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भारत में 2019 के लोकसभा चुनाव का प्रचार चरम सीमा पर था, मैं लोकतंत्र के पर्व लोकसभा चुनाव को हमेशा हर्षोल्लास से मनाता हूं और दो महीने के लिए दूसरे कार्यो से अवकाश ले लेता हूँ।
2019 के लोकसभा चुनाव का प्रचार चरम सीमा पर था, साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाकर राजनीतिज्ञ चुनाव जीतने के लिए प्रयासरत थे, अप्रैल के लगभग दो सप्ताह गुजर चुके थे, गर्मी अपना रंग दिखाना शुरू कर चुकी थी
थका देने वाले चुनाव प्रचार के दौरान मैं असर की नमाज पढ़ने के बाद उसी मस्जिद मे बैठकर अगली नमाज़ का समय होने का इंतजार करने लगा, ताकि मगरिब की नमाज भी इसी मस्जिद से ही पढ़कर बाहर निकलू, क्योकि मस्जिद से बाहर जाकर मैं फिर से चुनावी गतिविधियो मे व्यस्त हो जाता, तब बार-बार नमाज के लिये समय निकालकर मस्जिद मे दोबारा आना संभव नही होता। मैं मंत्र जाप करते हुये सूर्य अस्त होने का इन्तेज़ार कर रहा था, कि अचानक मस्जिद मे अफरा-तफरी मच गई, मस्जिद के कर्मचारी मस्जिद का दरवाजा बंद करके उसके आगे चटाईयो का ढेर लगा रहे थे, ताकि अगर दरवाजा टूट भी जाए, तो चटाईयो के द्वारा किसी भी व्यक्ति को मस्जिद मे प्रवेश करने से रोका जा सके।
उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक जिले की वह मस्जिद काफी पुराने समय पहले की बनी हुई थी, इसके थोड़े से ही हिस्से का जीर्णोद्धार हुआ था, बाकी हिस्सा जीर्ण-शीर्ण था,
थोड़े से ही बल से वह ध्वस्त होकर जमीन पर गिर जाता।
मैने मस्जिद मे कुरान पढ़ने वाले बच्चो को छत पर चढ़ते हुए देखा था, इसलिए जब मुझे कुछ समझ मे नही आया, तो मैं भी छत पर चढ़ गया। मैने छत के ऊपर चढ़ कर देखा, कि मस्जिद मे पढ़ने वाले वह छोटे-छोटे बच्चे सड़क की तरफ देखकर जोर-जोर से रो रहे थे, तो जिज्ञासा वश मेरी नजर भी सड़क की तरफ चली गई, सड़क का दृश्य देखकर मेरी सांस रूक गई और दिमाग सुन्न हो गया, मानो शरीर मे खून का प्रवाह रुक गया हूँ और मैं कुछ पल जिंदा लाश के समान खड़ा का खड़ा रह गया था।
सड़क पर दो दर्जन नौजवान भगवा पगड़ी बांधे या गले मे भगवा गमछा डाले, खून जैसे लाल रंग के भयावह टीके लगाये हुये और हाथ मे लंबी-लंबी चमकदार नंगी तलवारे लेकर नारे लगा रहे थे!
“भागो मुल्लाह पाकिस्तान, वरना जाओगे कब्रिस्तान”!
हिन्दु का बच्चा राम का, मुसलमान का बच्चा हराम का!
ऐसे-ऐसे अभद्र नारे थे, जिनका उल्लेख संभव नही है।
छतो से झांकती भयभीत मुस्लिम महिलाओ की तरफ अश्लील इशारे किए जा रहे थे। मुझे लगा कि ये दंगाई कुछ क्षणो बाद मस्जिद मे घुसकर मेरी हत्या कर देगे, यह विचार करके मैं अपना गुरु मंत्र पढ़ने लगा।
इतनी देर मे एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति चंद पुलिस वालो के साथ आया और उन बालको को मस्जिद से आगे बढ़ा दिया, फिर अचानक दृश्य बदल गया, चंद मिनट पहले जो भगवा आतंकवादियो की सेना नजर आ रही थी, वह अब सड़क पर नृत्य करते युवाओ वाली एक धार्मिक यात्रा की झांकी मे बदल गई।
वास्तव मे वह रामनवमी का जुलूस था, किन्तु भाजपा और उसके पैतृक संगठन आर एस एस की राजनीतिक महत्वकांक्षा के चलते ध्रुवीकरण के लिए किये जा रहे प्रयासो के परिणाम मे यह भगवा आंतकवादियो की सेना होने का भ्रम पैदा कर चुकी थी। समाज मे यह सोच रातो-रात नही पैदा हुई है, बल्कि श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से शुरू हुई घृणा की इस कूटनीतिक यात्रा को यहां तक पहुंचने मे तीन दशक लगे है, किंतु अब सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चिन्हो का दुरूपयोग चरम सीमा पर पहुंच चुका है। संघ के उत्पाती सैनिक राष्ट्रीय और हिंदू पर्वो पर हाथो मे तिरंगा लेकर जानबूझकर मुसलमानो के मोहल्ले मे घुसकर भड़काऊ नारे लगाना और अश्लील इशारे करना शुरू कर देते है, जब स्थिति हाथापाई और पथराव तक पहुंच जाती है, तब पीछे से भगवा गुण्डे आकर तोड़फोड़, आगजनी, हत्या और बलात्कार करते है!
फिर संघ का मीडिया सेल तुरंत सक्रिय होकर आरोप लगाता है, कि मुसलमानो को राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय ध्वज सहन नही हुआ और उन्होने तिरंगे का अपमान करते हुये राष्ट्रवादियो पर हमला किया है। प्रशासनिक अधिकारी जिन्हे हर दंगे के बाद काफी मशक्कत करनी पड़ती है, वह हिंदुत्ववादियो के इस षडयंत्र को अच्छी तरीके से समझते है!
कासगंज दंगे के बाद बरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट राघवेंद्र विक्रम सिंह ने तंग होकर इस विषय पर ट्वीट किया, तो हंगामा मच गया था, फिर पूरी भाजपा डी० एम० के पीछे लग गई, इसके कारण उनको ट्वीट डिलीट करना और सरकारी थप्पड़ो को झेलना पड़ा।
28 सितम्बर 2015 को उत्तर प्रदेश मे दादरी के निकट विसाड़ा गांव मे एक भारतीय सैनिक के 52 वर्षीय पिता मु० अखलाक की गौ-मांस की आड़ मे उसके घर मे घुसकर निमर्म हत्या कर दी गई थी, फिर हत्या का एक आरोपी रवि सिसोदिया की जेल मे मृत्यु हो गई, उसकी अर्थी को तिरंगे मे लपेटकर ऐसे जुलूस निकाला गया, जैसे भारतीय सेना का कोई वीर सीमा पर शत्रुओ के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुआ हो।
इंस्पेक्टर शहीद सुबोध सिंह के हत्यारे और बुलंदशहर हिंसा के आरोपी जीतू फौजी, शिखर अग्रवाल, हेमू, उपेंद्र सिंह राघव, सौरव और रोहित राघव जब कोर्ट से जमानत लेकर जैसे ही जेल से बाहर आए, तब हिन्दूवादी संगठनो से जुड़े लोगो ने तुरंत फूल माला पहनाकर उनका स्वागत किया और इस दौरान भारत माता की जय, वन्दे मातरम और जय श्रीराम के नारे लगाए गये, दृश्य ऐसा प्रतीत होता था,
कि जैसे यह एक भारतीय पुलिस अधिकारी के हत्यारे ना हो, बल्कि देश की सीमा पर शत्रुओ के दांत खट्टे करके घर वापस आये भारतीय सैनिक हो।
पहले राष्ट्रीय गीत को अल्पसंख्यको के ऊपर हमला करने का आधार बनाया जाता था, किंतु आज राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत और जय श्रीराम का नारा हिंदुत्ववादियो के हर हमले और उसकी सफलता का उद्घोषक बन गया है।
मुसलमानो के हत्यारे बहुत आसानी से अदालत द्वारा बरी कर दिये जाते है, अलवर के चर्चित मॉब लिंचिंग हत्याकांड के शिकार पहलू खान के आरोपी सरकारी वकील की धूर्तता से बरी हो गये, पुलिस ने उस मोबाइल को जांच के दौरान ज़ब्त कर लिया था, जिससे घटना का वीडियो बनाया गया था, इसके बावजूद उस मोबाइल को कोर्ट मे बतौर सबूत पेश नही किया गया। एनडीटीवी के स्टिंग ऑपरेशन मे हत्यारे ने खुद स्वीकार किया था, कि “हमने हत्या करी है”, अदालत ने स्टिंग ऑपरेशन को नकार दिया।
हर महीने दो-तीन मुसलमानो को मॉब लिंचिंग की आड़ मे फांसीवादी आतंकवादियो द्वारा कत्ल कर दिया जाता है, अब तो मॉब लिंचिंग की घटनाएं और बढ़ने की संभावना है, क्योकि पुलिस-प्रशासन और अदालत की उदासीनता के कारण फासीवादी हत्यारो के हौसले बुलंद है। फासीवादी नेतृत्व अल्पसंख्यको मे भय का वातावरण बनाना चाहता है, ताकि अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोट कर अपने फासीवादी एजेंडे को लागू किया जा सके, हिंदुत्ववादियो के अत्याचारो के विरुद्ध आवाज उठाने वाले हर अल्पसंख्यक और वामपंथी बुद्धिजीवी को देशद्रोही बताने का प्रोपेगंडा किया जाता है, अगर वह हार नही मानता है, तो उसे आज़म खान की तरह बनावटी केसो मे फंसाकर अपाहिज कर दिया जाता है, फिर भी वह नही झुकता है, तो उसे गौरी लंकेश की तरह मौत के घाट उतारकर ठिकाने लगा दिया जाता है,
उद्देश्य यह है, कि अल्पसंख्यक और दलित फांसीवादियो खिलाफ सर नही उठा सके और राजनैतिक प्रक्रिया से किनारा कर ले, फिर फासीवादी आसानी से संविधान मे बदलाव करके अपने एजेंडे को लागू कर सके।
दूसरे इनका षड्यंत्र है, कि मुसलमान मॉब लिंचिंग से तंग आकर हथियार उठा ले,
फिर फासीवादी मोदी सरकार को आतंकवाद के नाम पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति करने और मुसलमानो के नसली सफाये के लिये सेना को सड़क पर उतारने का बहाना मिले, ताकि जिससे अंतरराष्ट्रीय जगत मोदी सरकार के तर्को के सामने मौन दर्शक बना रहे और फासीवादी व्यवस्था को लागू करने से नही रोक सके, इसी कूटनीति के चलते आतंकवाद को रोकने के नाम पर “गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम” यानी यू० ए० पी० ए० नामक एक नया कानून बनाया गया है, जिसके अंतर्गत सरकार को किसी भी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ घोषित करने का अधिकार दिया गया है, वह भी बिना उस व्यक्ति पर मुकदमा चलाए और उसका दोष साबित किए बगैर?
यह कानून इतना खतरनाक है, कि मेरी अब तक लिखी गई पंक्तियो के आधार पर मुझे आतंकवादी घोषित किया जा सकता है और तर्क यह दिया जाएगा, कि मैं मुसलमानो को देश के विरूद्व भड़का रहा हूं।
सरकार समर्थक कहते है, कि मुसलमान इस कानून से क्यो डर रहे है? यह तो “चोर की दाढ़ी मे तिनका” वाली बात है! विषय की गंभीरता को मजाक मे उड़ा कर इस काले कानून को नजरअंदाज नही किया जा सकता है, क्योकि आतंकवाद के कानूनो का इस्तेमाल सिर्फ अल्पसंख्यको के विरुद्ध ही होता है, विशेषकर मुसलमानो और सिक्खो के विरुद्ध इसको हथियार बनाया जाता है, इसलिए अल्पसंख्यको का चिंतित होना जायज़ है। अगर इमानदारी से इन कानूनो का पालन होता, तो अब तक बजरंग दल और सनातन संस्था जैसे संगठन भारत सरकार द्वारा आतंकवादी संगठन घोषित कर दिये गये होते, क्योकि 24 अगस्त 2008 को कानपुर मे बजरंग दल के कार्यकर्ता 25 वर्षीय राजीव मिश्रा और 31 वर्षीय भूपेंद्र सिंह चोपड़ा बम बनाते हुये मारे गये थे, इससे बड़ा आतंकवाद का और क्या प्रमाण होगा? इससे पहले 6 अप्रैल 2006 मे महाराष्ट्र के नांदेड़ मे एक बम बनाने की दुर्घटना मे बजरंग दल के कार्यकर्ता नरेश कोंडवार और हिमांशु पानसे मारे गये थे, 16 अक्टूबर 2009 को सनातन संस्था के मालगोंडा पाटिल और योगेश नाइक गोवा मे बम ले जाते हुए मारे गये थे। इतने कम वर्षो मे भगवा आतंकवादी तीन घटनाओ मे बम इस्तेमाल करने से पहले ही उस बम के विस्फोट से मारे गये थे!
तो यह प्रश्न स्वाभाविक है कि हो सकता है, यह आतंकवादी लगभग तीन सौ वारदाते करने मे सफल भी हो गये हो? क्योकि आतंकवादियो का बम बनाते समय मारे जाने का अंतरराष्ट्रीय औसत एक प्रतिशत से भी कम है। इनका नेटवर्क कितना बड़ा होगा? नेटवर्क के तार किन-किन राजनेताओ से जुड़े होगे? क्योकि बिना राजनैतिक प्रोत्साहन से इतना बड़ा जोखिम लेना संभव नही है। इन भगवा आतंकवादियो को किन-किन बाहरी शक्तियो का समर्थन प्राप्त है? क्योकि विदेशी सहायता के बिना इतना बड़ा नेटवर्क संभव नही है। इस नेटवर्क का पता लगाने और भंडाफोड़ करने के बजाय, उल्टे तफ्तीश कर रहे अधिकारियो के विरुद्ध ही कार्रवाई शुरू हो गई और अधिकतर आरोपी अदालत से बरी हो चुके है, बाकी भी जल्द छूट जायेगे या नाम मात्र की सजाएं होगी। मोटरसाइकिल, फोन रिकॉर्ड, मीटिंग के गवाह और कई सुबूत होने के बावजूद प्रज्ञा ठाकुर (सिंह साहब) फांसी के फंदे पर चढ़ने के बजाय संसद की सम्मानित सदस्य बन गई और भविष्य मे मंत्री भी बन जाएगी, अगर यह सबूत किसी मुसलमान के विरुद्ध होते तो उसको अब तक अफजल गुरु की तरह फांसी हो चुकी होती।
मोदी सरकार यह मानने को तैयार ही नही है, कि “हिंदू आतंकवादी होता है”, तो स्वाभाविक है, कि इस काले कानून का उपयोग मुसलमानो के विरुद्ध ही होगा अर्थात मुसलमानो को निशाना बनाने के लिये ही यह कानून बनाया गया है।
एक तरफ सरकार ने भगवा आतंकवादियो को नये-नये बहाने बनाकर मुसलमानो की हत्या करने की छूट दे रखी है, तो दूसरी तरफ मुसलमानो को फर्जी बहाने बनाकर काले कानूनो की मार्फत शिकार बनाया जा रहा है।
यह गंभीर परिस्थितियां भारत मे फासीवाद के दूसरे चरण की चिल्ला-चिल्ला कर घोषणा कर रही है। यह स्थिति ना तो रातो-रात बनी और ना ही संघ परिवार की नौ दशको की मेहनत का परिणाम है,बल्कि यह फासीवादियो द्वारा संगठित रूप से साढे़ नौ दशको से की जा रही अथक मेहनत का परिणाम है।
मुझे आज की परिस्थितियो का दो दशक पूर्व ही अंदाजा हो गया था, तब से ही मैं अपने जीवन मे घटित घटनाओ का विश्लेषण करके इन फासीवादी स्थितियो का आकलन और भविष्यवाणी करता रहा हूँ, मुझे डर है, कि 2025 तक फासीवाद का अंतिम चरण शुरू हो जायेगा। मैने इस घृणा का स्वाद अटठारह वर्ष पूर्व ही चख लिया था, जो विषपान आज भारत के हर मुसलमान को करना पड़ रहा है।
मैं 1998 मे मुंबई विश्वविद्यालय से वाणिज्य मे स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण करके वर्ष 1999 मे दिल्ली आ गया, ताकि सिविल सर्विसेज जैसी प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी कर सकू, किंतु पारिवारिक स्थिति दिनो-दिन खराब होती गई, पिताजी बीमार हो गए जिसके कारण 3 वर्ष बाद उनका देहांत हो गया, माताजी तो मेरे बचपन से ही बीमार रहती थी। विषम आर्थिक परिस्थितियो के चलते मैंने एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी मे नौकरी कर ली, जिसके मैनेजिंग डायरेक्टर अरुण भगत थे, जो इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर बनने से पहले दिल्ली पुलिस के कमिश्नर भी रह चुके थे, कंपनी का ऑफिस एक निजामुद्दीन ईस्ट मे स्थित था, यह ऑफिस पहले किराए पर बीबीसी के संवाददाता मार्क टेली के पास था, वह नीचे रहते थे और ऊपर अपनी व्यवसायिक गतिविधियां चलाते थे, किंतु परिस्थितिवश अचानक उन्होंने ऊपर का मकान खाली कर दिया और नीचे रहने लगे। मेरी कंपनी ने मकान मालिक से ऊपर का मकान किराए पर ले लिया। कंपनी को फिक्की से कांटेक्ट मिला था, जिसके अनुसार मेरी कंपनी को फिक्की की एक दर्जन से अधिक क्लाइंट कंपनियो के फर्जी प्रोडक्ट को बेचने वाले अपराधियो को दिल्ली पुलिस की सहायता से पकड़ना था।
कंपनी मे सी० बी ०आई०, आई० बी०, दिल्ली पुलिस और सेना से सेवानिवृत्त हुए लगभग 100 से अधिक कर्मचारी कार्य कर रहे थे, इसके अतिरिक्त कई दर्जन समान्य नागरिक भी थे, जो उन अधिकारियो की सहायता करते थे। मैं अकाउंट मैनेजर था, मेरे मैनेजर एस० के० शारदा थे, जो आई० बी० के डिप्टी डायरेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। शारदा बहुत ही कर्मठ और अनुशासनप्रिय अधिकारी थे, वह एक दिन मे 20 घंटे कार्य करने की असाधारण क्षमता रखते थे, जब पंजाब मे खालिस्तान का अलगाववादी आंदोलन चल रहा था, तो उस वक्त वह एंटी टेरेरिस्ट डेस्क के इंचार्ज थे और गृहमंत्री को सीधे रिपोर्टिंग किया करते थे। इतने बड़े-बड़े अधिकारियो के कंपनी मे कार्यरत होने के बावजूद भी आपस मे कोई भेदभाव नही होता था, पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह रहता था, जिसमे हिंदू-मुसलमान और ब्राह्मण-दलित जैसी कोई दुर्भावना नही पाई जाती थी।
13 दिसम्बर 2001 का मनहूस दिन आया, हम ऑफिस के दैनिक क्रियाकलापो मे व्यस्त थे, कि अचानक अरूण भगत अपने कमरे से बाहर आए और कहा कि संसद पर आतंकवादी हमला हो गया है, लगभग एक दर्जन स्टाफ जो ऑफिस मे मौजूद था, वह उनके कमरे मे लगे टीवी पर समाचार सुनने लगा, फिर कुछ देर के बाद हम लोग अपनी टेबल पर वापस आकर अपने-अपने कार्य करने लगे।
इसके बाद पत्रकारो का मेरे ऑफिस मे आना शुरू हो गया, क्योकि अरुण भगत पत्रकारो मे बहुत लोकप्रिय थे और अधिक से अधिक पत्रकार संसद पर हुए हमले पर उनका साक्षात्कार करना चाहते थे। पत्रकारो की भीड़ के कारण हमारे ऑफिस का रूटीन वर्क ठंडा पड़ गया और हम पत्रकारो की आवभगत मे व्यस्त हो गए।दोपहर के भोजन के बाद मैं अरुण भगत के बराबर वाले कमरे मे अलमारी से एक फाइल निकालने गया, उस कमरे मे आई० बी० और दिल्ली पुलिस के कई रिटायर्ड अधिकारी बैठते थे, जिसमे दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड ए० सी० पी० चेतनदास भी थे।
जब मैं कमरे मे दाखिल हुआ,
तो उस समय चेतन दास की मेज़ के सामने दिल्ली पुलिस के एक रिटायर्ड इस्पेक्टर जो डिफेंस कॉलोनी के एस० एच० ओ० रह चुके थे, जिनका सरनेम शायद नेहरा था, वह चेतन दास से बात कर रहे थे, वह बोल रहे थे, कि सारे के सारे भारतीय मुसलमानो को गोली मार देना चाहिए। उनकी पीठ मेरी तरफ थी, इसलिए उन्हे पता नही चला, कि कब मैं कमरे मे दाखिल हो गया हूँ? किंतु चेतन दास का चेहरा मेरी तरफ था, इसलिए उन्होने घबराकर कहा, कि मुसलमानो को पाकिस्तान भेज देना चाहिए।
यद्यपि चेतन दास धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे और वह कहना चाहते थे,
कि जो पाकिस्तान परस्त मुसलमान है उन्हे पाकिस्तान भेज दो। लेकिन मेरे अचानक कमरे मे आने से वह सकपका गये और घबराहट मे उनके शब्द बदल गये। यह शब्द सुनकर मुझे ऐसा लगा, कि एटम बम मेरे ऊपर गिर गया हो,क्योकि मैं एक राष्ट्रवादी परिवार से आता था, मेरे माता जी के परिवार मे बहुत से पुलिस अधिकारी हुये थे।
इस घटना के समय मेरे दूर के तीन रिश्तेदार इंटेलिजेंस ब्यूरो मे कार्य कर रहे थे,
ऐसे समर्पित राष्ट्रवादी मुसलमान परिवार के युवा के लिए यह शब्द सुनना, असहनीय पीढ़ा को जन्म देना था, जिसका घाव आज तक नही भर पाया है।
13 सितंबर 2008 को दिल्ली के बटला हाउस क्षेत्र मे एनकाउंटर हुआ, उस समय मै बटला हाउस मे ही रहता था, मेरा घर घटनास्थल ब्लाक एल-18 से बहुत नजदीक था। उस समय मैं एक गांधीवादी समाजसेवी संस्था मे कार्यरत था, मेरे अधिकारी आई० बी० से सेवानिर्वत डिप्टी डायरेक्टर बागेश्वर झा थे, बी० झा एक कट्टर मनुवादी ब्राह्मण थे और मुसलमानो से बहुत घृणा करते थे। इस घटना के बाद से वह दिन भर मेरे सामने मुसलमानो की आलोचना करते और मुसलमानो को देश की एकता और अखंडता के लिये सबसे बड़ा खतरा बताने की कोशिश करते थे! उनका मत था, कि इस्लाम भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
ऑफिस की लाइब्रेरी मे एक किताब थी, जिसका शीर्षक था,”आई०एस०आई० का फैलता जाल”, वह किताब आई० बी० के किसी रिटायर्ड अधिकारी ने लिखी थी, झा हमेशा मुझे देखकर वह किताब अपने हाथ मे उठा कर इस तरह हिलाते-घुमाते थे,
कि जिससे उस किताब की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित हो,फिर अखबार के किसी समाचार को आधार बनाकर या कोई दूसरा बहाना बनाकर मुसलमानो को बुरा-भला कहना शुरू कर देते थे, उनका प्रयास होता था, कि इस वाद-विवाद मे मुझे उलझाया जाये। मै उनसे दर्जनभर वरिष्ठ आई० बी० के रिटायर्ड अधिकारियो के साथ पहले ही काम कर चुका था, इसलिए उनके षड्यंत्र मे नही फसता था।
उनको लेखन का बहुत शौक था,उन्होने कई किताबे लिखी थी, जिसमे से एक मैथिली भाषा की किताब छप भी चुकी थी, किंतु राजनीतिक लेख वह अपना नाम बदलकर फर्जी नामो से लिखा करते थे। उन्होने एक युक्ति निकाली और उसके बहाने से मुझे उलझा लिया, वह मुझे कोई भी टॉपिक देकर इंटरनेट पर से जानकारी निकलवाया करते थे, इस तरह मेरे और उनके बीच संवाद बढ़ गया। एक बार हम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोकतंत्र के ऊपर बात कर रहे थे, गांधीजी देश मे प्रत्यक्ष लोकतंत्र चाहते थे, जिसे हम गांधी जी का स्वराज कहते है। किन्तु संविधान निर्माताओ ने अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को चुना, क्योकि उनका मत था, कि भारत जैसे विविधता वाले देश मे प्रत्यक्ष लोकतंत्र उपयुक्त नही था और तानाशाही को जन्म दे सकता था।
इस चर्चा के बीच मे बी० झा ने अचानक मेरे ऊपर सवाल दाग़ दिया, कि “पाकिस्तान मे कोई भी शिया प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नही बन सकता है?” उस समय संयोग से युसुफ रज़ा जिलानी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और आसिफ अली ज़रदारी राष्ट्रपति थे, यह दोनो शिया थे, यद्यपि तकिया सिद्धांत को अपनाते हुए,
यह लोग अपने आपको बरेलवी कहते है, किंतु शादी, मौत और दूसरे अवसरो पर होने वाली रस्मो से यह साफ हो जाता है, कि यह बरेलवी नही बल्कि शिया है।
पाकिस्तान के इतिहास मे सबसे बदनाम सैनिक शासक याह्या ख़ान कट्टर शिया थे। प्रश्न का उत्तर सुनकर वह सकापका गए और उन्होंने दूसरा प्रश्न दाग दिया,
कि “पाकिस्तान मे सिर्फ चौदह सौ साल का इतिहास पढ़ाया जाता है, जबकि भारत का इतिहास हजारो साल पुराना है?” मैंने उनको तुरंत इंटरनेट से पाकिस्तान के कई विश्वविद्यालयो का स्नातक और स्नातकोत्तर के इतिहास विषय का पाठ्यक्रम (सिलेबस) निकाल कर दिखाया।
वह यह देखकर हैरान रह गए, कि पाकिस्तानी विश्वविद्यालयो मे इतिहास के पाठ्यक्रम मे महात्मा बुद्ध और बौद्ध धर्म के धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक इतिहास को भारत की तुलना मे कई गुना अधिक स्थान दिया जाता है।
फिर उन्होने निराश होते हुए तीसरा सवाल किया,कि “पाकिस्तान मे अल्पसंख्यको को मौलिक अधिकार भी नही है? जबकि भारत मे मुसलमान आरक्षण की मांग कर रहे है”। मैंने उनको इंटरनेट से प्रिंट आउट निकाल कर दिया और बताया, कि पाकिस्तानी सविधान ने शुरुआत से ही अल्पसंख्यको को संसद मे आरक्षण दिया है, जोकि एक लोकतांत्रिक देश भारत मे अभी अगले पचास साल तक भी संभव नही है।
गुस्से मे उन्होने चौथा सवाल किया,कि “पाकिस्तान मे महिलाओ की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति बेहद खराब है? जबकि भारत मे महिलाओ को कितने अधिक अधिकार प्राप्त है।” यह सवाल उनकी सबसे बड़ी अज्ञानता का प्रमाण था,
मैंने उनको फिर प्रमाण दिया, कि पाकिस्तान मे मुशर्रफ ने पाकिस्तानी संसद मे महिलाओ को 30% आरक्षण दे दिया है, जबकि धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश भारत मे महिलाओ को आरक्षण मिलना अगले 10 वर्षो तक भी संभव नही होगा।
बहस मे बुरी तरीके से हार जाने के बाद वह मेरे दुश्मन हो गये और रोज किसी ना किसी मुद्दे को बहाना बनाकर मुसलमानो पर निशाना साधते थे,
अंत मे वह दिन आ गया, कि जब इस बहस का अंत होना था, उस दिन मैने इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व पत्रकार और दलित एक्टिविटी वी० टी० राजशेखर की पत्रिका दलित वॉइस और उनके समर्थको के कई लेख दिखाये, जिसमे एक लेख जिसका शीर्षक था,
“हाऊ ब्राह्मण किल्ड दा बुद्धिज्म इन इंडिया”
अर्थात ब्राह्मणो ने किस तरीके से भारत से बौद्ध धर्म का सफाया किया?,
इसके बाद चर्चा निम्न स्तर पर पहुँच गई और मेरे वरिष्ठ अधिकारियो ने बीच मे पड़कर इस बहस को खत्म करवाया, उसके बाद हमेशा के लिए मेरे और उनके बीच मे वार्तालाप बंद हो गया।
तीसरी घटना और भी कष्टप्रद थी। मैं मोदी सरकार बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी के अशोक रोड स्थित कार्यालय के बाहर खड़ा हुआ अपने एक राष्ट्रवादी हिंदू मित्र से चर्चा कर रहा था, तभी उनके एक मित्र आये जो आई० बी० मे कार्यरत थे, उनका सरनेम पाठक था। मेरे हिंदू राष्ट्रवादी मित्र ने उनसे मेरा परिचय कराया, तो वह मेरा इस तरह साक्षात्कार करने लगे, कि जैसे मैं कोई अपराधी हूं और मैं धैर्य और शालीनता के साथ उनके प्रश्नो का जवाब देता रहा, चर्चा के बीच मे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताते हुए मैंने अपने एक दूर के रिश्तेदार का परिचय दिया,
जो 1977 के बैच के आई० पी० एस० अधिकारी थे, पाठक ने तुरंत कहा 1977 मे कोई मुसलमान आई० पी० एस० नही बना था। मैं उनका जवाब सुनकर हैरान रह गया और कई तर्क देता रहा, लेकिन उनके ऊपर कोई असर नही हुआ। वह अंतिम समय तक मुझे झूठा साबित करने मे लगे रहे, उनके व्यवहार से मुझे बहुत दुख हुआ, क्योकि आज सूचना क्रांति के युग मे वह इंटरनेट से अधिकारियो की लिस्ट निकालकर अध्ययन और अनुसंधान सकते थे, फिर भी अगर जानकारी नही मिलती तो वह दूसरे दिन गृह मंत्रालय के कार्यालय मे फोन करके सूचना ले सकते थे, किंतु वह मुझे बिना प्रमाण और प्रयास के झूठा साबित करने की कोशिश करते रहे।
उस दिन मुझे यकीन हो गया, कि खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले इन ब्राह्मणवादियो अर्थात भारतीय फासीवादियो से तार्किक बहस करना भी बेकार है, क्योकि मुसलमानो को झूठा साबित करना ही इनका लक्ष्य है। सबसे ज्यादा दुख की बात यह है, अल्पसंख्यको के पास आखिरी रास्ता न्यायालय का होता है, किंतु दक्षिणपंथी सवर्णो की बहुलता के कारण न्यायालय का रवैया अल्पसंख्यको को लेकर बेहद उदासीन होता है, जबकि बहुसंख्यको को लेकर बहुत उत्साहित होता है।
अगर मै इन तीनो घटनाओ को अदालत मे प्रमाणित करना चाहूं, तो कभी सफल नही हो पाऊगा, क्योकि प्रथम तो अधिकतर लोग जीवित नही है, दूसरे अल्पसंख्यको के प्रमाणो को कमज़ोर मानकर अदालत खारिज कर देती है, जबकि अल्पसंख्यको के खिलाफ अगर प्रमाण ना भी हो, तो न्यायाधीश उसे “आत्मा की आवाज” कहकर सजा दे देते है। अजमल कसाब, अफजल गुरु और दूसरे दर्जनभर अपराधिक मामलो मे मुसलमानो और सिक्खो के खिलाफ बेहद चौकाने वाले निर्णय दिये गये है जबकि बहुसंख्यक आतंकवाद के मामलो मे आसानी से बरी हो जाते है, बाकी अपराधिक मामले तो बहुत मामूली सी बात है, गांधी जी की हत्या के मामले मे वीर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बड़ी आसानी से बच गये थे!
अगर आज कोई इनके ऊपर आरोप लगाता है,तो वह उल्टा अपराधी होता है, जबकि सारी दुनिया सच्चाई जानती है, कि नाथूराम गोडसे और उसके साथियो के सावरकर और संघ से बहुत गहरे रिश्ते थे, उनकी मदद के बिना हत्यारे इतना बड़ा आत्मघाती निर्णय नही ले सकते थे।
मैं ऐसी कई दर्जन घटनाएं लिख सकता हूं, जिसमे भारतीय ब्यूरोक्रेट्स ने मेरे धर्म के कारण मुझे बिना वजह निशाना बनाया, किंतु मैने तीन घटनाओ का उदाहरण दिया, क्योकि यह आई० बी० और पुलिस के अधिकारियो के व्यवहार से जुड़ी हुई है, मैं इनकी सोच बताना चाहता हूं, क्योकि यह सीधे शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदाई होते है, अब आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है, कि यह लोग संभ्रांत और प्रतिष्ठित मुसलमानो को भी झूठा और नीच समझकर उनसे इतनी घृणा करते है? तो इनका व्यवहार आम मुसलमानो के साथ कैसा होता होगा? इनके व्यवहार से मुसलमानो मे कितनी असुरक्षा की भावना पैदा होती होगी? जिसका लाभ हिंदुत्ववादी अपराधी लेते है और भविष्य मे देश के बाहरी दुश्मन भी फायदा उठा सकते है, क्योकि पाकिस्तान के सबसे मशहूर और कुख्यात खुफिया अधिकारी हमीद गुल ने कहा था, कि मोदी सरकार मे अल्पसंख्यको पर अत्याचार बढ़ेगा,जिससे वह देश के खिलाफ हथियार उठाने पर मजबूर हो जायेगे,
फिर भारत मे गृह युद्ध शुरू हो जायेगा और पाकिस्तान को अपना एजेंडा पूरा करने मे आसानी होगी!
उसने मोदी को पाकिस्तान के लिए सबसे लाभकारी भारतीय शासक बताया था।
मोदी जिस नफरत की सुनामी पर अपनी सत्ता की नाव चला रहे है, वह रातो-रात तो पैदा नही हो गई होगी, बल्कि इसकी बहुत पुरानी पृष्ठभूमि होगी? यहां तक पहुंचने मे वर्षो लगे होगे? बहुत से लोग इसको यहां तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार होंगे? महात्मा बुद्ध, महावीर और महात्मा गांधी जैसे अहिंसावादी महापुरुषो तथा कबीर, नेहरू और राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादियो के देश मे इतनी संप्रदायिक घृणा और हिंसा कैसे पैदा हो सकती है?
कोई भी भारतीय इमानदारी से इन प्रश्नो का जवाब नही देना चाहता है, क्योकि पहले उसे मोदी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ेगा और अगर बच गया,
तो हिंदुत्ववादी उसकी हत्या करने की सीमा तक जा सकते है।
दभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तर्कवादी बुद्धिजीवियो की चुन-चुनकर सनातन संस्था के आतंकवादियो ने हत्या कर दी,
बाकी लोगो को धमकियां मिल रही है, जिससे बुद्धिजीवियो के बीच डर का माहौल बन गया है। अगर कोई व्यक्ति हिंदुत्वादियो के खिलाफ बोलता है, तो पहले मीडिया मे बैठे हुए सरकार के पिट्ठू उसको निशाना बनाते है, फिर समाज सेवा के नाम पर और राष्ट्रवाद की आड़ मे चल रही फांसीवादी संस्थाएं तथा वकील सड़को पर आकर प्रदर्शन करते है, उसके बाद सरकार उसको बहाने खोज-खोज कर कानूनी मार मारती है, फिर भी अगर वह सौभाग्य से बच जाये, तो अन्त मे भगवा आतंकवादी उसको ठिकाने लगा देते है।
एक शताब्दी पूर्व मशहूर लेखक मुंशी प्रेमचंद जी ने कहा था, कि “राष्ट्रवाद वर्तमान युग का कोढ़ (रोग) है”।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी स्थापना की पहली शताब्दी पूरी होने से पहले ही भारतीय समाज को धर्म के नाम पर तोड़कर देश को गृह युद्ध की कगार पर पहुंचा दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुओ को भू-राजनीतिक आधार पर एक अलग समुदाय मानता है, जिसके निवासियो का अपनी अलग जीवनशैली के कारण आपस मे अटूट का संबंध है जिसे “एकात्मकता” का सिदांत कहा माना जाता है,
किन्तु जो माटी पुत्र विदेशी भूमि पर जन्मे धर्मो जैसे इस्लाम और ईसाइयत को अपना लेते है, उन्हे संघ देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा मानता है,
क्योकि उनकी पुण्य भूमि विदेश मे होने के कारण उनकी श्रद्धा का लाभ विदेशी शक्तियां उठा सकती है।
जबकि स्थिति वास्तव मे इसके विपरीत है, ब्रिगेडियर उस्मान, वीर अब्दुल हमीद और कैप्टन हामिद जैसे अनेको मुस्लिम सैनिको ने मां भारती की सुरक्षा के लिए अपने प्राण निछावर कर दिये और उन्होने धर्म के नाम पर जरा सी भी सहानुभूति दिखाये बिना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। जबकि कड़वा सच यह है,
कि विदेशो के लिये जासूसी करने लगभग 80% से अधिक अपराधी सनातन धर्मी है, इनमे पाकिस्तान स्थित भारतीय दूतावास मे द्वितीय सचिव जैसे वरिष्ठ पद पर कार्य करने वाली माधुरी गुप्ता से लेकर भाजपा आई० टी० सेल के सदस्य ध्रुव सक्सेना तक शामिल है, सेना और सुरक्षा एजेंसियो मे भी विदेशो के लिये जासूसी करते भारतीय पकड़े जाते है, किंतु सुरक्षा से जुड़े मुद्दो के कारण इन मामलो को दबा दिया जाता है, किंतु रॉ अधिकारी रविंद्र सिंह के अमेरिका भाग जाने से यह मुद्दा काफी चर्चित रहा।
यह एकमात्र मुद्दा नही है जिसमे सच को झूठ मे बदल कर मुसलमानो को कटघरे मे खड़ा करके उन पर दबाव बनाने की कोशिश की जाती हो, बल्कि रोज नये-नये बहाने खोजकर दिन-भर ताने और गालियां दी जाती है,लेकिन अगर मुसलमान जवाब देता है, तो उसे देश का गद्दार बना दिया जाता है, इस तरह ज़ुल्म के खिलाफ उठाई गई हर मुसलमान की आवाज दबा दी जाती है।
करकरे की मौत पर सवाल करने वाले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अब्दुल रहमान अंतुले से लेकर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी तक को इन फासीवादियो ने देशद्रोही बताने मे कोई कसर नही छोड़ी है, बाकी मुसलमानो की तो औकात ही क्या है?
यही फासीवाद है,
जब अपराधी (मुलजि़म) उल्टा पीड़ित (मज़लूम) को ही कटघरे मे खड़ा देता है, हिसंक अम्ल खुद करेगा तो वह उसे राष्ट्र हित मे किया गया कार्य बतायेगा,
अगर वह अम्ल पीड़ित अल्पसंख्यक करेगा तो वह उसे राष्ट्र हित के विरुद्ध किया गया कार्य बतायेगा, अर्थात “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे”!
इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार सीजेआई रंजन ने एनआरसी को भविष्य के लिए महत्वपूर्ण बताया !
संघ विदेश मे रहने वाले भारतीय मूल के विदेशी नागरिको को अपनी सरकार की भावनाओ के विरुद्ध जाते हुये भी भारत के पक्ष मे आवाज उठाने के लिए प्रेरित करता है अर्थात लॉबिंग के लिए इस्तेमाल करता है, केनेडा, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, साउथ अफ्रीका, दुबई आदि देशो के हिंदू नागरिक भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियो के पक्ष मे तालियां बजाते और नारे लगाते है, लेकिन उनके देश के मूलनिवासी उन्हे देशद्रोही अर्थात गद्दार नही कहते है, अगर कोई भारतीय मुसलमान पाकिस्तानी या बांग्लादेशी खिलाड़ियो के पक्ष मे ताली बजा दे,
तो फासीवादी उसे देशद्रोही और गद्दार बना देते है।
कुछ सप्ताह पहले जाकिर नायक ने मलेशिया मे बयान दिया था, कि मलेशिया के हिंदूओ को भारत के मुसलमानो की तुलना मे 100 गुना अधिक अधिकार और सुविधाएं प्राप्त है, फिर भी मलेशिया के हिंदू नागरिक नरेंद्र मोदी का प्रचार करते है,
उनका मत था, कि मलेशिया के हिंदू जिस थाली मे खाते है, वह उसी मे छेद करते है!
यह व्यंग भारत के मुसलमानो को रोज सुनने को मिलता है,
किंतु मलेशिया के हिंदूओ ने राजनीतिक भूचाल लाकर जाकिर हुसैन को बैकफुट पर ढकेल दिया। भारत के मुसलमानो को इस घटना से सबक सीख़कर अपना मुंह खोलना चाहिऐ और संविधान के दायरे मे रहते हुये सड़को पर उतरकर संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाना चाहिऐ, क्योकि पिछले माह एन० आर० सी० ने आसाम के सत्रह लाख से अधिक मुसलमानो की नागरिकता छीन कर उन्हे सड़क पर ला खड़ा किया है।
नागरिकता का मुद्दा बाबरी मस्जिद की शहादत और धारा 370 के खात्मे जैसा नजरअंदाज कर देने वाला मामला नही है, बल्कि यह जिंदगी-मौत का सवाल है,
क्योकि बिना नागरिकता के इंसान का हाल धोबी के कुत्ते की तरह होता है,
“ना घर का, ना घाट का”।
आसाम मे एन० आर० सी० के परिणाम स्वरूप घटित यह घटना भारत मे फासीवाद के तीसरे चरण के शीघ्र आगमन का बिगुल बजा रही है।
“आसाम तो झांकी है,
अभी तो पूरा देश बाकी है”।
चिंतक, स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजसेवी एज़ाज़ क़मर की डायरी से मुक्तक