ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के मुताबिक सांप्रदायिकता का अर्थ होता है किसी खास समुदाय, धार्मिर गुट आदि से गहरी निष्ठा, जो उग्र व्यवहार को बढ़ावा देती है और दूसरों के साथ हिंसा करती है।
झारखंड में आरएसएस और बीजेपी और इससे जुड़े संगठन दो किस्म की सांप्रदायिकता का इस्तेमाल कर समाज को बांटने की कोशिश कर रहे हैं। एक तरफ वे हिंदू और मुसलमानों के बीच शक की दीवार खड़ी करते हैं, और दूसरी तरफ वे ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों और प्रकृति की पूजा करने वाले सरना परंपरा के अनुयाइयों के बीच खाई पैदा कर रहे हैं।
दरअसल आदिवासी पहचान को धार्मिक आधार पर बांटकर उनका राजनीतिकरण किया जा रहा है। गौरतलब है कि झारखंड के आदिवासी लंबे से मांग कर रहे हैं कि उन्हें सरना के तौर पर माना जाए, लेकिन संघ परिवार की नजर में पिछड़े तबके के हिंदू हैं।
ध्यान रहे कि जब से बीजेपी सरकार आई है झारखंड में लिंचिंग की 18 घटनाएं हुई हैं, जिनमें 11 लोगों की मौत हुई है। इतना ही नहीं केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने तो लिंचिंग में शामिल रहे दोषी लोगों का फूल-माला से स्वागत सम्मान भी किया है।
आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता जेवियर डियास कहते हैं कि, “गैर-आदिवासियों के प्रसार से पहले कई छोटी आदिवासी जातियां एक-दूसरे के इलाकों में आती-जाती रहती थीं। ये लोग एक दूसरे की भाषाएं नहीं समझते थे, लेकिन फिर भी कभी लिंचिंग की कोई घटना नहीं हुई। इनका मानना है कि एक चींटी में जीवन है और उसका भी महत्व है।”
डियास के मुताबिक, “जब से झारखंड में बाहरी लोगों का दखल बढ़ा है आदिवासियों और दलितों के खिलाफ हिंसा में वृद्धि हुई है। मैंने जमशेदपुर में 1979 का दंगा देखा है। लेकिन अब दंगाइयों ने अपनी रणनीति बदल दी है। वे अब समूहों के बजाय व्यक्तियों पर हमला करते हैं, ताकि एक खास समुदाय को संदेश पहुंच जाए।”
उनके मुताबिक अब हो यह रहा है कि धार्मिक कामों के लिए चंदा मांगने वाले लड़को को अगर कोई इनकार कर दे तो वे सबसे पहले उसका धर्म पूछते हैं और उनका लहजा धमकी भरा होता है। डियास कहते हैं कि, “मोदी-शाह की यही उपलब्धि है।”
गौरतलब है कि 1979 में झारखंड जब बिहार का हिस्सा था जो जमशेदपुर में बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे। तब भी संघ पर सवालिया उंगलियां उठी थीं, क्योंकि मुस्लिम मुहल्लों से राम नवमी का जुलूस निकालने की उसी ने कोशिश की थी।