जेल से छूटने के बादगोपाल गोडसे ने (नाथूराम गोडसे के सगे भाई और सहआरोपी) पूरी न्याय प्रणाली को करारा चांटा मारा, जब उसने अपनी जीवनी में लिखा कि मैंने और नाथूरामने कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता नहींछोड़ी, लेकिनहमें अदालत में यह गलत बयानी करनी पड़ी, क्योंकि हमपर इस बात का बहुत दबाव था किहमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सावरकर कोहर हाल मेंबेदाग रखना है।
1944के साल में ,अपनी इसकिताब का विमोचन करने जब गोपाल गोडसे दिल्ली आए तो किताब ही नहींखुली, इतिहास भी कुछ अलग ढंग से खुला।उन्होंने साफ और मजबूत आवाज़ में कहा कि मैं और नाथूराम दोनों ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय सदस्य थे।बाद में ‘फ्रंट लाइन’ अख़बार को दिये गये इंटरव्यू में गोपाल गोडसे ने इसे जादाविस्तार से बताया ,
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‘हम सभी भाई नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद
सभी आरएसएस में सक्रियथे।मैं तोकहूंगा कि हम अपने घर मेंनहीं, आरएसएस में ही पले बढ़े हैं।यह हमारे लिएपरिवार की तरह था।आगे चलकर नाथूरामसंघ का बौद्धिक कार्यवाहक बन गया।उसने अदालत में यह कहा जरूर किउसने आरएसएस छोड़ दिया था, लेकिन ऐसा उसे इसलिए कहना पड़ा क्योंकि गांधी हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस बड़े संकट में पड़ गए थे।लेकिन नाथूराम ने कभी आरएसएस छोड़ा नहीं था’ (यह पूछे जाने पर कि)लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि नाथूराम का आरएसएस से कोई लेना देना नहीं है, नाराज गोपाल गोडसे बोले ,’मैंने इसका खंडन किया है।
ऐसा कहना कायरता के सिवा दूसरा कुछ नहीं है।आप यह तो कह सकते हैं कि आरएसएस ने कभी यह प्रस्ताव पारित नहीं किया कि ‘जाओ और गांधी को मार डालो’लेकिन आप नाथूराम से आरएसएस के रिश्ते की डोर कैसे काट सकते हैं?हिन्दू महा सभा ने तो ऐसा कभी नहीं कहा।आरएसएस का बौद्धिक कार्यवाहक रहते हुए भी नाथूराम ने1944में हिन्दू महासभा का काम शुरू कर दिया था’ यह वह सच है जिस तक अदालत तब नहीं पहुंच सकी थी।
मैं तो ऐसा मानता और चाहता हूँ कि गोपाल
गोडसे का ऐसा बयान जैसे ही सार्वजनिक हुआ, सर्वोच्च न्यायालय को अपनी पहल से यह पूरा मुकदमा फिर से खोल देना चाहिये था, क्योंकि गोपाल गोडसे की किताब और बयान के बाद तो गांधी हत्या को एक सिरफिरे का कारनामा बताने वाला उसका फैसला औंधे मुंह गिर जाता है और हमारी न्याय प्रक्रिया कोमुंह चिढ़ाता है।”…..
कुमार प्रशांत