इससे बडी विडंबना क्या होगी कि इक्कीसवीं सदी का सफर करते जिस भारत में अर्थव्यवस्था और विकास की नई ऊंचाइयां छूने की बातें मुख्यधारा के विमर्श के केंद्र में हैं, वहीं आज भी यहां महिलाएं हर रोज बहुस्तरीय जोखिम के बीच अपनी जिंदगी गुजार रही हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि किसी वजह से एक महिला का सड़क पर निकलना खतरे से खाली नहीं है?
दूरदराज के इलाकों की हालत तो दूर, शहरों, महानगरों और यहां तक कि देश की राजधानी में भी अगर महिलाएं सुरक्षित और सहज जिंदगी को लेकर निश्चिंत नहीं हैं, तो यह किस तरह का विकास है? हाल में अपना काम खत्म करके घर लौटती लड़की कार में फंसी रही और उसमें सवार लोग कई किलोमीटर तक उसे घसीटते रहे, जिसकी वजह से बेहद दर्दनाक तरीके से उसकी मौत हो गई।
इस तरह की घटना को क्या सिर्फ कोई सड़क हादसा मान कर नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या ऐसी ही अनदेखी और उदासीनता का नतीजा यह नहीं है कि आज भी महिलाएं खुद को सुरक्षित नहीं पाती हैं? शायद यही वजह है कि दिल्ली महिला आयोग ने केंद्र गृह सचिव को पत्र लिख कर महिलाओं के खिलाफ अपराध से निपटने के संदर्भ में समन्वित नीति बनाने के लिए उच्च स्तरीय समिति बनाने की मांग की है।
अफसोसनाक यह है कि कहीं हादसे या कहीं संबंध के नाम पर, तो कहीं किसी और वजह से ज्यादातर महिलाएं हर वक्त एक प्रत्यक्ष या परोक्ष जोखिम से गुजरती रहती हैं। दिल्ली के कंझावला में कार से घसीटने से हुई लड़की की मौत ने तमाम संवेदनशील लोगों को झकझोर दिया और लोग इस भावनात्मक झटके से दो-चार थे कि इस बीच दिल्ली में ही एक युवक ने महज रिश्ते में उतार-चढ़ाव की वजह से अपनी ही साथी पर चाकू से जानलेवा हमला कर दिया।
अक्सर होने वाली ऐसी घटनाओं के बाद तकनीकी मदद से कई बार आरोपी पकड़ में तो आ जाते हैं, लेकिन अब तक ऐसा संभव नहीं हो सका है जिसमें आपराधिक प्रवृत्ति वाले किसी शख्स को ऐसी वारदात को अंजाम देने से पहले रोका जा सके।
जाहिर है, अगर खुली सड़क पर किसी महिला पर जानलेवा हमला होता है या उसकी हत्या कर दी जाती है तो आरोपी व्यक्ति के सामने पुलिस और उसकी कार्रवाई का भय शायद बहुत ज्यादा नहीं होता। अगर अपराधियों के सामने चौकस कानून-व्यवस्था एक चुनौती हो तो वह महिलाओं के खिलाफ अपराध करने से पहले एक बार हिचकेगा जरूर।
करीब दस साल पहले दिल्ली में जब चलती बस में निर्भया से बलात्कार और उसकी हत्या की बर्बर घटना सामने आई थी, तब देश भर में उसे लेकर एक आंदोलन खड़ा हो गया था। लगभग सब लोगों के भीतर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता थी । उसके बाद सरकार ने कार्रवाई की, पीड़ित महिलाओं के लिए निर्भया कोष बनाने से लेकर पहले से ज्यादा सख्त कानूनी प्रावधान किए गए।
तब न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर देश में एक आक्रोश की लहर देखी गई थी, बल्कि सामाजिक संवेदनशीलता का भी माहौल बनता दिखा था। उससे यह उम्मीद जगी थी कि निर्भया के खिलाफ बर्बरता की इंतहा से दुखी समाज में कम से कम भविष्य में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक संवेदना और जिम्मेदारी का विकास हो सकेगा।
लेकिन उसके बाद के वर्षों में महिलाओं का जीवन जिस तरह लगातार जोखिम और अपराध से दो-चार होता रहा, उससे यही लगता है कि सामाजिक जागरूकता के समांतर ही चौकसी के साथ कानूनी कार्रवाई में सख्ती की बेहद जरूरत है, ताकि किसी भी लड़की या महिला के खिलाफ अपराध करने से पहले अपराधियों के हौसले को तोड़ा जा सके।