डॉ राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 एवं 1947 मेें कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व भी निभाया था। सम्मान से उन्हें प्रायः ‘राजेन्द्र बाबू’ कहकर पुकारा जाता है।
गांधीजी के सानिध्य में राजेन्द्र बाबू का जीवन ही बदल गया-
15 अप्रैल,1917 की रात को पटना रेलवे स्टेशन पर आई एक ट्रेन से राजकुमार शुक्ल के साथ तीसरे दर्जे के डिब्बे से महात्मा गांधी उतरते हैं। पटना में राजकुमार शुक्ल को समझ नहीं आता कि रात में गांधीजी को आखिर कहाँ ठहराए? अचानक शुक्ल को उनका मुकदमा लड़ रहे एक जानेमाने और धनी वकील का ध्यान आता है और वे गाँधीजी को उनके यहाँ ले जाते हैं।
जब वो वकील की कोठी पर पहुंचते हैं तो गांधीजी एक नेम प्लेट देखते हैं जिस पर लिखा था डॉ राजेंद्र प्रसाद अभिभाषक। उनके नौकरों से पता चलता हैं कि राजेंद्र प्रसाद तो घर पर नहीं हैं, जगन्नाथ पुरी गए हुए हैं। जब शुक्ल कहते हैं कि ये हमारे मेहमान हैं इनको यहाँ ठहराना है तो नौकर लोग बरामदे में उस जगह उन्हें बिस्तर बिछाने की जगह दे देते हैं, जहाँ मुवक्किलों को ठहराया जाता है।
नौकरों ने गांधीजी की वेशभूषा से अंदाज लगाया कि कोई साधारण आदमी है। इसलिए वो गांधी को न तो कुंए से पानी निकालने की इजाज़त देते हैं और न ही घर के अंदर का शौचालय इस्तेमाल करने देते हैं। तभी गांधी को ध्यान में आता है कि उनके साथ लंदन में पढ़ने वाले मज़हरुल हक़ इसी शहर में रहते हैं. वो उन तक संदेशा भिजवाते हैं और हक साहब खुद उन्हें लेने अपनी कार से लेने तत्काल पहुंच जाते हैं।
जगन्नाथ पुरी से लौटने पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद को जब यह घटना मालूम पड़ी तो वे बहुत दुखी हुए। इस घटना ने डॉ राजेन्द्र प्रसाद के जीवन के मायने ही बदल दिए। वे गांधी के शिष्य बन गए और गांधी की अंतिम सांस तक उन्हें यह पश्चाताप रहा कि गांधीजी का उनके प्रथम घर आगमन पर नौकरों द्वारा अपमान हुआ।
डाक्टर राजेंद्र प्रसाद अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “गांधीजी के साथ रहने की वजह से हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ज़बरदस्त बदलाव आ गया। मैं जाति नियमों का बहुत कड़ाई से पालन करता था और गैर ब्राह्मण के हाथ का छुआ कुछ भी नहीं खाता था। धीरे धीरे हम सब लोग साथ खाना खाने लगे। अपने कपड़े खुद धोने लगे और अपना शौंचालय खुद अपने हाथ से साफ करने लगे।
राजेन्द्र प्रसाद अपनी किताब में लिखते हैं एक एक कर हमने अपने सारे नौकर वापस भेज दिए। हम अपने कपड़े खुद धोने लगे। कुएं से खुद पानी निकालते और अपने बर्तन भी खुद ही साफ़ करने लगे। अगर हमें पास के गाँव में जाना होता तो हम पैदल ही जाते। ट्रेन में हम तीसरे दर्जे में सफ़र करने लगे हमने बिना पलक झपकाए अपने जीवन के सारे एशो-आराम छोड़ दिए थे।”
जब गांधी चंपारण के मुख्यालय मोतीहारी की अदालत में पेश होते है तो साफ़ साफ़ कहते हैं, “ऐसा नहीं हैं कि कानून में मेरी आस्था नहीं है, लेकिन उनकी अंतरात्मा की आवाज़ कानून से कहीं बढ़ कर है।” गांधीजी के जीवनीकार राजमोहन गाँधी बताते हैं, “गाँधी का अदालत में दिया गया वक्तव्य पूरे भारत में एक बड़ी ख़बर बनता है। अहमदाबाद में गुजरात क्लब में जब राव साहेब हरिलालभाई इस ख़बर को पढ़ते हैं तो अपनी कुर्सी से उछल पड़ते हैं और उनके मुंह से निकलता है ”ये असली आदमी है,हमारा नायक है और बहुत बहादुर भी!”
चम्पारण में ही गांधी को नया नाम मिलता है, ‘बापू’
गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशाँत बताते हैं, “चंपारण में दरअसल सत्याग्रह तो हुआ ही नहीं था।एक भी जुलूस नहीं निकला। एक भी धरना नहीं हुआ। कहीं नारा लगाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी।”
“गांधीजी समस्या की जड़ तक पहुंचने के लिए कुछ लोगों से बात करते हैं और उसको रिकार्ड में लाते हैं ताकि हर चीज़ का कागज़ी सबूत रहे उनके पास। सच्चाई को दर्ज करने में भी बहुत ताक़त होती है। प्रशासन को जैसे ही पता चलता है कि बयान दर्ज हो रहे हैं , अंग्रेज दहशत में आ जाते हैं। राजेंद्र बाबू उनसे पूछते हैं कि उनके लिए वो क्या कर सकते हैं ? गांधी कहते हैं न तो मुझे आपकी वकालत की ज़रूरत है और न ही आपकी अदालत की। मुझको तो आपसे क्लर्कों का काम लेना है।”
गांधी के बदलाव का तरीका-
“जो ये लोग बोल रहे हैं, उसको दर्ज करे और जो मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, वो मुझे समझाएं। इससे एक ऐसा माहौल गढ़ता चला जाता है कि शासन तंत्र हड़बड़ा जाता है और इसकी समझ में ही नहीं आया कि इस शख़्स से कैसे निपटा जाए।”
चंपारण में गांधी किसानों की लड़ाई तो लड़ ही रहे हैं, सामाजिक दूरियों को भी पाटने की कोशिश कर रहे हैं. वो आग्रह करते हैं कि सबकी रसोई एक जगह बने। हर बड़ा शख़्स अपने साथ एक सेवक या रसोइया लेकर आया हुआ है। गांधी इस अनावश्यक बताते हैं।
प्रशांत बताते हैं, “मैं कहूंगा कि चंपारण गांधीजी की भारत में पहली पाठशाला थी।यहाँ गांधीजी की पढ़ाई हुई।यहाँ से ही इस देश के लोगों और उनकी सादगी और सरलता की ताकत को उन्होंने पहचाना यहीं उन्हेँ राजेंद्र बाबू मिले जो भारत के पहले राष्ट्रपति बने। चंपारण गांधीजी के राजनीतिक जीवन का एक ठौर था।”
डाक्टर राजेंद्र प्रसाद , राष्ट्रपिता गांधी से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने क्लर्क की तरह ही चम्पारण सत्याग्रह में भाग लिया। इसके बाद वे हमेशा के लिए गांधीजी के साथ हो गए। उन्होंने 1931 के ‘नमक सत्याग्रह’ और 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान भाग लिया और जेल भी गए।
गांधीजी का हालांकि उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था पर हकीकत में गांधीजी की कई कसौटियों पर खरा उतरने के बाद भी वे उनकी धर्मनिरपेक्षता की कसौटी की उस हद तक नहीं गए जिस हद तक नेहरू गए। सादगी की कसौटी गांधीजी की कई कसौटी में एक थी पर गांधीजी की धर्मनिरपेक्ष कसौटी के कारण ही वे आज विश्वभर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
डॉ राजेन्द्र प्रसाद सन 1950 से 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। राष्ट्रपति पद से हट जाने के बाद राजेंद्र प्रसाद को भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिया गया। अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिए उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। सदाकत आश्रम में ही 28 फ़रवरी 1963 को उनका निधन हो गया। सादगी के प्रतीक डॉ राजेन्द्र बाबू को सादर श्रद्धांजलि।