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साधुओं की राजनीति में दख़ल

Muslim Today by Muslim Today
फ़रवरी 7, 2022
in देश
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साधुओं की राजनीति में दख़ल
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(शंभूनाथ शुक्ल)

2021 में 17 से 19 दिसंबर तक हरिद्वार में धर्म संसद चली। इसमें आए कई संतों पर आरोप है कि उन्होंने भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने, देश में मुस्लिम आबादी न बढ़ने देने तथा धर्म की रक्षा के लिए हथियार उठाने की बात की। कई महिला साधुओं ने भी बड़े तीखे भाषण दिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी बुरा-भला कहा। इससे दुनिया भर में भारत की निंदा हुई क्योंकि साधुओं के अंदर इस तरह से राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा बढ़ने देने का अर्थ है, देश को अराजकता की तरफ़ जाने देना है। साधु चूँकि धर्म के प्रतीक समझे जाते हैं, इसलिए उनकी बात हर धर्म-भीरु व्यक्ति के अंदर घर कर जाएगी। इसका नतीजा यह निकलेगा, कि पूरा समाज धर्मों के खाने में बढ़ जाएगा और अराजकता फैलने का ख़तरा बना रहता है। इस मामले में उत्तराखंड पुलिस ने स्वामी यति नरसिंहानंद और उनके शिष्य जितेंद्र नारायण को गिरफ़्तार कर लिया था। दो दिन पहले प्रयाग राज में हुए साधुओं की संगत में इन दोनों को तत्काल रिहाई की माँग की गई। और फिर मंच से काफ़ी आक्रामक तेवर में साधुओं ने भाषण दिए। इस तरह के भाषणों से एक बात तो साफ़ है, कि देश में साधुओं के अंदर राजनीति में दख़ल और सत्ता तक पहुँचने की लालसा बहुत तीव्र है। किंतु ऐसा पहले भी होता रहा है। हां, तब साधुओं ने भारतीय समाज को हिंदू-मुस्लिम में बाँटने की कोशिश नहीं की। इसके अनगिनत उदाहरण हैं।

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क्या आज कोई यह सोच सकता है कि 1952 के लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उस काल के सबसे प्रतिष्ठित सनातनी संत प्रभु दत्त ब्रह्मचारी फूलपुर सीट से आमने-सामने थे लेकिन दोनों प्रत्याशियों ने एक-दूसरे के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोला। आज जब संत सम्मेलनों में राजनीति में प्रवेश को आतुर संत कभी महात्मा गांधी पर तो कभी एक विशेष धार्मिक समुदाय पर हमला करते हैं तब प्रभु दत्त ब्रह्मचारी या करपात्री जी जैसे साधु अनायास याद आते हैं। महान मार्क्सवादी लेखक और चिंतक राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि जेल में रह कर उन्होंने पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ से अलज़बरा (बीज गणित) और त्रिकोणमिति सीखी थी। आज कितने साधु-संत इस तरह की पृष्ठभूमि से आते हैं, जिन्होंने आधुनिक शिक्षा और प्राच्य विद्या में दक्षता हासिल की हो। मनुष्य में बड़प्पन का भाव शिक्षा और संस्कार से आता है। धीरज, संयम और साहस से ही धर्म फलता-फूलता है। किंतु जब राजनीति में प्रवेश की इतनी हड़बड़ी हो कि स्थापित राजनेताओं पर कीचड़ उछाल कर ध्येय प्राप्ति का लक्ष्य हो तो ऐसा ही होता है, जैसा कि पिछले दिनों की धर्म संसदों में हुआ। राजनीति में प्रवेश की इच्छा रखना कोई ग़लत नहीं किंतु उसके लिए समाज में विश-वामन अवश्य बुरा है।

आज़ादी की लड़ाई में तमाम साधु संतों ने भी अपना योगदान किया। कुछ तो शहीद भी हुए। संन्यासी विद्रोह वह पहला आंदोलन था, जब साधुओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध हुंकार भरी थी। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध 1763 से 1800 तक यह आंदोलन बंगाल और बिहार में इतना तीव्र था, कि नई-नई आई अंग्रेज निजामत की चूलें हिल गई थीं। दरअसल 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को जब बंगाल की दीवानी मिली तो उसने ऐसे कर लगा दिए, जिससे परंपरागत किसान को अपनी खेती छोड़नी पड़ी। ये लोग साधुओं की जमात में शामिल हो गए और इसमें हिंदू-मुसलमान दोनों थे। ये लोग घूम-घूम कर लोगों को अंग्रेज शासकों के विरुद्ध एक माहौल बनाते। कभी-कभी ये लोग धनी ज़मींदारों को लूटते और मौक़ा मिलता तो सरकारी ख़ज़ाना भी। ये लोग गुरिल्ला तकनीक से हमला करते। अंग्रेजों की सुरक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो जाती। इन संन्यासियों ने बोग्रा और मेमन सिंह में अपनी स्वतंत्र सरकारें बना लीं। ये लोग एक-एक दल में सौ से हज़ार की संख्या में होते और घात लगा कर हमला करते। लूट में जो इनको मिलता उसे ग़रीबों को भी बाँट देते। इससे इनको अपार जन समर्थन मिला। इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को फ़ौज भेजनी पड़ी। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास आनंद मठ संन्यासी विद्रोह की ही कथा है। ये संन्यासी लोग “वंदहुँ माता भवानी!” का उद्घोष करते थे और इसी से बंकिम बाबू ने “वंदे मातरम!” का नारा दिया था। इनके नेता वीर नारायण सिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें अंग्रेजों ने फाँसी दे दी। इसके साथ ही इस विद्रोह का अंत हुआ।

आज़ादी के कांग्रेस के आंदोलन में कई साधु संत शरीक़ हुए और जेल गए। ख़ुद प्रभु दत्त ब्रह्मचारी भी जेल गए थे और वे जवाहर लाल नेहरू के साथ ही बंद रहे थे। लेकिन तब किसी भी साधु ने व्यक्तिगत लांछन किसी पर नहीं लगाये न हिंदू-मुस्लिम अलगाव की बात की। 1857 में विद्रोह की शुरुआत में साधुओं और फ़क़ीरों ने ही लश्करों में जा कर सिपाहियों को बताया कि जो कारतूस आप मुँह से फोड़ते हो, उसमें गाय और सुअर की चर्बी मिली है। इन साधुओं ने रोटी और कमाल हाथ में लेकर प्रचार किया और सिपाहियों को क़सम दिलायी। किंतु साधुओं में सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट होने की प्रबल इच्छा आज़ादी के बाद दिखी। पहली तो हिंदू कोड बिल के विरोध में जब देश के बहुसंख्यक हिंदू सरकार के विरोध में उतरे। ख़ुद प्रभु दत्त ब्रह्मचारी भी सरकार के विरोध में मैदान में थे। दरअसल इसके पीछे स्वामी करपात्री जी महाराज की राजनीतिक पार्टी राम राज्य परिषद थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री जी ने 1948 में की थी। और पहले आम चुनाव में इसने लोक सभा में तीन सीटें पाईं और ये तीनों सांसद राजस्थान से थे। इसके बाद 1962 तक इसका कोई न कोई प्रतिनिधि लोकसभा में रहा और कई विधान सभाओं में भी इसके प्रतिनिधि रहे। इसी ने हिंदू कोड बिल पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को घेर लिया था। प्रभु दत्त ब्रह्मचारी ने इसी के विरोध में उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ा। प्रभु दत्त ब्रह्मचारी ने हालाँकि निर्दलीय चुनाव लड़ा था पर राम राज्य परिषद, हिंदू महासभा तथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी उनके सपोर्ट में थे। जेबी कृपलानी, अशोक मेहता, सलिग्राम जायसवाल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय जैसे लोग उनके समर्थन में थे और चुनाव प्रचार सँभाला था। उधर जवाहर लाल नेहरू के चुनाव की कमान सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री सँभाले थे। उस समय भी मुद्दे आज जैसे थे। जैसे प्रभु दत्त ब्रह्मचारी के समर्थक सरकार के नेहरूवादी हिंदू कोड बिल के विरोध में थे और नेहरू के लोग विकास की बात कर रहे थे।

इस चुनाव में जवाहर लाल नेहरू जीत तो गए थे। क्योंकि नेहरू उस समय देश के सबसे बड़े नेता थे लेकिन एक लँगोटी धारी ने नेहरू और पूरी कांग्रेस को हिला दिया था। उस समय की याद रखने वाले बहुत कम लोग हैं, मगर सुनी-सुनायी बातों को माना जाए तो कहते हैं कि नेहरू अंदर तक हिल गए थे और पूरी कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीरें थीं। इसके बावजूद दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे पर निजी हमले नहीं किए। माघ-पूस के जाड़े में जब प्रभु दत्त ब्रह्मचारी मंच पर आ कर ‘श्रीकृष्ण गोपाल हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव!’ का आह्वान करते तो मंच से नीचे बैठे लोग भी झूमने लगते थे। एक बार भी प्रभु दत्त ब्रह्मचारी ने मुसलमान समुदाय को इंगित नहीं किया। वे हिंदू-मुस्लिम की बात नहीं करते थे लेकिन हिंदू समाज के हितों की बात करते थे। उस समय उनके साथ बौद्धिक वर्ग भी आ गया था। पर जवाहर लाल नेहरू की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि उनके हार जाने की कल्पना तक मुश्किल थी। वह आज़ादी के बाद का पहला चुनाव था और इसके पीछे नेहरू परिवार, गांधी की तपस्या भी दाँव पर लगी थी। अंततः जीत नेहरू की हुई किंतु वे फिर हिंदू कोड बिल से कन्नी काट गए। एक तरह से नेहरू जीत कर भी हार गए। यह थी तब साधु समाज की जनता के बीच जड़ें।

राम राज्य परिषद 1962 के बाद मुख्य धारा से ग़ायब होने लगी। लेकिन इसके बाद गो रक्षा आंदोलन ने साधुओं को फिर सक्रिय किया। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब गो रक्षा आंदोलन शुरू हुआ था। हज़ारों साधुओं ने संसद घेरने की कोशिश की। सात नवम्बर 1966 को साधुओं ने आम लोगों के साथ मिल कर इतना बड़ा प्रदर्शन किया कि संसद भवन से चाँदनी चौक तक भीड़ ही भीड़ थी। एक आर्य समाजी साधु स्वामी राजेश्वरानंद ने साधुओं को आह्वान किया कि यह सरकार बाहरी है, इस तक आवाज़ पहुँचने का एक ही ज़रिया है, संसद में ज़बरदस्ती घुस जाओ। इसकी सूचना प्रधानमंत्री को दी गई, उन्होंने हालात पर क़ाबू पाने के लिए पुलिस को बल प्रयोग की अनुमति दी। पुलिस ने गोली चला दी और कई साधु मारे गए। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस गोलीकांड में आठ लोग मरे गए थे किंतु उस समय के ग़ैर सरकारी सूत्रों ने मारने वालों की संख्या कई सौ बतायी थी। इस गोली कांड के बाद तत्कालीन गृह मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा ने इस्तीफ़ा दे दिया था। इस गोली कांड से उस समय प्रधानमंत्री की किरकिरी हुई थी। इससे उनके जन समर्थन में कमी भी आई। कुछ ही महीनों बाद देश में आम चुनाव हुए। लोकसभा में कांग्रेस को कुल 283 सीटें मिलीं। उस समय लोकसभा में 520 सदस्य थे। कांग्रेस जीती तो लेकिन इसके पूर्व के तीन चुनावों से बहुत कम। विधानसभाओं में उसकी बुरी तरह भद पिटी थी। इस चुनाव में स्वतंत्र पार्टी को 44 सीटें मिली थीं जबकि वह कुल 178 सीटों पर लड़ी थी। इस पार्टी को बने बस कुछ महीने ही हुए थे। भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती) 249 सीटों पर लड़ा और वह 35 सीटें पा गया। इसके अतिरिक्त नौ राज्यों में कांग्रेस सरकार गंवा बैठी। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस की सरकार बनी किंतु मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त को सरकार सँभालने के कुछ ही महीने बाद गद्दी से उतरना पड़ा। उन्हीं के सहयोगी चौधरी चरण सिंह ने उनका तख्ता पलट दिया।

इसके बाद साधुओं की महत्त्वाकांक्षा 1986 में दिखी, जब अदालत के आदेश से बाबरी मस्जिद परिसर में लगा ताला खुल गया। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलट देने के चलते उन्होंने कई समझौते किए। इसी में राम मंदिर की लड़ाई का दरवाज़ा खुल गया। राम मंदिर आंदोलन के नाम पर भारतीय जनता पार्टी ने एक ऐसा हिंदू धार्मिक माहौल देश में बना दिया था कि साधु-संत भी राम मंदिर की माँग के लिए सड़क पर आ गए। इसका असर 1989 के चुनाव में दिखा। यह पहला अवसर था, जब साधुओं के आंदोलन में तीव्र हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण हो गया। भाजपा ने इसे अपने राजनीतिक सपने को पूरा करने का हथियार बना लिया। दरअसल हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण जितना तीव्र होगा उसका लाभ वे राजनीतिक दल उठाने में सफल होंगे, जो धर्म को अपनी राजनीतिक इच्छा की पूर्ति के लिए ज़रूरी मानते हैं। लेकिन इस बार भाजपा और आरएसएस ने एक दाँव और चला वह था सोशल इंजीनियरिंग। इस कार्यक्रम ने भारतीय समाज का ढाँचा बदल दिया। हिंदू धर्म के मंच पर वे जातियाँ हावी हो गईं जो नेपथ्य में रहती आई थीं। धर्म के प्रति अपनी आस्था का भरोसा देने के लिए वे राजनीति की सीमा रेखा पार करती गईं। साधु-संतों को राजनीति की डोर पकड़ाएँगे तो यही होना था। इन लोगों ने भाजपा के हाथ से कमान छीन ली। नतीजा यह हुआ कि 1991 से 2004 के बीच भाजपा की सरकारें अक्सर अपने फ़ील गुड में मारी गईं। राज्यों की सरकारें भी और केंद्र में भी।

इसके दस वर्ष बाद 2014 में भाजपा और इसके बहाने साधु-संतों को पुनः सत्ता में आने का अवसर मिला। भाजपा को अपने सामाजिक समीकरणों से तथा साधु-संतों को हिंदुओं के बीच पल रही राम मंदिर की लालसा के चलते। सत्ता मिली और राम मंदिर भी बनने लगा। किंतु इसके जो सूत्रधार थे, उनके मन के कोने में पल रही राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा भी उभर कर आ गई। जिसका नतीजा है हरिद्वार और प्रयाण के संत सम्मेलनों में साधुओं के भाषण।

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