तुष्टिकरण का प्रश्न कांग्रेस के गले मे मरे सांप की तरह हमेशा लटका पाया जाता है। सबसे पहले यह माला कब और कैसे गले पड़ी, जानना जरूरी है। और ये किस्सा शुरू होता है, गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के साथ।
यह इतिहास का वाटरशेड मोमेंट है। पहला विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था, जो यूरोप के बड़े राजतंत्रों और कलोनियल पावर्स का आपसी दंगा था। ब्रिटेन की ओर से खून बहाया उन भारतीय सिपाहियों ने,जिनके नाम आज इंडिया गेट पर खुदे हैं।
यूरोप में तुर्की हारे हुए ग्रुप में था। वर्साइल की ट्रीटी में जर्मनी की ऐसी तैसी की गई तो सेवर में टर्की की। विशाल ऑटोमन साम्राज्य, इस्तम्बूल के गिर्द बस एक छोटा सा राज्य भर रह गया।
यहां एक लोचा था। ऑटोमन राजा सिर्फ रूलर न थे, वो मोहम्मद साहब के वंशज माने जाते, धार्मिक लीडर भी। दुनिया के मुस्लिम रूलर्स उन्ही से मान्यता पत्र प्राप्त करते, तभी राज करने का अधिकार मिलता( एक्सेप्ट मुगल्स)। ऑटोमन्स के इलाके इतने फैले थे, की उसमे मक्का मदीना समेत तमाम पवित्र जगहें आती। ये सब इलाके लूटकर विजेता देश बंदरबांट कर रहे थे।
दुनिया मे खलीफा के प्रति सहानुभूति उठी। मांग थी, की कम से कम खलीफा को धार्मिक शहरों पर राज करने दिया जाए। जैसे पूरे इटली में, रोम शहर में इटालियन गवरमेंट है, मगर रोम के भीतर वेटिकन के एक वर्ग किलोमीटर में पोप की सोविर्निटी है।
याने ऑटोमन की पोलिटीकल सुप्रीमेसी खत्म होना तो ठीक, धार्मिक सुप्रीमेसी न छेड़ी जाए। इस मांग को लेकर जिन देशों में मुस्लिम उद्वेलित हुए, भारत भी उनमें एक था।
युद्ध के बाद होमरूल देने का वादा था, मगर मांटैस्क्यू चेम्सफोर्ड सुधार के नाम का लॉलीपॉप थमा दिया गया। गांधी राइजिंग स्टार थे, और चंपारण में नील आंदोलन, अहमदाबाद मिल आंदोलन और खेड़ा वगैरह लीड कर, देश के प्रोमिनेन्ट आन्दोलनजीवी बन चुके थे। अब असहयोग आंदोलन की तैयारी कर रहे थे। इसी समय खलीफा का प्रश्न भी आया।
गांधी की वापसी के वक्त राष्ट्रीयता की दो पतली पतली धाराएं बह रही थी। मुस्लिम लीग और कांग्रेस.. दोनों के बीच कोऑपरेशन, मिलकर अंग्रेजो से लड़ने के लिए एक पैक्ट 1916 में किया, जो लखनऊ पैक्ट कहलाता है। तो मुद्दे शेयर होने लगे थे।
खलीफा से यूरोप में उसकी पावर्स छीनने वाले अंग्रेज ही थे। याने कॉमन एनेमि.. देश भर में अली ब्रदर्स खिलाफत के लिए सभा जलसे कर तो रहे थे, पर असर नही था। इस मुददे पर साथ देने के लिए गांधी के पास प्रस्ताव आया।
शानदार अवसर था। हिन्दू मुस्लिम दोनों धाराओं को साथ लाने का। अंग्रेजो के सामने साझा चुनौती पेश करने का। गांधी ने खिलाफत कमेटी का चेयरमैन बनना स्वीकार किया। मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस के प्रति फैथ बढ़ा, असहयोग आंदोलन में सबने बढ़ चढ़कर भाग लिया।
हिन्दू मुसलमान की प्रमुख धाराएं, खिलाफत, आजादी की मांग, और राष्ट्रीय चेतना का अथाह सागर बन गया। समाज के तमाम दूसरे हिस्से भी बेझिझक, गांधी नीत इस यज्ञ में जुड़नें लगे। सड़कों पर विदेशी कपड़ों की होली जलने लगी।
आंदोलन चौरीचौरा की हिंसा की भेंट चढ़ गया। हिंसा का जो ऐक्शन गांधी को अस्वीकार था, हिंसावादियों की सरकार आज उसका सौवाँ वर्ष गर्व से, टैक्स के पैसे से मना रही है।
पर उस दौर में इस मास्टरस्ट्रोक ने गांधी को राष्ट्रीय आंदोलन का विशालकाय, प्यारा शुभंकर बना दिया था। । 1857 के बाद पहली बार हिन्दू मुसलमान एक साथ अंग्रेजो को चुनौती पेश कर रहे थे।अंग्रेज सरकार दशहत में आ चुकी थी।
इस एकता ने न सिर्फ अंग्रेज सरकार को, बल्कि धर्म के आधार पर राजनीति करने वालो को भी दहशत में ला दिया था। अभी तक सब अपने अपने ठिये चला रहे थे। वह दुकानदारी खतरे में आ गयी।
गणेश पंडाल का आंदोलन करने वाली कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष हो गयी थी। वो मुसलमानों के मुद्दे उठा रही थी। इससे जिन्ना को भी चिढ़ हुई, हेडगेवार, मुंजे, मालवीय को भी। उन्होंने कांग्रेस से बाहर जाकर अपने अपने ठिये बनाये।
इस देश मे धर्म की चेतना, राष्ट्रीय चेतना से उपर है। धर्म का खतरे में आना हमे उद्वेलित करता है, एक्शन को स्पर करता है। वो एक्शन क्रांति करना हो, या सिम्पली वोट करना हो।
गांधी ने अंग्रेजो के खिलाफ, खिलाफत आंदोलन में इस चेतना का प्रोडक्टिव यूज किया, जोड़ दिया। यही मौलवी अहमदुल्लाह ने गाय सूअर की चर्बी की अफवाह फैलाकर किया था। हमे 1857 की क्रांति में मिलकर लिए उद्वेलित किया था।
एकता, म्युचुअल कन्सर्न और धर्मनिरपेक्षता का स्वर्णिम हार, जो एक वक्त गांधी का मास्टरस्ट्रोक था, वक्त की मांग था, समय की धूल में चमक खोता गया। वह मरे सांप की तरह दिखने लगा। इसलिए कि आजाद भारत मे मुस्लिम्स खपने लगे थे। धर्मनिरपेक्षता आदत हो गयी थी, उसे दिखाने की जरूरत न थी।
पर अब दौर बदल चुका है। सेकुलरिज्म, सिकुलरिज्म हो गया है, वामी कांगी होने की पहचान है। मेंटली सिक देश मे धर्मनिरपेक्षता गाली बन चुकी है, उसे तुस्टीकरण की संज्ञा दी जा चुकी है।अब तो गांधी भी धर्मनिपेक्षता के उस हार को चमकाने की जगह, कोट के ऊपर जनेऊ पहन रहे हैं, मंदिरों की दौड़ लगा रहे हैं। तो क्या आश्चर्य की हिन्दू तुष्टिकरण जोरों पर है।
बस याद रहे, उस तुष्टिकरण ने जोड़ा था, यह तुष्टिकरण तोड़ेगा।
मनीष सिंह