुछ कम. दिमाग़ी बीमारी से जूझ रही महिलाओं की देख-रेख के लिए कोई सुविधा नहीं है, न ही कोई डॉक्टर मौजूद है.
तीसरी मंज़िल पर कुछ बच्चियां हैं. एक नन्हीं बच्ची की आँखों में रोशनी नहीं है. उसकी उम्र 5 से 6 साल होगी. एक बच्ची नंगे फ़र्श पर पड़ी है. एक बच्ची के बदन पर घाव हैं. उनकी आँखें बंद हैं. पक्षी के नाखूनों की तरह उसकी नन्हीं उंगलियां बिस्तर के दोनों छोरों को नोच रही हैं.
उनका नन्हां चेहरा भूरे रंग की मिट्टी के मुखौटे की तरह सख़्त हो गया है. धीरे-धीरे उसके होठ खुले, उसने लंबी चीख़ ली. बच्ची का मुहँ अब भी खुला है. मक्खियाँ भिनभिना रही हैं. वो इतनी कमज़ोर हैं कि अपने चेहरे से मक्खियों को नहीं हटा सकती.
अब वो ख़ामोश हो गई हैं. उसका नन्हां सिकुड़ा शरीर अस्त-व्यस्त चादरों के बीच पड़ा है. उसके गाल अब भी आंसुओं से गीले हैं.
ये दृश्य भयावह हैं. जिस देश में स्वस्थ्य बच्चियों को हम मार देते हैं, जला देते हैं या ज़िंदा दफ़न कर देते हैं, उस देश में मानसिक रोग से पीड़ित अनाथ बच्चियों और औरतों के लिए कहाँ जगह है.
आसरा गृह के पास कोई रिकॉर्ड नहीं
रिया, रूनी, मीरा, गुड़िया, लिली जैसी तमाम 75 महिलाएं और बच्चियां यहाँ कैसे लाई गईं? कब आईं? कहाँ से आईं? इनको क्या बीमारी है? इनका क्या इलाज चल रहा है? आसरा गृह के पास इनका कोई रिकॉर्ड नहीं है.
हमने सभी की फ़ाइल मंगवाई. सारी फ़ाइलें अधूरी हैं. जिससे उनके बारें में कोई सूचना नहीं मिलती हैं. 22 साल की मीरा देवी गूंगी हैं. दिमागी रूप से ठीक हैं. जब वो इस आसरा गृह में आई थीं तो अवन्तिका नाम की डेढ़ साल की बच्ची के साथ थीं. जिसकी पिछले दिनों मौत हो गई.
आसरा गृह के पास कोई रिकॉर्ड नहीं है कि बच्ची की मौत किस हालत में हुई? जो दो महिलाएं पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल भेजी गई थीं, जिन्हें डॉक्टर ने मृत घोषित किया था, उनकी फ़ाइल भी वहां मौजूद नहीं है.
16 अप्रैल, 2018. इस दिन आसरा गृह और समाज कल्याण विभाग के बीच हुए ऐग्रीमेंट के बाद वहां महिलाओं और बच्चियों को रखने की अनुमति दी गई थी. ये समझौता 11 महीने के लिए था. आसरा गृह को 68 लाख रुपए सालाना दिया जाना था.
बिना किसी जाँच के पैसे दे दिए गए. समाज कल्याण विभाग या ज़िला प्रशासन की तरफ़ से इस चार महीने में कोई अधिकारिक रूटीन निरीक्षण नहीं किया गया.
मानसिक रूप से 75 बीमार महिलाओं की देख-रेख के लिए जिन दो डॉक्टरों को रखा गया था, उनमें से डॉक्टर राकेश पिछले कई महीने से नहीं आ रहे थे. डॉक्टर अंशुमन भी रूटीन चेकअप के लिए नहीं आते थे. ज़रूरत पड़ने पर उनको बुलाया जाता था. वे भी फ़रार हैं.
वहां रह रही सभी महिलाएं और बच्चियां ख़ून की कमी की शिकार हैं. वे गहरी मानसिक बीमारी से जूझ रही हैं. कुछ बच्चियां स्वस्थ हैं पर उनकी देख-रेख की कोई अलग व्यवस्था नहीं है. दिन-रात उनके बीच रहते हुए वे भी बीमार हो रही हैं.
शायद इसी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने 9 अगस्त की रात वहां से भागने की कोशिश की थी. इस आरोप में आसरा गृह के बगल में रह रहे वहां के निवासी बनारसी को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है.
गंभीर सवाल
बनारसी की बेटी का कहना है कि उनलोगों को फंसाया गया है. अगर उन्हें भगाते तो हमलोग पुलिस को क्यों इसकी सूचना देते? राजीव नगर थाने ने भी इस बात की पुष्टि की है कि लड़कियों के भागने की ख़बर बनारसी ने उन्हें दी थी.
बनारसी के घर की छत और आसरा गृह की तीसरी मंज़िल पर रह रही लड़कियों के कमरे की खिड़की की दूरी काफ़ी कम है. फिर भी बिना किसी सपोर्ट के वहां से निकलना मुश्किल है. बनारसी ने भगाया या इन्होंने ख़ुद भागने की कोशिश की, ये सवाल पुलिस के लिए है.
लेकिन ये सच है की बीमार और अनाथ बच्चियों और महिलाओं के लिए ये आसरा गृह किसी यातना गृह से कम नहीं है. फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि यहाँ अभी तक किसी यौन हिंसा से जुड़ा कोई मामला सामने नहीं आया है.
अभी बहुत सारे सवाल हैं जिन पर से पर्दा उठाना बाकी है. इस आसरा गृह की कोषाध्यक्ष मनीषा दयाल और चिरंतन पर नकेल कसी जा रही है. लेकिन समाज कल्याण विभाग और ज़िला प्रशासन ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई, इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है?
जिस जगह 75 महिलाएं और बच्चियां मानसिक रूप से बीमार हों, वहां किसी डॉक्टर की बेहतर सुविधा के बिना शेल्टर होम को चलाने की अनुमति किस आधार पर दी गई? ऐसे कई सवाल उभरे हैं जिसका जवाब सरकार और समाज को देना होगा.
जो समाज बच्चों और महिलाओं के प्रति इतना हिंसक और अमानवीय है, उस समाज में पागल, विक्षिप्त और बीमार महिलाओं के लिए जगह कहाँ होगी?
हमलोग आसरा गृह से बाहर निकल आए हैं. जाने से पहले बच्चियां हमसे लिपट गईं. हमें यहाँ से निकालो! खुली हवा में ले चलो. खिड़कियों से कातर निगाहें हमें देख रही हैं. बंद दरवाजों से अब भी चीख़ें सुनाई पड़ रही हैं. यह बहुत भयावह और निर्दय समय है. पता नहीं कब तक हम सब मासूम बच्चियों और औरतों को मौत की यंत्रणा में छटपटाते देखते रहेंगे!