वातानुकूलित पत्रकारिता के दौर में गोलियों, बमों और रॉकेट लांचरों के बीच सच को दुनिया के सामने लाने का जज्बा कम लोगों में होता है। विश्व की सबसे विश्वसनीय न्यूज एजेंसी रॉयटर्स के फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी को अफगानिस्तान में तालिबानियों की गोलियों ने छलनी कर दिया। अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए एक युवा भारतीय पत्रकार शहीद हो गया। नदी के भीतर हो या समुंदर में, आसमान में हो या जंग के मैदान में, मौत के सन्नाटे में हो या लाशों के बीच, कहीं भी दानिश का न कैमरा रुका और न कलम।
रॉकेट से हमला हुआ, तब भी कैमरा नहीं हिला। यही तो उनकी खूबी थी। वह न तो कोरोना से डरे और न सरकारों से। उनके इसी साहस ने उन्हें विश्व के प्रतिष्ठित पुलित्जर अवार्ड से सम्मानित करने को मजबूर किया था। रॉयटर्स ने उनके प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट करते हुए, उन्हें एक उत्कृष्ट पत्रकार के साथ समर्पित पति-पिता और एक बहुत प्यार करने वाला सहयोगी बताया है। दानिश भारत में रॉयटर्स की मल्टीमीडिया टीम का नेतृत्व कर रहे थे।
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उनकी मौत पर विश्व के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति “जो बाइडन” सहित तमाम राष्ट्राध्यक्षों और नेताओं ने श्रद्धांजलि दी है। देश के लिए दुखद यह है कि तमाम छोटी-छोटी बातों में ट्वीट करने वाले हमारे सत्तानशीनों ने उनकी शहीदी पर श्रद्धांजलि का एक ट्वीट करना भी जरूरी नहीं समझा। संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विश्व की तमाम संजीदा संस्थाओं ने उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये। विश्व के सभी बड़े मीडिया संस्थानों ने भी उन्हें सम्मान के साथ स्थान दिया है। हम भी उन्हें नमन करते हैं।
हमें याद है, जब हम पत्रकारिता में आये थे, तब यही जज्बा था। कहीं भी खतरों का एसाइनमेंट होता था, तो हम उसे स्वेच्छा से करने के लिए मांगते थे। कई बार उसके लिए खर्च भी अपने पास से ही करना पड़ता था। कारगिल युद्ध के बाद जब हम अमृतसर में कार्यरत थे, तब पाकिस्तान की सीमा में घुसकर खबर लाये थे। वहां जाने में मदद करने वाले बीएसएफ के अधिकारी ने साफ कहा था कि कोई बात हुई, तो वह हमें डिसओन करेंगे।
उस वक्त हमने “रावी के पानी से तबाही मचाने की नापाक साजिश” शीर्षक से खबर छापी थी, जिस पर संज्ञान लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण अडवाणी सीमा का निरीक्षण करने पहुंचे थे। उन्होंने हमें शाबासी के साथ नसीहत भी दी थी। हमने नक्सली इलाके में भी उसी तरह काम किया। यही कारण है कि जब हमने दानिश के तालिबानी गोली से शहीद होने की खबर सुनी, तो खुद को नहीं रोक सका।
दुख, गुस्सा और लानत तीनों एक साथ आया, उन लोगों पर जिन्होंने एक अहिंसक पत्रकार को मार डाला। उन लोगों पर लानत आई, जिन्होंने दानिश की मौत को उपहास बनाया और उन पर भी जिन्होंने सत्ता के जिम्मेदार पदों पर रहते हुए, भी उन्हें श्रद्धांजलि देना जरूरी नहीं समझा। दानिश किसी भी पत्रकार के लिए एक आदर्श स्थापित कर गये हैं, जिसे जीना कठिन तो नहीं मगर आसान भी नहीं है। उनकी मौत सुविधाभोगी चारण पत्रकारिता के लिए भी लानत है।
आपको याद होगा, डच के पत्रकार पीटर डे वेरिस की मौत, जिस पर उनके देश ने राष्ट्रीय शोक मनाया था। एमस्टरडम के मेयर उन्हें ‘राष्ट्रीय हीरो’ बताया था। हमारे यहां दानिश की मौत पर सत्ता में कोई चर्चा ही नहीं है। पत्रकारों के बीच उनकी मौत धार्मिक चश्मे से देखी जा रही है। आरोप-प्रत्यारोप के बीच यह भी सियासत के नाले में बह गई। जिस पत्रकार के शहीद होने पर श्रद्धा सुमन बरसने चाहिए थे, उसके बारे में पत्रकार बिरादरी में भी जाति-धर्म के साथ ओछे शब्दों की बौछार हो रही है।
हमें याद है कोरोना काल में जब हम एअरकंडीशंड कार से घूमकर फख्र महसूस कर रहे थे, तब दानिश हजारों किमी पैदल चलने वालों के बीच धूप-छांव की परवाह किये बगैर फोटो खीचने में लगे थे। जब हम घरों में जायके का आनंद ले रहे थे, तब वह रात में गुपचुप जलती लाशों को सबके सामने ला रहे थे। जब हम ठंडे पानी में स्नान का आनंद ले रहे थे, तब वह गंगा में घुसकर पुलिस पहरे से बचते सच दुनिया के सामने ला रहे थे। उस दानिश की फोटो ने पूरी दुनिया में कोरोना संक्रमित लाशों को, छिपाने वालों का विद्रुप चेहरा दिखा दिया था।
उस बहादुर पत्रकार-छायाकार को हम नमन करने में पीछे कैसे रह गये! हम वैदिक संस्कृति वाले राष्ट्र के वासी हैं, जो कहता है कि कर्तव्यपथ पर शहीद होने वाले को सम्मान के साथ श्रद्धांजलि देनी चाहिए। उसके लिए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। शायद हमारे नीति नियंता और उनके समर्थक अपनी ही संस्कृति भूल गये हैं।
इन दिनों हम पत्रकारिता का वह विकृत चेहरा देख रहे हैं, जिसको देखने के बाद किसी भी पत्रकार को शर्म आएगी। हम उन लोगों का महिमा मंडन करने में दिनरात एक किये हैं, जिन्होंने पत्रकारिता या कहें लोकतंत्र को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों में तेजाब डाला है। जो हत्याओं और दंगों को प्रोत्साहित करते हों, उन फांसी वादियों से हम और उम्मीद ही क्या कर सकते हैं? ये लोग एक लंगोटी वाले बुजुर्ग संत की हत्या कर खुद को वीर बताते हैं। ये लोग नफरत फैलाने वाले मीडिया और मीडिया कर्मियों की प्रशंसा में ढोल पीटते हैं।
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लोगों की नफरत खत्म करने वालों को ही खत्म कर देने में वे अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। ये लोग उनके लिए आंशु बहाते हैं, जो तोड़ते हैं। जोड़ने वालों को ये अपना दुश्मन मानते हैं। आज के मीडिया में वही दिखता है। जहां सत्ता चारण की बात होती है, वहां ऐसा मीडिया और मीडियाकर्मी होड़ में लग जाते हैं। जहां सच दिखाने की बारी आती है, वहां ये खामोश हो जाते हैं। सत्ता की नीतियों का विरोध करने वालों को यह चारण मीडिया अपना ही दुश्मन मान लेता है। कार्यक्रमों की योजना बनाते वक्त ऐसा मीडिया सत्ता के लिए एजेंडे बनाता है, जनता की आवाज के लिए नहीं। अब हम रोज यही देख रहे हैं।
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के मुताबिक पिछले 30 सालों में भारत में 52 पत्रकारों की हत्यायें की गई हैं, जबकि हिंसाग्रस्त अफगानिस्तान में दानिश सहित सिर्फ 53 पत्रकारों की हत्यायें हुई हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि सच सामने लाने वाले पत्रकारों को तालिबानियों से अधिक खतरा कहां है?
हम खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहते हैं, मगर लोकतंत्र की मूल मर्यादाओं को भूल जाते हैं। हमें अगर लोकतंत्र को मजबूत करना है, तो सच का आइना दिखाने वालों को सम्मान देना होगा, न कि उनकी हत्या करने का इरादा।
हमें अपने कर्तव्य पथ पर शहीद होने वाले पत्रकारों को सम्मान के साथ श्रद्धांजलि देनी ही चाहिए। उनके भविष्य और परिवार को सुरक्षित रखने के लिए भी व्यवस्था करनी चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते, तो लोकतंत्र का बचाना मुश्किल होगा।
जय हिंद!
अजय शुक्ल