एक प्रसंग है 18 अगस्त 1945 को गांधीजी, अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर के साथ बैठे हुए थे। इतने में अचानक एक खबर आती है कि सुभाष बाबू का विमान क्रेश हो गया है। गांधीजी अचानक विचलित हो उठते हैं और वे अपने सहयोगियों से बार बार इस खबर की पुष्टि के बारे में पूछते हैं मौलाना से पूछो खबर सही है या गलत, सरदार से फोन पर पूछो क्या खबर है। लुई फिशर से सब देखकर हैरान हो जाते हैं।
फिशर, गांधीजी से कहते हैं कि आप इतना विचलित क्यों हो रहे हैं बापू? सुभाष बाबू आपकी धारा के आदमी नहीं हैं, वे आपका विरोध करते हैं और जर्मनी के तानाशाह हिटलर से हाथ मिला चुके हैं। आप क्यों इतना दुखी हो रहे हैं? गांधीजी ने फिशर को पलट कर जवाब दिया कि मि. फिशर, सुभाष बाबू जैसा कोई दूसरा देशभक्त मुझे लाक़र दिखाओ।
यह प्रसंग इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि विचारों की भिन्नता लेकिन व्यक्ति पर पूर्ण विश्वास। हम लोग एक दूसरे से असहमत हो सकते हैं।लेकिन यदि एक दूसरे पर शंका करेंगे तो सामाजिक जीवन नहीं चला सकते। समाज को चलाने के लिए विश्वास की जरूरत होती है। इसीलिए गांधीजी जैसा अहिंसा का पुजारी अपने से असहमत सुभाष बोस की मृत्यु से इतना विचलित हो उठता है। क्योंकि गांधीजी को यह विश्वास था कि सुभाष बाबू मुझसे असहमत होकर कुछ अलग कर रहे हैं लेकिन देश के लिए कर रहे हैं।
गांधीजी ने सुभाष बाबू के बारे में कहा कि तुम चाहे कितनी भी क्रांतिकारी कल्पनाएं कल लो जब तक साध्य और साधन में एकरूपता नहीं होगी कल्पनाएं साकार नहीं होगीं। सुभाष बाबू का साध्य तो बहुत ऊंचा है पर जिन साधनों ( हिटलर व तोजो) का वे सहारा ले रहे हैं उनसे आजादी का आंदोलन भिन्न दिशा में जा सकता है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि सुभाष बाबू हिटलर व तोजो का साथ लेकर सफल होकर भारत लौटते हैं तो सबसे पहले उनकी अगवानी मैं स्वयं करूँगा।
गांधीजी अपने मूल्यों के साथ अडिग रहे उन्होंने क्रांतिकारियों को अमान्य नहीं किया । हकीकत ये है कि वे पूरे जीवन भर क्रांतिकारियों से गुथे रहे। उनसे संवाद करते रहे। उनके साधन और साध्यों पर प्रश्न करते रहे और उनके प्रश्नों के जवाब देते रहे। क्रांतिकारी पृथ्वीसिंह आज़ाद गदर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में एक थे। उनके साहस और वीरता के किस्से देश भर में मशहूर थे। हिंसा और क्रांतिकारी साधनों में पूरे यकीन रखने के बावजूद पृथ्वीसिंह, गांधीजी को पितातुल्य मानते थे। एक बार उन्हें खबर मिली कि दो आदमी गांधीजी की हत्या करने के लिए भेजे गए हैं, तो वो गांधीजी की प्रार्थना सभा में आकर बोले कि उनके रहते कोई गांधीजी का बाल भी बांका नहीं कर सकता। लेकिन गांधीजी ने प्रार्थना सभा में पृथ्वी सिंह से पलटकर सवाल किया कि अगर मेरे रहते तुम्हारा कोई बाल बांका हो गया तो मैं दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा? यह सुनकर पृथ्वीसिंह सहित सभी निरुत्तर हो गए।
सोशल मीडिया पर एक अफवाह लगातार चलती रहती है है कि जब 1937 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने, उस समय गांधीजी के विरोध के कारण उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। यह बात पूरी तरह गलत है क्योंकि गांधी ने यह जरूर कहा था कि सुभाषबाबू से उनका रास्ता अलग है। सुभाष बाबू की पद्धति से गांधीजी सहमत नहीं थे, लेकिन दोनों एक दूसरे का महत्व जानते थे। कांग्रेस के उस समय के शीर्ष नेताओं में अक्सर मतभेद रहते थे। वह भारतीय नेताओं के बड़प्पन का दौर था जिसमें बड़े नेताओं में मतभेद होना एक सामान्य बात थी। जब सुभाष बाबू कांग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव पट्टाभिसीतारमैया को हराकर जीते तो गांधीजी ने उनसे कहा कि आप स्वयं अपनी कार्यसमिति अपने अनुसार बनाएं और मैं आपके बीच में कोई बाधा नहीं बनूंगा, क्योंकि आपने ये चुनाव जीता है। जो लोग इस दौर को ठीक से पढ़ते नहीं हैं वे इस तरह की अफवाहें फैलाते हैं क्योंकि उन्हें गांधीजी का कद छोटा करना है। लेकिन वे ऐसा कर दरअसल सुभाष बाबू का कद भी छोटा कर देते हैं।
सुभाष बाबू , गांधीजी की भारतीय राजनीति में सकारात्मक भूमिकाओं को भली भांति पहचानते थे उनके काम करने के तरीके अलग थे। लेकिन वो यह कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि कोई गांधी हत्या की बात तक अपनी जुबान पर लाये।
सुभाष बाबू ने 2 अक्टूबर, 1943 को बैंकाक रेडियो से प्रसारित अपने संदेश में गांधीजी को राष्ट्रपिता कहते हुए कहा ‘मन की शून्यता के ऐसे ही क्षणों में महात्मा गांधी का उदय हुआ। वे अपने साथ असहयोग, सत्याग्रह का एक अभिनव प्रयोग लेकर आये। ऐसा लगा मानो उन्हें विधाता ने ही स्वतंत्रता का मार्ग दिखाने के लिए भेजा था। क्षण भर में, स्वतः ही सारा देश उनके पीछे चल पड़ा। हर भारतीय का चेहरा आत्मविश्वास और आशा की चमक से दमक गया। यदि 1920 में गांधीजी आगे नहीं आते तो शायद आज भी भारत वैसा ही असहाय बना रहता। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनकी सेवाएं अनन्य और अतुल्य हैं। कोई एक अकेला व्यक्ति उन परिस्थितियों में एक जीवन में उतना कुछ नहीं कर सकता था।’
6 जुलाई 1944 को अपने रेडियो संदेश में पर सुभाष बाबू ने सभी की आंखे नम कर दीं। उन्होंने कहा कि भारत की आजादी की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आजाद हिंद फौज हिंदुस्तान की धरती पर लड़ रही है। हम जब तक हम ब्रिटिश राज को देश से उखाड़ नहीं देते और दिल्ली के वॉयसराय हाउस पर तिरंगा नहीं फहरा देते, हम चैन से नहीं बैठेंगे। राष्ट्रपिता, हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में हम आपका आशीर्वाद मांगते हैं। सुभाष बाबू ने बता दिया था कि गांधीजी ही सेनापति हैं , हम सब लोग उनके सैनिक। जिनको गांधी और सुभाष में तुलना करनी होती है, उनको ये जरूर जानना चाहिए।