अक्सर यह देखने को मिलता है कि जब चुनाव आता है तो राजनीतिक दल भी जनता से जुड़े मुद्दे उठाने लगते हैं. आम आदमी महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त है लेकिन इन सवालों को लेकर कोई आंदोलन दिख नहीं रहा है. पंजाब व हरियाणा समेत अन्य प्रांतों के किसान अपनी समस्याओं और तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने को लेकर नौ महीने से भी अधिक समय से दिल्ली बाॅर्डर पर डटे हैं. उनके जज्बे को सलाम..! लेकिन राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं ? उनका कोई सक्रीय हस्तक्षेप जमीन पर दिख नहीं रहा है, जबकि किसानों की लड़ाई सबके सवालों से जुड़ी है.
यह वैसे ही है जैसे किसी से आप सवाल पूछें और वह जवाब कुछ दूसरा ही दे. बात बेरोजगारी, महंगाई की हो और जवाब मिले कि देश का “विकास” हो रहा है. सवाल यह है कि विकास किसका और किसके लिए ? कोरोनाकाल में सामान्य आदमी की जीविका के जो साधन थे, वह भी दम तोड़ दिए हैं और कुछ पूंजीपतियों की आमदनी में बेतहाशा वृद्धि हुई है. सरकारी संसाधन भी बेचे जा रहे हैं. पहले तर्क यह दिया गया कि पेट्रोल-डीजल के मूल्य में वृद्धि इसलिए हो रही है कि “विकास” के लिए धन जुटाना है. धन जुटा..! और उससे हाई-वे एवं ओवरब्रिज बनाए गए. अब सड़क भी बेची जा रही है.
रेलवे, एलआईसी, बीएसएनएल आदि को भी बेचा जा रहा है. तर्क यह है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. जब सरकार के पास कुछ रह ही नहीं जाएगा तो वह क्या करेगी ? अस्पताल व शिक्षा से भी सरकार अपना हाथ खींच रही है. इसका परिणाम यह हो रहा है कि समाज में अवसाद की बीमारी तेजी से अपना पांव फैला रही है. छोटी-छोटी बातों को लेकर आपस में ही लोग एक दूसरे से झगड़ रहे हैं. एक दूसरे पर अविश्वास का माहौल बन रहा है. हमारा किसी पर भरोसा ही नहीं रह गया है. लगता है कि सब मिलकर हमारी टांग खींच रहे हैं.
ये भी पढ़ें: सिद्धार्थ शुक्ला के निधन पर फिल्म इंडस्ट्री में शोक की लहर…
भ्रष्टाचार और कालाधन का सवाल तो अब कोई पूछता ही नहीं है. यह विमर्श का मुद्दा ही नहीं रह गया है. बेरोजगारी और महंगाई ने हमारे सोचने के तरीके को भी प्रभावित किया है. यह अब हमारी व्यक्तिगत जीवन की गतिविधियों को भी प्रभावित करने लगा है. वही अविश्वास..! तो फिर इसका समाधान क्या है ? राजनीतिक दलों के पास इन सवालों का फिलहाल कोई जवाब नहीं है. संभव है कि जनता ही अपनी पहल पर भविष्य में कोई रास्ता निकाले.
सुरेश प्रताप