महेश झालानी, पत्रकार
हर बार की तरह कांग्रेस के असन्तुष्ट नेता सचिन पायलट को एक बार फिर से वापिस जयपुर बैरंग लौटना पड़ा । पायलट के साथ उनके समर्थकों को पूरी उम्मीद थी इस दफा वे कोई निर्णय ही करके लौटेंगे । कई दिनों तक दिल्ली में जूते घिसने के बाद पायलट को खाली हाथ लौटना पड़ा ।
जैसे बच्चे अपने पिता के आगमन पर मिठाई और खिलोने आदि का इंतजार करते है, ठीक उसी प्रकार समर्थको को पूरी उम्मीद थी पायलट इस दफा निश्चित रूप से थैला भरकर लौटेंगे । बेचारे पायलट और उनके समर्थक ……?
सवाल यह उतपन्न होता है कि इज्जत को पलीता लगाना पायलट का शौक है या विवशता ? बार बार दिल्ली जाकर वे क्यो अपनी इज्जत को नीलाम करने पर आमादा है, यह समझ से बाहर है ।
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आलाकमान की लगातार अनदेखी से पायलट को यह समझ लेना चाहिए था कि उन्हें मूर्ख बनाने का नियोजित रूप से स्वांग रचा जा रहा है । अगर ऐसा नही था तो एक साल तक सोनिया गांधी, प्रियंका और राहुल ने उनसे मुलाकात क्यो नही की, अहम सवाल यही है ।
इस बार पूरी उम्मीद थी कि पायलट की प्रियंका से मुलाकात हो जाएगी । इसलिए वे तीन दिनों तक दिल्ली में डेरा डाले पड़े रहे । ना तो प्रियंका को मिलना था और न ही वह मिली । इससे पायलट को अपनी हैसियत का खुद ही आकलन कर लेना चाहिए ।
उधर नवजोत सिंह सिद्धू धौंस देकर मनमाना निर्णय करवाने में सक्षम रहे । यह सिद्धू की धाक है । जबकि पायलट अपने पक्ष में निर्णय कराना तो दूर रहा, लाख मिन्नतों के बाद भी वे शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात करने में असफल और असहाय साबित हुए है ।
प्रभारी अजय माकन की भरपूर कोशिश यही है कि राजस्थान का मामला शीघ्र सुलझे । उनके अथक प्रयासों के बावजूद स्थिति यथावत है । लगता है कि वे आलाकमान और अशोक गहलोत के बीच सेन्डविच बनकर रह गए है । उन्होंने रीट्वीट कर अपनी भावना का अप्रत्यक्ष रूप से इजहार कर दिया है । वे अनेक बार यही कहते रहे कि शीघ्र ही मंत्रिमण्डल का विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियां होने वाली है ।
ऐसा बयान देते साल भर होने को आया, नतीजा निकला जीरो । अब कांग्रेसियों ने माकन के “शीघ्र” वाले टेप को सुनना ही बंद कर दिया । बहुत उकता चुके है राजस्थान के कांग्रेसी माकन की बयानबाजी से ।
यह सही है कि हर राजनीतिज्ञ को कुर्सी चाहिए । अगर सचिन यह ख्वाब पालते है तो बुराई क्या है । हालांकि उनके पास कुर्सी और रुतबा दोनों था । लेकिन अपनी मूर्खता, बचकाना हरकत और उतावलेपन के कारण दोनों से हाथ धो बैठे ।
पायलट को इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कुर्सी से ज्यादा आत्मसम्मान होता है । दिल्ली रोज जाए, लेकिन कुर्सी के उम्मीद के लिए रोज मत्था टेकने का मतलब यह है कि उन्हें फिर से कुर्सी की तलब होने लगी है ।
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हो सकता है कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाये । लेकिन फिलहाल उनके सितारे गर्दिश में है । जिस वक्त सितारे अनुकूल होंगे, कुर्सी खुद-ब-खुद घर घिसटती चली आएगी । यह भी तय है कि अशोक गहलोत पूरी तरह पायलट का राजनीतिक जीवन तबाह करने पर अडिग है ।
पायलट ने गहलोत को कुर्सी से अपदस्थ करने के लिए गए थे अपनी छोटी सी फौज के साथ मानेसर । बेचारे सब पिटे मोहरों की तरफ बैरंग लौट आए ।
उस वक्त पायलट को गले लगाना गहलोत की विवशता थी । अगर वे पायलट से झूठ-मूठ का इलू इलू नही करते तो आज मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई काबिज होता । अपने तथा समर्थकों की इज्जत बचाने के लिए तत्काल कोई निर्णायक कदम उठाना चाहिए ।
अन्यथा पायलट के साथ साथ उनके समर्थक विधायक जनता को मुंह दिखाने के काबिल नही रहेंगे । जीओ शान से तो मरो भी शान से । किश्तों में बेइज्जती कराने से पायलट अपना रहा सहा वजूद भी खो देंगे ।a