22 वर्ष की उमर में बौद्ध भिक्षु बनने वाला ह्वेनसांग मूल बौद्ध ग्रन्थों की खोज और बुद्ध की जन्मभूमि को देखने की लालसा में बिना परमिट के चोरी-छिपे 629 ई0 में मध्य-एशिया के स्थल मार्ग/प्राचीन रेशम मार्ग से होता हुआ भारत की ओर चला और अनेक जगहों पर रुकते-घूमते वह 636 ई0 में हर्षवर्धन की राजधानी कन्नौज पहुँचा।
वह शायद पहला चीनी यात्री था जो कि पूरे उत्तर भारत सहित दक्षिण में महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक यात्रा किया। वह लिखता है कि यह देश तीन ओर से समुद्र से घिरा है और इस देश में 70 राज्य हैं।
भारत विशेषकर हर्ष के राज्य के बारे में वह कहता है कि यहाँ नगरों और गाँवों में प्रवेशद्वार हैं, दीवारें ऊँची और मोटी हैं, सड़कें और गलियाँ घुमावदार और टेढ़े हैं। मेन रोड के दोनों ओर दुकानें होती हैं जिन्हें किसी विशेष चिन्ह से पहचाना जा सकता है कि ये किस चीज की दुकानें हैं। घर ईंटो, लकड़ी के छज्जे, मिट्टी-चुने और टाइलों(खपड़ो) से बनी हैं। इमारतें चीन जैसी ही हैं लेकिन दीवारों के पलस्तर में यहाँ पवित्रता के लिए गोबर मिला दिया जाता है।
बौद्ध-विहारों की बनावट अलग से भव्य रूप में है, चारों कोनों पर तीन मंजिले बुर्ज बनाये गए हैं,भिक्षुओं के कमरे अंदर से सुसज्जित और बाहर से सादे हैं, बीच में एक चौड़ा और ऊँचा हाल है, प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है और ठीक इसी तरह राजसिंहासन भी पूर्व की ओर ही मुँह किये हुए रखा जाता है। नालन्दा विश्वविद्यालय का उसने बढ़िया विवरण लिखा है।
ह्वेनसांग के अनुसार यहाँ लोगों का जीवन स्तर ऊँचा और समृद्ध है क्योंकि भूमि उपजाऊ है और उत्पादन अधिक। उपज का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता है। वह मछली, हिरन और भेड़ के मांस को खाने में बताता है लेकिन गाय और कुछ विशेष जंगली जानवरों के माँस को खाना पूर्णतः वर्जित है। ब्राह्मणों में मांसाहार वर्जित है लेकिन अन्य वर्गों में इसका प्रचलन है बाकी कोई भी प्याज और लहसुन न खाता है, इन्हें खाने वाले नगर से बाहर रहते हैं जिन्हें अछूत समझा जाता है।
यहाँ के लोग स्पष्टवादी, न्यायप्रिय और सत्यवादी हैं ,ये कभी धोखाधड़ी न करते बल्कि अपने दिए हुए वचन का पालन करते हैं। साधारण लोग कम बुद्धि के हैं फिर भी सच्चे और विश्वसनीय हैं। इसका कारण ये भी है कि ये लोग दूसरे जन्म में अन्य योनियों में जन्म लेने के डर से भौतिक वस्तुओं को बहुत महत्व न देते हैं। राज-घराने के तथा उच्च वर्ग के लोग बढ़िया-महँगे आभूषणों को पहनते हैं फिर भी उनके कपड़े सादे ही हैं। यहाँ सफेद वस्त्रों का बहुत मान है।
व्यापार और उद्योगों में बड़ी-बड़ी श्रेणियाँ और निगम लगे हुए हैं, ब्राह्मण इन सब कामों से दूर ही रहते हैं वे ज्यादातर धर्म-कर्म करते हैं। और सर्वसाधारण के ज्यादातर लोग नंगे पाँव चलते हैं। यहाँ स्थान -स्थान पर अस्पतालों और आरामगृह की व्यवस्था है जिसमें सबसे अधिक योगदान धनी वैश्यों का है। बीमार होने पर ये लोग हफ़्तों तक उपवास रखतें हैं और स्वस्थ हो जाते हैं।
ह्वेनसांग स्पष्ट रूप से चार वर्णों और अनेक जातियों का उल्लेख करता है और बताता है कि जातिप्रथा ने समाज को जकड़ रखा है क्योंकि यहाँ अपने ही जाति में विवाह और खानपान में बहुत नियंत्रण है। विधवा विवाह यहाँ नहीं होते। वह भारत को ब्राह्मणों का देश कहता है और ब्राह्मणों को सर्वाधिक पवित्र और सम्मानित बताता है। अधिकांश शासक वर्ग क्षत्रिय है लेकिन कुछ जगहों पर शुद्र शासक भी हैं।
वैश्य यहाँ का सबसे धनी वर्ग है, राजा शिलादित्य हर्ष भी वैश्य (फि-शे) है, शुद्र कृषि कार्यों में लगे होते हैं और कुछ नौकर के रूप में हैं। चांडाल, निषाद, पुक्कुस, कसाई, भंगी, जल्लाद आदि जातियाँ हैं जोकि अछूत समझी जाती हैं और ये गाँव-नगर से बाहर अलग बस्ती में रहते हैं। ध्यान देने वाली बात ये है कि भारतीय ग्रन्थों में भी शूद्रों के 2 प्रकार हैं एक निर्वसित (अछूत) और दूसरा अनिर्वसित (ये अछूत नहीं)।
यहाँ के लोग शारीरिक सफाई पर विशेष ध्यान देते हैं, खाने से पहले हाथ-मुँह अच्छी तरह से धोते हैं और जूठा खाना कभी न खाते हैं। खाने के बाद दातुन करके फिर मुँह हाथ धोते हैं, खाने में उपयोग के बाद मिट्टी के बर्तन तोड़ दिए जाते हैं और धातु के बर्तनों को रगड़ कर माँजा जाता है। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि यहाँ ब्राह्मण धर्म (हिन्दू धर्म) सबसे अधिक प्रचलित है।
गंगा बहुत पवित्र नदी है जिसमें मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होती है। हर्ष के प्रयाग की महामोक्ष-परिषद को जोड़कर देखने पर भी यह स्पष्ट होता है। उसके विवरण से बौद्ध धर्म के ह्रास होने का संकेत मिलता है फिर भी ह्वेनसांग ने देश में लगभग 500 बौद्ध विहारों को बढ़िया अवस्था में देखा है बाकी पेशावर, तक्षशिला, कौशाम्बी, कपिलवस्तु, कुशीनगर आदि के विहार और बौद्ध स्मारक जर्जर हो चुके हैं (अधिक जानकारी के लिए फाह्यान का पोस्ट देखें)। नालन्दा, बोधगया, कन्नौज के विहार भव्य हैं। उसके अनुसार केवल कन्नौज में ही (यहाँ हर्ष का पूरा राज्य समझना ज्यादे सही होगा) 100 विहार हैं और 200 देवमन्दिर (हिन्दू-मंदिर) हैं।
बौद्ध भिक्षुओं के अनेक सम्प्रदाय बन गए हैं लेकिन इनमें महायानी और हीनयानी प्रमुख हैं,दोनों के अलग-अलग विहार हैं। ह्वेनसांग नंगे रहने वाले (दिगम्बर)और सफेद वस्त्र वाले जैनियों का भी उल्लेख करता है। यहाँ भी यह महत्वपूर्ण है कि वह इन तीनों धर्मों के संघर्ष का कहीं जिक्र न करता है और फाहियान (चौथी सदी) ने भी न किया था।
यहाँ तक कि जब 643 ई0 में हर्ष ने कन्नौज की धर्म-सभा बुलाई थी तो उसमें 30 हजार बौद्ध भिक्षु, 3 हजार ब्राह्मण, निर्गन्थ (जैनी) और नालन्दा के एक हजार आचार्य शामिल हुए थे। प्रयाग की महामोक्ष-परिषद में हर्ष ने पहले दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की और तीसरे दिन शिव की पूजा की थी। उसने बिना भेदभाव के सबको दान दिया और उसका राजकोष खाली हो गया।
वाराणसी शैव धर्म के साथ शिक्षा का भी केंद्र है,उसने विष्णु और दुर्गा का भी जिक्र किया है, एक बार तो यात्रा के दौरान डाकुओं ने देवी के सामने उसकी बलि देने के लिए पकड़ लिया था लेकिन वह किसी तरह बच निकला।उसने अनेक ऐसे लोगों का जिक्र किया है जो नंगे, मुंड-माला पहने, कुछ सिर मुड़वाये और सिर पर मोर-पंख पहने घूमते थे।
वह बताता है कि यहाँ का अनुशासन बौद्ध धर्म ग्रन्थों के अनुकूल ही है और उल्लंघन करने पर कड़ा दण्ड दिया जाता है,देश और जाति/समाज से निष्कासन ही सबसे बड़ा दण्ड है। शिक्षा धार्मिक है और ये विहारों से प्रसारित होती है।
ब्राह्मण, छात्रों को विशेषतः दर्शन और तर्कशास्त्र की शिक्षा देते हैं। धार्मीक पुस्तकें लिखी हुई हैं लेकिन वेद मौखिक रूप से प्रचलित हैं, वह चार वेंदो का नाम और गुण सहित उल्लेख करता है। लिपि ब्राह्मी है जो ब्रह्मा के मुख से निकली है, संस्कृत विद्वान वर्ग की भाषा है। यहाँ राज्य के सभी कार्यों का रिकॉर्ड रखा जाता है।
यहाँ मृतक संस्कार की तीन विधियाँ हैं। पहला शव को जलाना, दूसरा पानी मे बहा देना और तीसरा है जंगल मे खुला छोड़ देना ताकि जानवर उसे खा सकें। मृत्यु के बाद परिवार में कुछ दिन तक भोजन निषिद्ध हो जाता है और लोग नगर के बाहर स्नान करने के बाद घर मे प्रवेश करते हैं।
पूरे भारत भ्रमण के बाद ह्वेनसांग ने 644 ई0 में हर्ष से आज्ञा लिया और एक वर्ष में वापस चीन पहुंचकर ग्रन्थों के अनुवाद में अपना पूरा जीवन लगा दिया। रास्ते में कुछ आपदाओं के बावजूद वह बुद्ध के 150 अवशेष कण ,सोने-चांदी की मूर्तियां और 657 किताबों की पांडुलिपियों को सुरक्षित चीन लाया था। बाद में भी वह नालन्दा के प्रमुख आचार्य से पत्राचार करता रहा।