सलीम पंडित टाइम्स ऑफ़ इंडिया के असिस्टेंट एडिटर हैं, श्रीनगर में रहते हैं. 2003 में कश्मीर प्रेस क्लब “KPC ” की स्थापना में इनकी बड़ी भूमिका रही थी. उन दिनों KPC के अंतरिम प्रेसिडेंट भी बनाये गए थे.
बधियल थे, आक्रामक भी, जो वहां के पत्रकारों को भाता था. बाद में ज़ुबानी मिसाइल अपने ही लोगों पर दाग बैठे. 2019 में बोल गए, “यहाँ के पत्रकार जिहादी हैं.” नतीज़तन, सलीम पंडित की प्रेस क्लब वाली सदस्यता रद्द कर दी गयी.
पिछले साल जनवरी में जब विदेशी राजदूत श्रीनगर आये, सलीम पंडित उनके साथी मजीद हैदरी और कुछ इनके हम प्याले-निवाले शासन के निमंत्रण पर कश्मीर पर चर्चा के लिए बुलाये गए. इससे बात समझ में आ सकती है कि सलीम गुट को किसकी सरपस्ती मिली हुई है.
कश्मीर प्रेस क्लब में चुनाव में देरी की कई सारी वजहें हैं. चुनाव को लेकर एक मामला अदालत में लंबित रहा है. JKHCBA ने नवम्बर 2020 में चुनाव करा लेने का आदेश दिया था.
एक दूसरा झोल अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद पैदा हुआ. सोसाइटी एक्ट के अनुरूप प्रेस क्लब को फिर से रजिस्टर्ड करना था. मई 2021 में रजिस्ट्रेशन के वास्ते KPC ने आवेदन कर रखा था. कुछ नए सदस्यों को भी शामिल होना है, सभी बाधा दौड़ से गुज़र जाने के बाद 15 फ़रवरी 2022 को चुनाव की तारीख तय हुई है.
मगर इस बीच गुटबाज़ी इतनी हुई कि शनिवार से शासन को पुलिस का पहरा बैठाने का अवसर मिल गया. हालाँकि KPC में हिंसा की कोई घटना नहीं हुई थी. शासन चाहता है कि कश्मीर प्रेस क्लब में सरकार समर्थक कार्यकारी समिति और उसके पदाधिकारी इस संस्था को चलाएं.
जर्नलिस्ट फेडरेशन ऑफ़ कश्मीर , कश्मीर वर्किंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन, कश्मीर प्रेस फोटोग्राफर एसोसिएशन जैसे संगठनों के पत्रकार मानते हैं कि सरकार हमारे मामले में हस्तक्षेप कर फुट करो और राज करो के रस्ते पर है.
पांच राज्यों में चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर की बारी है. केंद्र सरकार चाहती है कि स्थानीय मीडिया उसकी गोद में बैठे. केपीसी में जो कुछ घटित हो रहा है, यह उसी कवायद का हिस्सा है.
जबतक चुनाव नहीं होते शासन की सरपस्ती में एक अंतरिम बॉडी बना दी गयी है. सलीम पंडित इसके कार्यकारी प्रेसिडेंट, डेक्कन हेराल्ड के ज़ुल्फ़िकार मजीद ‘जनरल सेक्रेटरी’, डेली गदयाल के एडिटर अर्शिद रसूल ‘खजांची’ बना दिए गए हैं.
दुनिया भर के पत्रकार कश्मीर प्रेस क्लब में पुलिस का पहरा, बुलेट प्रूफ गाड़ियों में पंडित ग्रुप के आने, और क्लब का कामकाज सम्हालने जैसे कारनामों को देख रहे हैं. संभव है ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर’ इस सवाल को प्रमुखता से उठाये. दिल्ली के पत्रकार संगठन मालूम नहीं क्यों खामोश हैं !