यूं तो तो गणतंत्र दिवस परेड के दौरान दुनिया के विभिन्न देशों के राष्ट्रपति मुख्य अतिथि रहे हैं, पर दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति योद्धा नेल्सन मंडेला और मुक्केबाज मोहम्मद अली का राजपथ पर सबसे गर्मजोशी से उपस्थित अपार जनसमूह ने स्वागत किया है। मंडेला 1995 में गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि थे। तब उनका राजपथ पर अपार जनसमूह ने बड़ी ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था। उस समय भारत के राष्ट्रपति शंकर दयालशर्मा थे। मंडेला जब तक राजपथ पर रहे, तब तक वहां मंडेला… मंडेला… के नारे लग रहे थे।
कहते हैं, गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष का मंडेला से अधिक उत्साह से स्वागत नहीं हुआ है। मंडेला की तरह राजपथ पर उपस्थित जनसमूह ने मुक्केबाज मोहम्मद अली का भी करतल ध्वनि से स्वागत किया था। वे 1975 के गणतंत्र दिवस समारोह में खास अतिथि थे। वे तब अपने करियर के चरम पर थे। वे विश्व नायक थे। मोहम्मद अली परेड के शुरू होने से चंदेक मिनट पहले ही अपने स्थान पर विराजमान हो गए थे।
उनके राजपथ पर आने की सूचना लाउड स्पीकर से होते ही वहां पर मौजूद हजारों लोगों ने हर्षध्वनि से उनका अभिनंदन किया। वे अपने चाहने वालों के अभिवादन का उत्तर अपने मुक्के को हवा में घुमाते भी दे रहे थे। उनके इस तरह के करतब दिखाते ही दर्शक झूमने लगते थे। देश की तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी मोहम्मद अली को देख-देखकर मुस्करा रही थीं।
- कौन था पहले गणतंत्र दिवस का मुख्य अतिथि
अगर बात देश के पहले गणतंत्र दिवस की करें तो उस दिन राजधानी की फिजाओं में पर्व का उल्लास था। देश अपने नए संविधान को लागू कर रहा था। भारत गणतंत्र राष्ट्र के रूप में सामने आ रहा था। इस मौके पर लोग एक-दूसरे को बधाई ले और दे रहे थे। देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने जा रहे डा. राजेन्द्र प्रसाद के लिए तो यह खासा व्यस्त दिन था। वे सुबह करीब आठ बजे राजघाट पहुंचे। वहां से वे सीधे राष्ट्रपति भवन पहुंचे शपथ ग्रहण करने के लिए। उन्हें ठीक नौ बजे देश के गवर्नर जनरल सी.राजगोपालचार्य ने देश के पहले राष्ट्रपति के पद की शपथ दिलाई।
इस शपथ ग्रहण समारोह के साक्षी बने 500 अतिविशिष्ट गण। इनमें इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो भी थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने काली अचकन, झक सफेद चूड़ीदार पायजामा और गांधी टोपी पहनी हुई थी। राष्ट्रपति के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने और उनके बाद उनकी कैबिनेट के सदस्यों ने शपथ ली। जब राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में आयोजन चल रहा था, उस वक्त बाहर अपार जनसमूह एकत्र हो चुका था। बड़ी तादाद में लोग पड़ोसी राज्यों से आए हुए थे। वे बाहर खड़े होकर गांधी जी की जय और वंदेमातरम के गगनभेदी नारे लगा ऱहे।
सन 1936 बैच के आईसीएस अफसर बदरूद्दीन तैयबजी के ऊपर जिम्मेदारी थी कि वे सुबह दरबार हाल और शाम को इरविन स्टेडियम ( अब ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम) में होने वाले कार्यक्रमों के प्रबंध को देखें। तैयबजी साहब आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर भी रहे। उन्होंने रिटायर होने के बाद दिल्ली के वेस्टएंड में अपना घर बनाया था।
- पहले गणतंत्र दिवस का यादगार फ्लाई पास्ट
भारत के पहले गणतंत्र दिवस का फ्लाई पास्ट फाइटर पायलट इदरीस हसन लतीफ की सदारत में निकला था। वे भारतीय एयरफोर्स के एयरचीफ मार्शल भी रहे। उस गणतंत्र दिवस पर फ्लाई पास्ट को देखकर दिल्ली मंत्रमुग्ध हो गई थी। दिल्ली ने पहले कभी लड़ाकू विमानों को अपने सामने कलाबाजियां खाते नहीं देखा था। लतीफ तब स्क्कवाड्रन लीडर थे। वे और उनके साथ हॉक्स टैम्पेस्ट लड़ाकू विमान उड़ा रहे थे। तब लड़ाकू विमानों ने वायुसेना के अंबाला स्टेशन से उड़ान भरी थी। हालांकि वे गणतंत्र दिवस के लिए दिल्ली सफजरजंग हवाई अड़्डे से भी अभ्यास उड़ानें भरी जा रही थीं।
लतीफ ने 1965 और 1971 की जंगों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। लतीफ के एयर फोर्स चीफ के पद पर रहते हुए इसका बड़े स्तर पर आधुनिकीकरण हुआ। उन्होंने जगुआर लड़ाकू विमान की खरीद करने के लिए सरकार को मनाया था। यदि भारत ने 1971 की जंग में पाकिस्तानी सेना के गले में अंगूठा डाल दिया था, तो इसका कहीं ना कहीं श्रेय एयर चीफ मार्शल इदरीस हसन लतीफ को भी जाता है। वे उस युद्ध के दौरान सहायक वायुसेनाध्यक्ष के पद पर थे। वे जंग के समय शत्रु से लोहा लेने की रणनीति बनाने के अहम कार्य को अंजाम दे रहे थे।
लतीफ लड़ाकू विमानों के उड़ान भरने, युद्ध की प्रगति तथा यूनिटों की आवश्यकताओं पर भी नजर रख रहे थे। लतीफ शिलांग स्थित पूर्वी सेक्टर में थे जब पाकिस्तान ने हथियार डाले थे। दिल्ली कैंट में उस महान योद्धा के नाम पर एक सड़क भी है।
- आओ देखें गुजरे बरसों की दिल्ली की झांकियां
हालांकि इस बार गणतंत्र दिवस परेड में दिल्ली की झांकी नहीं दिखाई देगी पर हम बात करेंगे कि दिल्ली की 26 जनवरी की परेड पर अब तक निकली कुछ खास झांकियों की। शाहजहांबाद की जान और शान चांदनी चौक के जीवन, समाज और संस्कृति पर 1999 में झांकी निकली थी। इसे बहुत पसंद किया गया था। करगिल की जंग विषय था दिल्ली की झांकी का साल 2000 में। उस जंग में दिल्ली के कई शूरवीरों ने देश के लिए अपनी जान का नजराना दिया था।
सूफी संत और कवि अमीर ख़ुसरो पर साल 2000 और 2004 में झांकी निकली थी। खुसरो बहुत सारी खूबियों के मालिक थे और उनकी शख़्सियत बहुत कमाल की थी। वो शायर, फ़ौजी जनरल, अदीब, सियासतदां, संगीतकार, सूफ़ी और न जाने कितनी शख़्सियात के मालिक थे। मिर्जा गालिब की हवेली को नए सिरे से विकसित करने के बाद उनकी शख्सियत पर 2001 के गणतंत्र दिवस में झांकी निकली थी। दिल्ली गालिब पर जितना चाहे फख्र कर सकती है।दिल्ली की झांकी के फोकस में रही दिल्ली मेट्रो 2003 और 2006 में। ये दिल्ली में मेट्रो रेल के श्रीगणेश के आरंभिक साल थे।
- झांकी में गांधी जी कब
दिल्ली की तरफ से 2019 में महात्मा गांधी पर आधारित झांकी तैयार की गई थी। इस झांकी में महात्मा गांधी के दिल्ली में बिताए गए 720 दिनों को दर्शाया गया था। गांधी जी दिल्ली में पहली बार 12 अप्रैल, 1915 को आए। वे दक्षिण अफ्रीका से बंबई ( अब मुंबई) 9 जनवरी, 1915 को वापस आए थे। एक सप्ताह तक बंबई में रहने और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के अनेक खासमखास लोगों से मुलाकात करने के बाद वे अहमदाबाद चले गए। वहां कुछ समय व्यतीत करने के बाद वे भारत भ्रमण पर निकले।
इसी क्रम में गांधी जी दिल्ली आए। मतलब लगभग सौ वर्ष पूर्व हुई थी उनकी पहली दिल्ली की यात्रा। इस लंबे अंतराल के दौरान बहुत बदली दिल्ली। आबादी ना जाने कितने गुना बढ़ गई। इसका विकास और विस्तार हो गया। पर बहुत सी चीजें कुछ बदलीं, कुछ पहले की तरह ही रहीं। पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, कश्मीरी गेट,चांदनी चौक, लाल किला, कुतुब मीनार वगैरह के इलाके बहुत कुछ पहले की ही तरह है। इन सबका मूलभूत चरित्र नहीं बदला। इन जगहों से गांधी जी रू-ब-रू हुए थे अपनी पहली यात्रा के दौरान।
- दिल्ली की झांकियों के शुरूआती दौर
दिल्ली की सबसे पहली बार झांकी सन 1952 में निकली थी। गौर करें कि शुरूआती दौर में यहां की झांकियां में सामाजिक और केन्द्र सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं पर ही फोकस रहता था। दिल्ली की 1965 के गणतंत्र दिवस की झांकी में देश के कृषि क्षेत्र में बढ़ते कदमों पर को दिखाया गया था। दरअसल तब तक देश में हरित क्रांति आ चुकी थी और उस महान क्रांति की नींव राजधानी के भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र ( पूसा) में रखी गई थी।
दिल्ली की 1966 की झांकी में सबको शिक्षा देने का वादा किया गया था। 1978 में वयस्क शिक्षा और उसके अगले साल की झांकी में शराबबंदी पर फोकस था। लेकिन 1990 के दशक बाद दिल्ली को विधान सभा मिल गई। तब यहां की झांकियों का रंग यहां के समाज से मेल खाने लगा। इसका नमूना मिला 1993 में जब दिल्ली की झांकी में यहां की गंगा-जमुनी तहजीब को चित्रित किया गया।
विवेक शुक्ल