कादर खान – पुकार से ललकार तक
मेरा सफर बड़ा लंबा है, मेरी पैदाईश से पहले 1937 में मुझसे पहले मेरे चंद भाई थे एक था शम्सुर्रहमान वो पैदा हुआ आठ साल का हुआ और मर गया, उसके बाद हबीबुर्रहमान वो पैदा हुआ, आठ साल की उम्र को पहुंचा और मर गया, तीसरा फजलुर्रहमा, ये सब रहमान थे क्योंकि मेरे पिता जी का नाम अब्दुर्रहमान था, मुझसे पहले मेरे चार भाई इस दुनिया से जा चुके थे, फिर 1942 में मैं पैदा हुआ 22 अक्टूबर 1942 यह तारीख भी मुझे नहीं मालूम थी क्योंकि मैं काबुल में था वहां पैदा हुआ कुछ याद नहीं, वहां जाहिलों की बस्ती है, गरीबों का इलाका है, पहाड़ियों का इलाका है, कोई नहीं जानता कि क्या तारीख होगी क्या दिन होगा, मैंने सोहराब मोदी से पूछा तो उन्होंने मुझे बताया कि उनकी फिल्म 22 अक्टूबर 1942 को रिलीज हुई थी, तो इस तरीके से मुझे पता चला कि मैं पुकार से इस दुनिया की ललकार में आया हूं, मैं उनका फैन हो गया कि उन्होंने मुझे मेरा पैदाईश का दिन बताया।

जब मैं पैदा हुआ अम्मी को लगा कि काबुल (अफगानिस्तान) कि यहां आबो हवा उनके बच्चों के लिये ठीक नहीं है, अम्मी ने कहा कि यहां से इसे ले चलो, अब मेरे वालिद गरीब आदमी मुझ छोटी सी लाश को लेकर अफगानिस्तान से बंबई पहुंचे। बंबई का सबसे बड़ा और गंदा स्लम है कमाठीपुरा मुझे लगता है कि दुनिया में इससे बड़ा स्लम और कहीं नहीं होगा जहां इतनी बुराईयां हों, तरह तरह के लोग थे, एक से बढ़कर एक गंदे लोग, जुहारी, शराबी, कबाबी, चर्सी, गंजेड़ी, नशेड़ी, यहां तक कि कुछ वैश्याएं भी, यहां हर वो बुराई होती है जो दुनिया की बुराई है। मेरे वालिद अबदुर्रहमान मुंबई को सह नहीं पाये, हर रोज घर में झगड़ा होता, फिर एक दिन अम्मी का तलाक हो गया, उस वक्त मेरी उम्र सिर्फ एक साल थी, यह मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा था कि एक महज एक साल की उम्र में ही मेरे वालिद और अम्मी का तलाक हो गया था, फिर मेरे नाना आये, उन्होंने अम्मी को समझाया कि मुंबई जैसे शहर में एक पठान औरत, एक खूबसूरत औरत, एक काबुली शेरनी, एक नौजवान औरत का अकेला रहना ठीक नहीं है, इसलिये उन्हें शादी कर लेनी चाहिये, फिर अम्मी की शादी की गई।

मेरे सौतेले वालिद कार्पेंटर थे, लेकिन काम नहीं करते थे, आपने देखा होगा कि हमारे यहां जो मिस्त्री होते हैं, मैकेनिक होते हैं, पिलंबर होते हैं ये काम नहीं करते इनसे बात करो तो नजरें मिलाकर बात नहीं करते थे, मैंने एक डॉयलाग लिखा है कि जिनमें नजरें मिलाने की ताकत नहीं होती वे आपको गले लगा लेते हैं, या पैर छू लेते हैं। मेरे वालिद खड़क (मुंबई) में एक मस्जिद थी वहां जाकर इमामत करने लगे, लोगों को नमाज पढ़ाने लगे, और मैं तनो तन्हा जिंदगी की मुसीबत में चलता रहा, स्कूल गया, पांचवी छठी तक तो चल गया, मगर घर में दूसरे तीसरे दिन फाका होता था घर में, जिंदगी में भूख क्या होती है ? सहा है मैंने, दुःख क्या होता है ?

वो सहा है मैंने…. खैर .. जब भी कभी घर में फाका होता था खाने को नहीं होता था, तो मेरे सोतेले वालिद मुझसे कहते थे कि जा अपने बाप के पास और उससे कहना कि दो रुपया दे ? मैं जाता था,… छोटा सा बच्चा रोजाना जाकर अपने बाप से दो रुपया मांग कर लाता था, पंद्रह रुपया उनकी तन्खवाह थी कितना देते वो ? खैर उनसे पैसे लेकर आता फिर आठ आने का चावल, आठ आने की दाल, एक रुपये का आटा, लेकर आता, फिर अम्मी खाना बनाती, और हम खाते। यह जिंदगी यूं ही गुजरी है सर ? इस जिंदगी ने ऐश नही कराया, जब खाने का वक्त था तब रोटी नहीं मिली… और जब रोटी आई तब भूख मर गई।
मैं लब ए शिकवा को सी लेता हूं
चंद घड़ियां हैं यूं ही जी लेता हूं।
मुस्लिम टुडे ब्यूरो